राजनीति विज्ञान / Political Science

वैश्वीकरण को परिभाषित कीजिए।

वैश्वीकरण को परिभाषित कीजिए।
वैश्वीकरण को परिभाषित कीजिए।

वैश्वीकरण को परिभाषित कीजिए। वैश्वीकरण हेतु सुझाव दीजिए।

वैश्वीकरण- सामान्यतया वैश्वीकरण से तात्पर्य देश की अर्थ व्यवस्था को विश्व की अर्थव्यवस्था के साथ है। जहाँ तक भारत की बात है तो इसने भी अपनी अर्थव्यवस्था को विश्व की अर्थ व्यवस्था से जोड़ने की नीति बनायी अर्थात् भारतीय व्यापारिक क्रियाकलापों विशेषकर विपणन सम्बन्धी क्रियाओं को अन्तर्राष्ट्रीय करना है, जिसमें सम्पूर्ण विश्व बाजार को एक ही क्षेत्र के रूप में देखा जाता है।

दूसरे शब्दों में वैश्वीकरण और भूमण्डलीकरण वह प्रक्रिया है जिससे विश्व बाजारों के बीच पारस्परिक निर्भरता उत्पन्न होती है और व्यापार देश की सीमाओं से प्रतिबन्धित न रहकर . विश्व व्यापार (World Trade) में निहित तुलनात्मक लागत लाभ दशाओं का विमोदन करने की दिशा में अग्रसर होता है। भारत की नई आर्थिक नीति के अन्तर्गत प्रशुल्क, कोटा तथा अन्य नियंत्रात्मक अवरोधों को समाप्त करके घेरलू उद्योगों को अन्तर्राष्ट्रीय बाजार (International Market) में प्रतिस्पर्धा करने योग्य बनाये जाने का प्रयास किया गया है। नब्बे के दशक के पूर्व भारत में घरेलू उद्योग को संरक्षण प्रदान किया गया था, जिसने भारतीय उद्योग को गुणात्मक रूप से कमजोर बना दिया। अतः नई आर्थिक नीति के माध्यम से यह प्रयास किया गया है कि भारतीय उद्योग भी अर्न्तराष्ट्रीय मानदण्डों को ध्यान में रखकर चस्तुओं का उत्पादन करें ताकि विश्व बाजार में भारतीय वस्तुएँ प्रतियोगिता का समाना कर सकें और अन्तराष्ट्रीय बाजार में अपनी सशक्त भागीदारी दर्ज करा सकें । वत्तुतः वैश्वीकरण या भूमण्डलीकरण की वास्तविक परिभाषा उसके शब्द से ही स्पष्ट होती है इस शब्द का अर्थ पूरे विश्व को एक मण्डल बना देना है। चूंकि भूमण्डलीकरण शब्द ही आर्थिक क्षेत्र से सम्बन्धित है, अतः पूरे विश्व को मण्डल बनाना यहाँ पर व्यापार से सम्बन्धित है। इस प्रकार से पूरे विश्व में वैश्वीकरण से तात्पर्य एक केन्द्रीय व्यवस्था होती है। इस प्रकार भी समझ सकते हैं कि किसी भी क्षेत्र में वैश्वीकरण का अर्थ उस व्यापारिक क्षेत्र को केन्द्रित करके इसका संचालन किसी कम्पनी या व्यक्ति के हाथों में देना है।

नये सन्दर्भों में वैश्वीकरण वह व्यवसाय है, जिससे पूँजी राष्ट्रीय सीमाओं को लांघ कर मुक्त रूप से विचरण करती है और अपने विस्तार के लिए सस्ते श्रम और सस्ते माल की तलाश में रहती है, जिसमें अन्तर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं तथा अमीर देशों के दबाव में राज्यों के नियम कानून समाप्त किये जाते है और एक मुक्त बाजार व्यवस्था को बढ़ावा दिया जाता है, जिसमें अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार समाकलित किया जाता है। इसमें दुनिया भर का वित्तीय बाजार आपस में जुड़ा होता है जिससे वैश्विक अर्थव्यवस्था की गत्यात्मकता का नियमन कर्ज संकलन की एक विश्वव्यापी प्रक्रिया द्वारा होता है और जिसमें एक सुधारे हुए पूँजीवाद की नव-उदारवादी व्यवस्था को प्रोत्साहन एवं संरक्षण प्राप्त होता है।

वैश्वीकरण की चुनौतियाँ एवं सुझाव

 पिछले दशकों से यह देखा जा रहा है कि विश्व का परिवेश बहुत कुछ परिवर्तित होता जा रहा है। वर्तमान विश्व के ज्यादातर देश वैश्वीकरण की दिशा में तेजी से अग्रसर होते जा रहे हैं। यातायात एवं संचार के साधन आज इतने अधिक विकसित हो गये हैं कि एक देश दूसरे देश के अत्यधिक नजदीक होते जा रहे हैं। आज स्थिति यह हो गयी है कि एक देश में घटित होने वाली घटनाओं का प्रभाव शीघ्र ही अन्य देशों पर पड़ता है। विश्व कई दृष्टियों से एक इकाई बनता जा रहा है।

आज ज्ञान-विज्ञान एवं तकनीकी के क्षेत्र में एक देश में होने वाले शोधों का लाभ काफी कुछ अन्य देशों को भी प्राप्त हो रहा है। आज वाणिज्य एवं व्यापार के क्षेत्र में परस्पर सहयोग और लेन-देन भी बढ़ रहा है। स्पष्ट है कि इन सबका हमारे जीवन पर पर्याप्त प्रभाव पड़ा है। आज हमारा देश भारत राष्ट्रीयता की सीमा के घेरे से बाहर निकलकर वैश्वीकरण की ओर बढ़ने लगा है।

आधुनिक समय में विश्व के सभी देशों में सामाजिक, आर्थिक, शैक्षणिक और राजनीतिक पक्षों को एक ही व्यवस्था से जोड़ने के अनेक प्रयास किये जा रहे हैं। विश्व में एक जैसी कृषि व्यवस्था, स्वास्थ्य व्यवस्था, शिक्षा व्यवस्था, कला, भवन निर्माण आदि की चुनौतियाँ सभी देशों के सामने खड़ी हैं आणविक आयुर्थी और गैट समझौतों आदि के कारण, जिन देशों के पास यह सुविधाएँ हैं, उन्हें भी सारे संसार में फैलने से रोकने की चुनौतियाँ संयुक्त राष्ट्रसंघ (U.N.O) के समक्ष खड़ी हैं। भारत में वैश्वीकरण के प्रयास आठवें दशक से प्रारम्भ हुए, किन्तु 1991 में अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (I.M.F) और विश्व बैंक के दबाव में नई आर्थिक नीति लागू होने के पश्चात ही इस प्रक्रिया में तेजी आई। इस सम्बन्ध में उठाए गए कदमों के अन्तर्गत जुलाई सन् 1991 में भारतीय मुद्रा का दो बार में कुल 22 प्रतिशत अवमूल्यन किया गया। सन् 1992-93 में व्यापार खाते में रुपये की आंशिक परिवर्तनीयता को लागू किया गया। अगस्त सन् 1994 में चालू खाते पर पूर्ण परिवर्तनीयता को लागू किया गया।

आयात उदारीकरण की नीति के अन्तर्गत आयात की अधिकतम प्रशुल्क दर को सन् 1936-94 के पहले के 110 प्रतिशत से क्रमशः घटकर 1997-98 तक 40 प्रतिशत कर दिया गया। सन् 1992-93 की आयात निर्यात नीति में महत्वपूर्ण कदम उठाये गये। एक प्रतिबन्धित सूची तैयार की गयी तथा इस सूची से बाहर रहने वाली वस्तुओं पर से ‘आयात प्रतिबन्धों’ (Import Restrictions ) को हटा लिया गया। बहुत सी वस्तुओं पर आयात प्रशुल्कों में भारी कमी की गयी। विदेशी पूँजी को रियायतें देने के उद्देश्यवश नवीन आर्थिक नीति में सुविधाओं तथा रियायतों की घोषणा की गयी। इसके अन्तर्गत उच्च प्राथमिकता वाले उद्योगों की सूची में सम्मिलित उद्योगों में सरकार की पूर्व अनुमति के बिना 51 प्रतिशत तक विदेशी इक्विटी की अनुमति प्रदान की गयी। इस विशिष्ट परिशिष्ट में सम्मिलित उद्योगों की संख्या में भी वृद्धि की गयी और उनकी संख्या 35 से बढ़कर 48 को दी गयी। इनमें से 9 उद्योगों में 74 प्रतिशत तक और खनन के क्षेत्र में 3 उद्योगों में 50 प्रतिशत तक विदेशी इक्विटी के स्वतः अनुमोदन की व्यवस्था है। ऊर्जा संयंत्रों की स्थापना के लिए 100 प्रतिशत विदेशी इक्विटी की अनुमति दी गयी। अनिवासी भारतीयों को निर्यात गृहों, स्टार व्यापार गृहों, अस्पतालों, निर्यातोन्मुखी इकाइयों, अस्वस्थ औद्योगिक इकाइयों, होटलों इत्यादि में 100 प्रतिशत तक के निवेश की अनुमति दी गयी है। इतना ही नहीं विदेशी संस्थागत निवेशकों को भारत के पूंजी बाजार में निवेश करने की अनुमति दी गयी।

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Anjali Yadav

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