राजनीति विज्ञान / Political Science

अन्तर्राष्ट्रीय एवं राष्ट्रीय विधि का अर्थ अथवा अन्तर्राष्ट्रीय विधि एवं राज्य विधि के सम्बन्ध

अन्तर्राष्ट्रीय एवं राष्ट्रीय विधि का अर्थ अथवा अन्तर्राष्ट्रीय विधि एवं राज्य विधि के सम्बन्ध
अन्तर्राष्ट्रीय एवं राष्ट्रीय विधि का अर्थ अथवा अन्तर्राष्ट्रीय विधि एवं राज्य विधि के सम्बन्ध

अन्तर्राष्ट्रीय विधि एवं राष्ट्रीय विधि का अर्थ स्पष्ट करते हुये दोनों के मध्य सम्बन्धों से सम्बन्धित विभिन्न सिद्धान्तों का वर्णन कीजिए। अथवा अन्तर्राष्ट्रीय विधि एवं राज्य विधि के सम्बन्ध में विभिन्न सिद्धान्तों की विवेचना कीजिए । अथवा अन्तर्राष्ट्रीय विधि एवं राज्य विधि के सम्बन्ध विषयक विभिन्न सिद्धान्तों का परीक्षण कीजिए । अथवा एकात्मक, द्वैतवादी एवं रूपान्तरवादी सिद्धान्तों पर टिप्पणी लिखिये।

अन्तर्राष्ट्रीय एवं राष्ट्रीय विधि का अर्थ

 अन्तर्राष्ट्रीय विधि से तात्पर्य उन नियमों की संविदा से माना जाता है जिसके द्वारा एक राज्य से दूसरे राज्य के आपसी सम्बन्धों को निर्धारित किया जाता है। राष्ट्रीय विधि से तात्पर्य केवल उसी विधि से होता है जिसमें एक ही राष्ट्र के व्यक्तियों के आपसी सम्बन्धों का निर्धारण होता है। प्रमुख विद्वान केल्सन ने इसके अन्तर को स्पष्ट करते हुये लिखा है कि, “अन्तर्राष्ट्रीय विधि राष्ट्रों के बाहरी अथवा विदेशी मामलों के सम्बन्धों को नियन्त्रित करती है; जबकि राष्ट्रीय विधि के द्वारा राज्य के आन्तरिक विषयों पर ही नियन्त्रण किया जाता है।”

अन्तर्राष्ट्रीय विधि एवं राष्ट्रीय विधि के सम्बन्ध

अन्तर्राष्ट्रीय विधि एवं राष्ट्रीय विधि के सम्बन्ध के प्रश्न पर विधिवेत्ताओं के मतों में भिन्नता होने के कारण अनेक सिद्धान्तों का विकास हुआ, जिनमें निम्न प्रमुख हैं-

(1) एकात्मक सिद्धान्त (Monistic Theory) – इस मत को मानने वाले विधिशास्त्री एक इकाई के रूप में हैं जिसमें बन्धकारी विधि के नियम होते हैं, चाहे वे राज्यों पर व्यक्तियों पर या दूसरी इकाइयों पर लागू हों। स्टार्क ने उनके मत का इस प्रकार स्पष्टीकरण किया है-विधि का विज्ञान ज्ञान का क्षेत्र है और निर्णयात्मक बात यह है कि अन्तर्राष्ट्रीय विधि विधि है। अथवा नहीं? यदि एक बार यह मान लेते हैं कि अन्तर्राष्ट्रीय विधि सच्चे अर्थो में विधि है तो केल्सन (kelsen) तथा दूसरे एकत्ववादी लेखकों के अनुसार यह इन्कार करना असम्भव हो जायेगा कि दोनों प्रणाली (राष्ट्रीय तथा अन्तर्राष्ट्रीय विधि) एक विधि के विज्ञान के दो रूप नहीं है। एकत्ववाद के अलावा (विशेषकर द्वैतवाद) कोई भी मत अन्तर्राष्ट्रीय विधि को सच्ची विधि प्रकृति की नहीं मानेगा।

अन्तर्राष्ट्रीय विधि सच्चे अर्थों में विधि है और इस बात को ध्यान में रखते हुए एकात्मक सिद्धान्त उचित ही प्रतीत होती है। एकत्ववाद को मानने वाले विद्वानों में राइट, केल्सन तथा ड्यूगिट आदि के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।

एकात्मक सिद्धान्त को मानने वाले विधिशास्त्रियों के अनुसार, अन्तर्राष्ट्रीय विधि तथा राज्यविधि के नियम एक विधि की प्रणाली द्वारा आपस में एक-दूसरे से सम्बन्धित हैं। अन्तर्राष्ट्रीय विधि तथा राज्य-विधि दोनों ही एक विधि के दो भाग हैं जो पूरे मनुष्य-समुदाय पर किसी-न-किसी रूप में लागू होते हैं। संक्षेप में, यदि विधि का अन्तिम विश्लेषण करें तो हम इस निष्कर्ष पर पहुँचेंगे कि सब विधियों की जड़ में व्यक्ति है, अर्थात् सभी प्रकार की विधियाँ व्यक्तियों के लिए ही बनती हैं।

(2) द्वैतवादी सिद्धान्त (Dualistic Theory) – द्वैतवादी सिद्धान्त को मानने वाले विधिशास्त्रियों के मत में अन्तर्राष्ट्रीय तथा राज्य-विधि अलग-अलग हैं। एकात्मक सिद्धान्त पर ही बहुत समय तक विधिशास्त्रियों का विश्वास था, क्योंकि एकत्ववाद प्राकृतिक विधि से विशेष रूप से प्रभावित था। परन्तु 19वीं शताब्दी के कुछ दार्शनिक ने राज्य की इच्छा की प्रभुत्वसम्पन्नता पर जोर दिया। इन विद्वानें ने राज्य की इच्छा की धारणा हीगेल (Hegel) नाम के विद्वान् से ली तथा इसका विकास किया। यह विचार आधुनिक युग में आधुनिक राज्यों की विधायिनी संस्थाओं ‘के सम्पूर्ण प्रभुता सम्पन्नता के विकास पर आधारित है। इस मत के प्रमुख प्रवर्तक ट्रीपिल (Triepel) तथा एंजीलाटी (Anzilloti) हैं। ट्रीपिल के अनुसार, अन्तर्राष्ट्रीय विधि और राज्य-विधि में अन्तर हैं-

(अ) विषय-सम्बन्धी- राज्य विधि का विषय व्यक्ति है, जबकि अन्तर्राष्ट्रीय विधि का विषय राज्य है।

(ब) विधि सम्बन्धी स्रोत- राज्य-विधि का स्रोत राज्य की इच्छा है तथा अन्तर्राष्ट्रीय विधि का स्त्रोत राज्यों की सामान्य इच्छा है।

ऐंजीलाटी ने अन्तर्राष्ट्रीय विधि तथा राज्य-विधि के अन्तर को एक भिन्न रूप में समझाया है। उनके अनुसार, अन्तर्राष्ट्रीय विधि तथा राज्य-विधि के मौलिक सिद्धान्तों में अन्तर है। राज्य-विधि का मौलिक सिद्धान्त है कि राज्य विधायिनी शक्ति द्वारा निर्मित विधियों का पालन किया जायेगा। अन्तर्राष्ट्रीय विधि का मौलिक सिद्धान्त (Pacta Sunt Servanda) है, अर्थात् राष्ट्रों के बीच किये गये करारों का सम्मान किया जायेगा। इस आधार पर ऐंजीलाटी महोदय का कथन है कि दोनों प्रणालियाँ अलग-अलग हैं। इसमें सन्देह नहीं है कि पैक्टा सन्ट सर्वेन्डा अन्तर्राष्ट्रीय विधि का एक महत्वपूर्ण सिद्धान्त है। परन्तु यह कहना कि केवल यही सिद्धान्त अन्तर्राष्ट्रीय विधि का आधार है, उचित प्रतीत नहीं होता।

यह कहना उचित नहीं है कि अन्तर्राष्ट्रीय विधि केवल राज्यों पर बन्धकारी है। आधुनिक युग में अन्तर्राष्ट्रीय विधि व्यक्तियों तथा राज्यों के अलावा दूसरी इकाइयों पर भी लागू होती है।

इसके अलावा राज्य-इच्छा को राज्य-विधि का स्रोत मानना भी उचित नहीं है। राज्य-इच्छा वास्तव में उन व्यक्तियों की इच्छा है जिनसे राज्य बनते हैं। इसके अलावा यह कहना भी उचित नहीं है कि अन्तर्राष्ट्रीय विधि का स्रोत राज्यों की सामान्य इच्छा है। क्योंकि यह बात सिद्धान्त पर आधारित है, जिसकी आलोचना पहले की जा चुकी है। राज्यों की सहमति के अतिरिक्त भी कुछ मौलिक सिद्धान्त हैं, जो राज्यों पर बन्धकारी हैं। ट्रीपिल के मत की इस आधार पर भी आलोचना की जा सकती है कि यह सामान्य अन्तर्राष्ट्रीय विधि के अस्तित्व को स्पष्ट नही करती है। इसके अतिरिक्त पारस्परिक सहमति या करार से सभी बन्धकारी विधि निर्मित हो सकती है जबकि विधि के नियम इसे मान्यता प्रदान करें। अतः राज्यों के मध्य करार होने के पूर्व ही विधि के नियमों का होना आवश्यक है।

एकात्मक एवं द्वैतवादी सिद्धान्त के विचारों का तुलनात्मक मूल्यांकन- उपर्युक्त विवेचना से एकात्मक सिद्धान्त का मत अधिक उचित प्रतीत होता है। परन्तु कोई भी सिद्धान्त अपने-आप में पूर्ण नहीं है तथा उसमें समस्त तथ्यों का समावेश होना सम्भव नहीं है। राज्यों के में अभ्यास से विदित होता है कि कहीं अन्तर्राष्ट्रीय विधि की प्राथमिकता होती है, कहीं राज्य-विधि की प्राथमिकता होती है तथा कहीं विभिन्न-विधिक प्रणालियों से समन्वय मिलता है। उदाहरण के लिए, जब राज्य-विधि तथा अन्तर्राष्ट्रीय विधि में संघर्ष होता है, तो अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय निर्णय देता है कि अन्तर्राष्ट्रीय विधि ही अधिक मान्य होगी। दूसरी ओर जब राष्ट्रीय न्यायालय यह देखते हैं कि अन्तर्राष्ट्रीय विधि तथा राज्य-विधि में संघर्ष इस प्रकार का है, जिसे टाला नहीं जा सकता, तो वह राज्य-विधि को ही अधिक मान्यता प्रदान करते हैं। तकनीकी रूप से राज्य-विधि ऐसे कार्य का निर्देश नहीं दे सकती है जो अन्तर्राष्ट्रीय विधि के अन्तर्गत निषिद्ध है, परन्तु अभ्यास में व्यक्तियों को ऐसी विधि को मानने को बाध्य नहीं किया जा सकता है। “अत: अभ्यास में प्रत्येक परिस्थिति का विश्लेषण अलग-अलग किया जाना चाहिए तथा दोनों प्रणालियों में से कौन अधिक मान्य होगी, यह इस बात पर भी निर्भर करता है कि किस न्यायालय के समक्ष वाद है

(3) विनिर्दिष्ट ग्रहणीकरण सिद्धान्त (Specific Adoption Theory) – अस्तित्ववादियों के मत के अनुसार अन्तर्राष्ट्रीय विधि को प्रत्यक्ष रूप से राज्य-विधि के क्षेत्र में लागू नहीं किया जा सकता। इसको लागू करने के लिए आवश्यक है कि इसको विशिष्ट रूप से राज्य-विधि के क्षेत्र में ग्रहण किया जाय। संक्षेप में राज्य-विधि के क्षेत्र में अन्तर्राष्ट्रीय विधि के नियमों के लिए यह आवश्यक है कि उन्हें राज्य-विधि अपनी विशेष प्रक्रिया द्वारा स्वीकृति प्रदान करें। भारतीय संसद द्वारा टोकियो- अभिसमय अधिनियम, 1975 तथा राजनीतिक सम्बन्धों पर वियना-अभिसमय 1972, हेग-अभिसमय, 1970 के प्रावधानों के लागू करने के लिए वायुयान अपहरण विरोधी अधिनियम, 1982 (Anti-Hijacking Act, 1982) तथा मन्ट्रियल- अभिसमय के प्रावधानों को लागू करने के लिए नागरिक उड्डयन की सुरक्षा के विरुद्ध अवैध कार्यों के दमन अधिनियम, 1982 (The Suppression of Unlawful Acts Against Safety Civil Aviation Act, 1982) का पारित करना इस बात की पुष्टि करता है। जॉली जार्ज बनाम बैंक ऑफ कोचीन (Jolly George v. The bank of Cochin) के वाद में भारत के उच्चतम न्यायालय ने भी मानवीय अधिकारों की अन्तर्राष्ट्रीय प्रसंविदा के बारे में कहा है कि राज्य पक्षकारों की सकारात्मक प्रतिबद्धता से गृह में विधायिनी कार्यवाही प्रेरित होती है परन्तु इससे प्रसंविदा स्वत: ही भारतीय विधि का प्रयोज्य भाग नहीं बन जाती।

आलोचना- यह सिद्धान्त पूर्णतः अस्वीकार किये जाने योग्य है क्योंकि यह तर्क की कसौटी पर प्रथम दृष्टया ही सही नहीं उतरता।

(4) रूपान्तरवादी (Transformation Theory) – अन्तर्राष्ट्रीय एवं राष्ट्रीय विधि के आपसी सम्बन्धों के विषय में रूपान्तरवादी सिद्धान्त का महत्वपूर्ण स्थान है। विधिशास्त्री स्टार्क के अनुसार जो नियम रूपान्तर द्वारा प्रभावी होते हैं उसे रूपान्तरवादी सिद्धान्त कहा जाता है। इस म के अनुसार, अन्तर्राष्ट्रीय विधि और विशेषकर अन्तर्राष्ट्रीय संधियों के नियमों को राज्य-विधि के क्षेत्र में लागू करने के लिए पहले इनका रूपान्तर आवश्यक है अर्थात् अन्तर्राष्ट्रीय संधियों के नियम राज्य-विधि के क्षेत्र में तभी लागू किये जा सकते हैं जबकि राज्य-विधि द्वारा इनका रूपान्तर कर दिया गया हो। संक्षेप में, जब तक राज्य-विधि ऐसे नियम को वैधता प्रदान नहीं करती तब तक वे राज्य-विधि के क्षेत्र में लागू नहीं किये जा सकते।

आलोचना – यह मत सहमति के सिद्धान्त पर आधारित है। सहमति के सिद्धान्त की आलोचना पहले ही की जा चुकी है। सभी संधियों को राज्य-विधि के क्षेत्र में लागू होने के लिए राष्ट्र-विधि में पारित करने की आवश्यकता नहीं है। कुछ विधि-निर्माण करने वाली संधियों को राज्य-विधि में बिना रूपान्तर किये ही लागू किया जाता है। रूपान्तरवाद की बहुत से विधि- शास्त्रियों ने आलोचना की है। यह कहना उचित नहीं होगा कि अन्तर्राष्ट्रीय विधि में प्रत्येक दशा में रूपान्तर आवश्यक है।

(5) समर्पणवादी सिद्धान्त (Delegation Theory) – समर्पणवादी सिद्धान्त का जन्म रूपान्तरवादी सिद्धान्त की आलोचना से ही हुआ। इस सिद्धान्त के प्रणेता रूपान्तरवाद के कठोर आलोचक थे। इन आलोचकों के अनुसार अन्तर्राष्ट्रीय विधि के संवैधानिक नियमों द्वारा प्रत्येक राज्य के संविधान को यह अधिकार प्रदान कर दिया गया है कि वह स्वयं निर्धारित करे कि अन्तर्राष्ट्रीय विधि के अनुसार अन्तर्राष्ट्रीय संधियाँ राज्य-विधि के क्षेत्र में किस प्रकार लागू की जायेंगी। अतः किसी प्रकार का रूपान्तरवाद नहीं होता, न ही नये प्रकार के नियमों का सृजन होता है। वरन् विधिनिर्माण करने के एक एकल कृत्य को बढ़ा दिया जाता है। राज्य विधि की संवैधानिक आवश्यकतायें विधि निर्माण की एकात्मक कार्यविधि की केवल एक भाग होती हैं। इस मत की भी आलोचना की गयी है। यह मत इस परिकल्पना पर आधारित है कि अन्तर्राष्ट्रीय विधि के कुछ संवैधानिक नियम हैं। यह स्पष्ट नहीं है कि वह कौन से नियम हैं तथा वह किस प्रकार राज्य संविधान को अधिकार प्रत्यायुक्त कर सकते हैं।

प्राथमिकता किसे- विभिन्न मतों का अवलोकन करने के बाद यह निष्कर्ष निकालना आवश्यक है कि अन्तर्राष्ट्रीय विधि तथा राज्य-विधि का आपस में संघर्ष हो तो प्राथमिकता किसकी होगी? द्वैतवाद के मानने वालों के अनुसार प्राथमिकता राज्यविधि की होगी। उनके कथन का आधार राज्य-इच्छा की स्वतन्त्रता और प्रभुत्वसम्पन्नता है। दूसरी ओर एकात्मक सिद्धान्त के मानने वालों का इस विषय में एकमत नहीं है। उदाहरण के लिए, केल्सन, जो एकत्ववाद के प्रवर्तक हैं, के अनुसार प्राथमिकता अन्तर्राष्ट्रीय विधि या राज्य-विधि किसी की भी हो सकती है।

निष्कर्ष- उपर्युक्त में से किसी भी सिद्धान्त को समुचित नहीं कहा जा सकता। दोनों प्रकार की विधियाँ एक दूसरे पर निर्भर है। अतः प्रत्येक राज्य का यह कर्तव्य है कि वह अपनी विधि एवं संविधान का निर्माण करते समय अन्तर्राष्ट्रीय विधि के प्रावधानों को भी ध्यान में रखे।

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Anjali Yadav

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