राजनीति विज्ञान / Political Science

राजनीति विज्ञान के क्षेत्र में विभिन्न वैचारिक अधिकारों के उदय एवं विकास

राजनीति विज्ञान के क्षेत्र में विभिन्न वैचारिक अधिकारों के उदय एवं विकास
राजनीति विज्ञान के क्षेत्र में विभिन्न वैचारिक अधिकारों के उदय एवं विकास

राजनीति विज्ञान के क्षेत्र में विभिन्न वैचारिक अधिकारों के उदय एवं विकास पर निबन्ध लिखिए।

राजनीति विज्ञान के क्षेत्र में विभिन्न विचारों का उदय प्राचीन एवं मध्यकाल में दासता की समाप्ति, स्त्रियों एवं बच्चों के अधिकारों को छोड़कर मानवीय अधिकारों को अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर नियमित करने का कोई प्रयास नहीं किया गया। यह प्रयास संयुक्त राष्ट्र की स्थापना के पश्चात् ही किया गया। इस प्रकार सामान्यता मानवीय अधिकार अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति की चिंता का विषय द्वितीय विश्व युद्ध तक नहीं था।

भूतकाल में व्यक्तियों के अधिकारों जैसे मनुष्य जाति के अधिकार, नैसर्गिक अधिकार में या मानवीय अधिकार को स्पष्ट करने हेतु कुछ मत या सिद्धान्तों (Theories) को प्रतिपादित किया गया। इन सिद्धान्तों को संक्षेप में यहाँ दिया जा रहा है-

1. प्राकृति विधि सिद्धान्त (Natural Law Theory)- डायस ने उचित ही लिखा है कि नैसर्गिक विधि सिद्धान्त के साथ इतने महान व्यक्ति सम्बद्ध हैं जिनते और किसी भी सिद्धान्त के साथ नहीं हैं क्योंकि इस सिद्धान्त ने सभी युगों के कुछ महानतम विचारकों को अपनी ओर आकर्षित किया है। नैसर्गिक विधि को जन्म देने का श्रेय ग्रीक लोगों को जाता है। इस सिद्धान्त ने ग्रीस के महान विद्वानों— सोफोक्लीज तथा अरस्तू जैसे महान् विद्वानों को अपनी ओर आकर्षित किया है। ग्रीक विद्वानों के पश्चात् इस सिद्धान्त का विकास रोमन विद्वानों ने किया। रोम लोगों के पूर्व विधि को जस सिविल कहा जाता था। तत्पश्चात् रोमन लोग कों ने एक अन्य विधिक प्रणाली का विकास किया जिसे जस जेन्टियम कहा। इस प्रणाली को सार्वभौमिक रूप से लागू होने वाली प्रणाली कहा गया। रोम के गणतंत्रीय युग में जस जेन्टियस की नैसर्गिक विधि द्वारा इसे पुनः अर्जित किया गया। नैसर्गिक विधि को रोम में जस नैचूरेल भी कहा जाता था ब्राइरली के अनुसार, रोमल लोगों के अनुसार, “जस नैचूरेल” का तात्पर्य ऐसे सिद्धान्तों के समूह से था जिन्हें मानव आचरण को नियंत्रित करना चाहिये क्योंकि वह मनुष्य की प्रकृति, एक तर्कसंगत एवं सामाजिक जीलव के रूप में निहित है। नैसर्गिक विधि उस बात की अभिव्यक्ति है जो सही है उसके विरुद्ध हजो मनमाना है; यह वह है जो नैसर्गिक या स्वाभाविक है उसके विरुद्ध जो सुविधाजनक है, तथा जो सामाजिक अच्छाई या भलाई के लिये है उसके विरुद्ध जो व्यक्तिगत इच्छानुसार है। अतः प्राकृतिक या नैसर्गिक विधि में न्याय के प्रारम्भिक सिद्धान्त थे जो आवश्यकताओं पर आधारित था। रोमन लोगों के अनुसार नैसर्गिक विधि में न्याय के प्रारम्भिक सिद्धान्त थे जो उचित तर्क का अधिदेश था। दूसरे शब्दों में, उक्त सिद्धान्त प्रकृति के अनसार थे तथा वह अपरिवर्तनीय तथा शाश्वत थे।

प्राकृतिक अधिकार का सिद्धान्त उपर्युक्त प्राकृतिक विधि के सिद्धान्त से निकाला गया है। प्राकृतिक अधिकारों का सिद्धान्त आधुनिक मानवीय अधिकारों से निकट रूप से सम्बद्ध है। इसके मुख्य प्रवर्तक जान लॉक थे। उनके अनुसार, जब मनुष्य प्राकृतिक दशा में था जहाँ महिलाएँ एवं पुरुष स्वतंत्र स्थिति में थे तथा अपने कृत्यों को निर्धारित करने के लिये योग्य थे तथा वह समानता की दशा में थे। लॉक ने यह भी कल्पना की कि ऐसी प्राकृतिक दशा में कोई भी किसी अन्य की इच्छा या प्राधिकार के अधीन नहीं था। तत्पश्चात् प्राकृतिक दशा के कुछ जोखिमों एवं असुविधाओं से बचने के लिये उन्होंने एक सामाजिक संविदा की जिसके द्वारा उन्होंने पारस्परिक रूप से तय किया कि वह एक समुदाय तथा राजनीतिक निकाय स्थापित करेंगे। परन्तु उन्होंने कुछ प्राकृतिक अधिकार जैसे जीवन का अधिकार, स्वतंत्रता का अधिकार तथा सम्पत्ति का अधिकार अपने पास रखा। यह सरकार का कर्त्तव्य था कि वह अपने नागरिकों के प्राकृतिक अधिकारों का सम्मान एवं संरक्षण करे। वह सरकार जो इसमें असफल रही या जिसने अपने कर्त्तव्य में उपेक्षा बरती अपने पद या कार्यालय की वैधता खो देगी।

यहाँ पर यह नोट करना वांछनीय होगा कि प्राकृतिक विधि एवं प्राकृतिक अधिकारों के सिद्धान्त की धारणा में भी विभिन्न समयों में समय एवं परिस्थितियों के अनुसार परिवर्तन आया।

2. राज्य के प्राधिकार का सिद्धान्त- अस्तित्ववादियों ने अधिकारों के विषय में राज्य के प्राधिकार सिद्धान्त को अपनाया। अस्तित्ववाद अठारहवीं एवं उन्नीसवीं शताब्दियों में प्रचलित था। अस्तित्ववादी यह विश्वास करते थे कि यदि विधि उपयुक्त विधायनो या प्रभुत्वसम्पन्न शासक द्वारा निर्मित की गयी है तो लोग उसे मानने को बाध्य होंगे चाहे वह युक्तियुक्त या अयुक्तियुक्त हो। अस्तित्ववादी इस विधि को लॉ पाजिटिवम अर्थात् ऐसी विधि कहते थे जो वास्तव या तथ्य में, विधि है न कि ऐसी विधि जिसे होना चाहिये (ought) था। बायन्कर शोएक इस विचारधारा के एक प्रमुख प्रवर्तक थे। अस्तित्ववादियों के अनुसार, मानवीय अधिकारों का स्रोत ऐसी विधिक प्रणाली है जिसमें अनुशास्ति होती है। उन्होंने ‘है’ (is) और ‘होना चाहिये’ (ought) के अन्तर पर बहुत बल दिया तथा प्राकृतिक विधि के प्रवर्तकों की आलोचना की जिन्होंने इस अन्तर को भुला दिया। अस्तित्ववादी मत के एक आधुनिक प्रवर्तक प्रो. एच. एल. ए. हार्ट हैं। उनके अनुसार, विधि की अवैधता तथा विधि की नैतिकता में अन्तर होता है। यही प्राकृतिक अधिकारों के सिद्धान्त तथा अस्तित्ववादी सिद्धान्त में मूलअन्तर है। अस्तित्ववादयिों के अनुसार, विधि के वैध होने के लिये यह आवश्यक है कि उसे एक उपयुक्त विधायनी प्राधिकार या शक्ति द्वारा अधिनयमित किया जाय। ऐसी विधि वैध रहेगी चाहे वह अनैतिक ही क्यों न हो।

3. मार्क्सवादी सिद्धान्त मत या विचार- व्यक्तियों के अधिकारों के बारे में मार्क्सवादियों की धारणा है कि व्यकितयों अधिकार पूर्ण समुदाय के अधिकारों से पृथक नहीं होते हैं। उनके अनुसार केवल समुदाय या समाज के उत्थान से ही व्यक्तियों को उच्च स्वतन्त्रतायें प्राप्त हो सकती हैं। इस सिद्धान्त के दृष्टिकोण के अनुसार, व्यक्तियों की मूल आवश्यकताओं की संतुष्टि भी सामाजिक लक्ष्यों की प्राप्ति के अधीन हैं। उनके अनुसार, व्यक्तियों अधिकारों की धारणा एक पूँजीवादी भ्रम है। उनके अनुसार, विधि नैतिकता, प्रजातंत्र, स्वतंत्रता आदि की धारणाएँ ऐतिहासिक कोटियों में आती हैं तथा जिनकी अन्तर्वस्तु या विषयवस्तु समाज या समुदाय के जीवन की दशाओं से निर्धारित होती है। धारणाओं एवं विचारों में परिवर्तन समाज में रहने वाले लोगों के जीवन में होने वाले परिवर्तनों के साथ होते हैं। पिछले दो दशकों में मार्क्सवादियों की धारणा में क्रान्तिकारी परिवर्तन हुये हैं।

4. न्याय पर आधारित सिद्धान्त मत या विचार- इस सिद्धान्त के मुख्य प्रवर्तक जॉन राल हैं। उनके अनुसार, सामाजिक संस्था का प्रथम गुण न्याय है। उनके मतानुसार, मानवीय अधिकारों को समझने के लिये न्याय की भूमिका निर्णायक है। वास्तव में मानवीय अधिकार न्याय का लक्ष्य है। न्याय के सिद्धान्तों द्वारा समाज की मूल संस्थाओं में अधिकारों एवं कर्त्तव्यों को समनुदेशित किया जाता है तथा इसके द्वारा सामाजिक सहयोग के लाभ एवं भार उपयुक्त रूप से विभाजित किये जा सकते हैं। न्याय के सिद्धान्त के पीछे न्याय की सामान्य धारणा औचित्य की है। न्याय पर आधारित सिद्धान्त औचित्य (Fairness) की धारणा से ओतप्रोत हैं। न्याय एवं औचित्य की धारणायें सामाजिक प्राथमिक लक्ष्यों जैसे स्वतंत्रता एवं अवसर, आय तथा धन तथा आत्म-सम्मान के आधार जो समान रूप से विभाजित किये जायें जब तक कि सबसे कम अनुगृहीत के लाभ के लिये कोई अपवाद न किया जाय, को निर्धारित करने में सहायक होते हैं।

5. गरिमा पर आधारित सिद्धान्त (Theories based on Dignity)- इस मत के प्रवर्तक मानवीय गरिमा के संरक्षण को सामाजिक नीति का सर्वोपरि उद्देश्य मानते हैं। मूल्यों से अनुस्थापित नीति मानव गरिमा के संरक्षण पर आधारित दृष्टिकोण अपनाते हुये उनका मत है कि मानव अधिकारों की माँगें वह माँगें हैं जिनसे उन सभी मूल्यों में बड़े पैमाने में सभी मूल्यों में हिस्सा लेने जिन पर मानवीय अधिकार समुदाय के सभी मूल्य प्रक्रियाओं में प्रभावशाली ढंग से भाग लेने पर निर्भर करते हैं। उनके अनुसार, अन्तर्निर्भर रहने वाले मूल्य हैं जिन पर मानवीय अधिकार निर्भर करते हैं।

6. समानता के सम्मान तथा चिंता पर आधारित मत या विचार या सिद्धान्त- मानव अधिकारों का यह सिद्धान्त समानता के सम्मान तथा चिंता पर आधारित है। इस सिद्धान्त के प्रर्वतक डोवोरकिन (Dovorkin) हैं। इस सिद्धान्त का आधार यह भी है कि सरकार को अपने सभी नागरिकों की समान चिंता तथा सम्मान करना चाहिये। डोवोरकिन ने उपयोगिता के सिद्धान्तों (Utilitarian principles) का अनुमोदन करते हुए कहा है कि प्रत्येक को एक गिना जा सकता है तथा किसी को भी एक से अधिक नहीं गिना जा सकता है। उन्होंने सामाजिक कल्याण के लिये राज्य हस्तक्षेप के विचार का भी अनुमोदन किया। उनके मतानुसार, स्वतंत्रता का अधिकार बहुत ही अस्पष्ट है परन्तु कुछ विनिर्दिष्ट स्वतंत्रतायें हैं जैसे व्यक्त करने का अधिकार, पूजा करने का अधिकार तथा व्यक्तिगत तथा लैंगिक सम्बन्धों के सरकारी हस्तक्षेप के विरुद्ध विशेष संरक्षण की आवश्यकता है। यदि स्वतंत्रताओं की उपयोगिता की गणना या बिना नियंत्रित गणना के लिये छोड़ दिया जाय तो संतुलन सामान्य हित के बजाय नियंत्रित या परिसीमन के पक्ष में होगा।

प्राकृतिक अधिकारों का सिद्धान्त जो प्राकृतिक विधि पर आधारित है, मानवीय अधिकारों की वर्तमान स्थिति तथा विकास के बहुत निकट है। प्राकृतिक अधिकारों का सिद्धान्त, न्याय पर आधारित सिद्धान्त, मानव गरिमा पर आधारित सिद्धान्त तथा समानता पर आधारित सिद्धान्त सब मिलकर मानवीय अधिकारों की वर्तमान स्थिति, विकास, संरक्षण आदि को बहुत हद तक स्पष्ट करते हैं। बीसवीं सदी में अस्तित्ववादी मत का प्रभाव तथा प्रचलन कम हुआ है तथा प्राकृतिक विधि का पुनरुत्थान हुआ हे। पुनः एक बार प्राकृतिक विधि में लोगों ने अपना विश्वास प्रकट किया है। उपर्युक्त वर्णित न्याय तथा गरिमा पर आधारित सिद्धान्त प्राकृतिक विधि सिद्धान्त पर ही आधारित है। इसमें सन्देह नहीं है कि प्राकृतिक विधि की धारणा में भी इस दौरान महत्वपूर्ण परिवर्तन हुये हैं। अपने मतों को कान्ट (Kant) एवं हीगेल (Hegel) के मतों पर आधारित करते हुये आधुनिक लेखकों एवं विधिशात्रियों ने प्राकृतिक विधि को समय तथा परिस्थितियों के अनुरूप अपनाया। इस आन्दोलन के मुख्य प्रवर्तक स्टैमलर (Stammler) एवं कोहेलर (Koheler) थे। उदाहरण के लिये स्टैमलर ने यह स्वीकार किया कि यद्यपि प्राकृतिक विधि के मोलिक या मूल सिद्धान्त अपरिवर्तनीय रहते हैं, प्राकृतिक विधि को समय तथा परिस्थितियों के अनुरूप अपनाया जा सकता है। अतः उन्होंने “प्राकृतिक विधि परिवर्तनशील विषय वस्तु के साथ” (Natural Law with a variable content) आधुनिक समय में अमेरिका के प्रो. फुलर (Prof. Fuller) प्राकृतिक विधि के एक प्रमुा प्रवर्तक हैं। उन्होंने “विधि की आन्तरिक नैतिकता” (inner morality) का सिद्धान्त प्रतिपादित किया। उनके अनुसार, विधि की एक आन्तरिक नैतिकता होती है तथा विधि का एक निश्चित उद्देश्य होता है। विधि एक अर्थहीन नियमों का समूह नहीं है तथा न ही यह केवल अपने लिये विद्यमान रहता है। विधि किसी विशेष प्रयोजनया उद्देश्य की प्राप्ति के लिये निर्मित किया जाता है तथा विद्यमान रहता है।

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Anjali Yadav

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