अन्तर्राष्ट्रीय एवं राष्ट्रीय विधि के सम्बन्ध में भारतीय अभ्यास का वर्णन कीजिए।
अन्तर्राष्ट्रीय विधि के प्रति भारतीय अभ्यास को जानने हेतु संविधान का अनुच्छेद 51 मजबूत आधार प्रदान करता है। यह अनुच्छेद हमें बताता है कि अन्तर्राष्ट्रीय रूढ़ि एवं संधियों के प्रति भारत का क्या दृष्टिकोण है। इसके अनुसार, ‘राज्य प्रयास करेगा कि (क) अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति तथा सुरक्षा की वृद्धि हो, (ख) राष्ट्रों के बीच न्यायसंगत सम्मानपूर्ण सम्बन्ध बने रहें, (ग) अन्तर्राष्ट्रीय विधि और सन्धि बाध्यताओं को राज्यों के परस्पर व्यवहार में आदर मिले और (घ) अन्तर्राष्ट्रीय विवादों का माध्यस्थ द्वारा निपटारे के लिए प्रोत्साहन मिले।” यह अनुच्छेद संविधान के भाग 4 में शामिल किया गया है जो राज्य की नीति के निदेशक तत्वों (directive principles of state policy) को प्रतिपादित करता है। संविधान के इसी भाग में अन्तर्राष्ट्रीय अनुच्छेद 37 प्रावधान करता है कि भाग 4 में अन्तर्राष्ट्रीय निदेशक सिद्धान्त देश के शास में मूलभूत है तथा विधि बनाने में इन तत्वों को लागू करना राज्य का कर्तव्य होगा। इस अनुच्छेद में यह भी कहा गया है कि इसमें अन्तर्विष्ट प्रावधान किसी न्यायालय में लागू नहीं होंगे। संविधान का यह भाग (भाग 4) देश की कार्यपालिका तथा विधान पालिका के प्रति निर्दिष्ट है तथा इस प्रकार न्यायालयों के समक्ष लागू नहीं किया जा सकता। फिर भी, निदेशक तत्व देश के शासन में मूलभूत हैं, क्योंकि कानून बनाकर उन्हें कार्यान्वित किया जायेगा। इस प्रकार भारतीय संवैधानिक नीति अन्तर्राष्ट्रीय शांति और सुरक्षा की अभिवृद्धि तथा अन्तर्राष्ट्रीय विधि और सन्धि बाध्यताओं के प्रति आदर बढ़ाने तथा कानून बनाने में इन सिद्धान्तों को लागू करने के प्रति वचनबद्ध है। यहाँ यह उल्लेख करना आवश्यक है कि अनुच्छेद 51 अत्यधिक सामान्य है तथा इस अनुच्छेद से कोई निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता कि अन्तर्राष्ट्रीय विधि के नियम कहाँ तक न्यायालयों द्वारा लागू किये जायेंगे। साधारण रूप से अनुच्छेद 51 केवल वचन है कि भारत अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति तथा सुरक्षा की अभिवृद्धि, अन्तर्राष्ट्रीय विधि और सन्धि बाध्यताओं की अभिवृद्धि तथा शान्तिपूर्ण तरीके से अन्तर्राष्ट्रीय विवादों के निपटारे के लिए कार्य करेगा। इस अनुच्छेद को भारत की विदेश नीति के माध्यम से कार्यपालिका द्वारा कार्यान्वित किया गया है।
अनुच्छेद 51 में, ‘अन्तर्राष्ट्रीय विधि’ तथा ‘सन्धि बाध्यताओं’ शब्दों का प्रयोग किया गया है। इससे यह आशय निकाला जा सकता है कि शब्द ‘अन्तर्राष्ट्रीय विधि’ रूढ़िगत अन्तर्राष्ट्रीय विधि को निर्दिष्ट करता है। इसका यह तात्पर्य हो सकता है कि अनुच्छेद 51 रूढ़िगत अन्तर्राष्ट्रीय विधि तथा सन्धिबद्ध विधि को एकसमान मानता है फिर भी इसका पृथक विवरण निम्नवत् है-
(क) अन्तर्राष्ट्रीय रूढ़िगत नियम- जहाँ तक रूढ़िगत अन्तर्राष्ट्रीय विधि के लागू होने का सम्बन्ध है, भारतीय न्यायालय ग्रेट ब्रिटेन द्वारा स्वीकृत किये गये समावेश के सिद्धान्त (doctrine of incorporation) का अनुसरण करते हैं। इस प्रकार भारतीय न्यायालय अन्तर्राष्ट्रीय विधि के रूढ़िगत नियमों को लागू करेंगे, यदि उन पर राष्ट्रीय विधि के स्पष्ट नियम अभिभावी नहीं होते हैं। श्री कृष्णा शर्मा बनाम पश्चिम बंगाल राज्य में कलकत्ता उच्च न्यायालय ने निर्णय दिया था कि भारतीय न्यायालय आन्तरिक विधि (राष्ट्रीय विधि) के उन नियमों को लागू करेंगे, जो (क) भारत के संविधान, (ख) भारतीय संसद द्वारा अधिनियमित परिनियम और (ग) राज्य विधान मण्डलों द्वारा अधिनियमित परिनियमों में सम्मिलित हैं।
ए०डी०एम० जबलपुर बनाम शुक्ला में न्यायमूर्ति एच०आर० खन्ना ने अपने विरोधी मत (dissenting opinion) में इसी प्रकार का निर्णय दिया था। उनके अनुसार यदि राष्ट्रीय विधि तथा अन्तर्राष्ट्रीय विधि (रूढ़िगत अन्तर्राष्ट्रीय विधि) के बीच विरोध है, तो न्यायालय राष्ट्रीय विधि को लागू करेंगे।
ग्रामोफोन कम्पनी आफ इण्डिया लि० बनाम वीरेन्द्र बहादुर पाण्डेय में उच्चतम न्यायालय का अवलोकन (Observance) अन्तर्राष्ट्रीय विधि के रूढ़िगत नियमों के बाध्यकारी बल (binding force) से सम्बन्धित था। इस मामले में न्यायमूर्ति चिनप्पा रेड्डी ने निर्णय दिया कि- “अन्तर्राष्ट्रीय विधि के किसी सिद्धान्त या नियम के विषय में यदि संसद “नहीं” कह देती है तो राष्ट्रीय न्यायालय हाँ नहीं कर सकते हैं। राष्ट्रीय न्यायपालिका अन्तर्राष्ट्रीय विधि या नियमों का समर्थन तभी कर सकती है जबकि उसका संघर्ष राष्ट्रीय विधि से न हो। लेकिन यदि संघर्ष अवश्यम्भावी है तो राष्ट्रीय विधि ही ज्यादा मान्य होगी।”
उक्त निर्णय से स्पष्ट होता है कि भारतीय न्यायालय रूढ़िगत अन्तर्राष्ट्रीय विधि को उस सीमा तक लागू करेंगे, जब तक वे राष्ट्रीय विधि से असंगत नहीं हैं।
(ख) सन्धियाँ- संधियों के विषय में भारतीय विधि के अन्तर्गत दो मत प्रचलित हैं। एक मत यह है कि सन्धियाँ जब तक विधान द्वारा क्रियान्वित नहीं हो जाती हैं, वे न्यायालयों पर बाध्यकारी नहीं होंगी। भारतीय न्यायालयों द्वारा कई मामलों में निर्णय दिया गया है कि सन्धियाँ न्यायालयों पर उसी समय बाध्यकारी होंगी, जब विधान द्वारा उससे सम्बन्धित अधिनियम पारित कर दिया जायेगा। बिरमा बनाम राजस्थान राज्य (1951) में न्यायालय ने निर्णय दिया है कि ‘वे- “विधियाँ, जो अन्तर्राष्ट्रीय विधि का भाग है, देश की विधि का भाग नहीं होता, यदि विधायी प्राधिकारी (legislative authority) द्वारा अभिव्यक्त रूप से ऐसी मान्यता न दी गयी ।। पुनः शिव कुमार शर्मा एवं अन्य बनाम भारत संघ में दिल्ली उच्च न्यायालय ने निर्णय दिया कि “भारत में सन्धियों में विधि का बल नहीं होता तथा परिणामस्वरूप उससे उत्पन्न बाध्यतायें राष्ट्रीय न्यायालयों में प्रवर्तनीय (enforceable) नहीं होती, यदि विधान द्वारा समर्थन न हो।” अन्य मामले, जिसमें इस सिद्धान्त का अनुसरण किया गया है, वे हैं- मोतीलाल बनाम उ.प्र. सरकार; मगन भाई बनाम संघ; निर्मल बनाम भारत संघ तथा जोली वर्गीज बनाम बैंक आफ कोचिन इन मामलों में यह निर्णय दिया गया था कि विरोधी शक्ति अनन्य रूप से संसद से सम्बन्धित है। इनमें संविधान के अनुच्छेद 253 पर विश्वास व्यक्त किया गया था, जो प्रावधान करता है कि, “संसद को किसी अन्य देश या देशों के साथ की गयी किसी सन्धि, करार या अभिसमय अथवा किसी अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन, संगम या अन्य निकाय में किए गए किसी विनिश्चय के कार्यान्वयन के लिए भारत के सम्पूर्ण राज्य क्षेत्र या उसके किसी भाग के लिए कोई विधि बनाने की शक्ति है।” उच्चतम न्यायालय ने अपने निर्णय में यह भी कहा कि “किसी सन्धि का सम्बन्ध वास्तव में राज्य के राजनीतिक अंग से होता है न कि न्यायिक अंग से।”
द्वितीय मत यह है कि भारत में सभी सन्धियाँ विधान द्वारा कार्यान्वयन की अपेक्षा नहीं कार्यान्वित किये जाने की अपेक्षा की जाती है। मगन भाई ईश्वर भाई अन्य बनाम भारत संघ के मामले में उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया था कि ‘जहाँ माध्यस्थ के बाद सन्धि या पंचाट (award) अस्तित्व में आता है, वहाँ इसे कार्यान्वित किया जाता है और यह केवल तभी हो सकता है, जब सरकार के तीनों अंग, अर्थात् विधायिका, कार्यपालिका तथा न्यापालिका या इनमें से कोई इसे कायान्वित करने की शक्ति रखता हो। कुछ अधिकारिताओं में अधिनिर्णय के साथ पठित सन्धि वा समझौता, राष्ट्रीय विधि के अन्य अंग के होते हुए भी, राष्ट्रीय विधि में स्वयं प्रवर्तित हो जाते हैं। ऐसी सन्धियाँ तथा अधिनिर्णय स्व-निष्पाद्य हैं। फिर भी कार्यान्वयन में सहायता के लिए विधान पारित किया जा सकता है किन्तु सामान्तया आवश्यक नहीं है।”
भारतीय न्यायालयों द्वारा सन्धियों के लागू होने पर उक्त भिन्न मत अब भी प्रचलन में है। यह उचित होगा कि न्यायालय दूसरे मत को अपनाये। भारतीय संविधान का अनुच्छेद 13 अभिव्यक्त रूप प्रावधान करता है कि “सभी विधियाँ, जो भाग 3 के प्रावधानों से असंगत हैं अकृत और शून्य (null and void) होंगी।” संविधान का भाग 3 मूल अधिकारों को प्रतिपादित करता है। इस मत को स्वीकार करने का अभिप्राय यह है कि सभी विधियाँ जो मूलाधिकारों से असंगत नहीं हैं, अकृत तथा शून्य होंगी। यदि सन्धियों को “सभी विधियों” की परिभाषा के अन्तर्गत शामिल कर लिया जाये तो वे केवल तभी अकृत और शन्य होंगी, जब वे मूलाधिकारों से असंगत होंगी। इस प्रकार अन्य सन्धियाँ अकृत तथा शून्य नहीं होंगी तथा परिणामस्वरूप न्यायालयों के समक्ष प्रवर्तनीय होंगी, क्योंकि वे ‘स्व-निष्पाद्य’ (self-executing) हैं। “सभी विधियाँ” शब्द के अर्थ के सम्बन्ध में भारतीय न्यायालयों से व्यापक अर्थ की प्रत्याशा की जाती है, जिससे इनके अन्तर्गत सन्धियों को शामिल किया जा सके। परन्तु सन्धियों को जब तक ‘सम्पूर्ण विधि’ के अन्तर्गत नहीं सम्मिलित किया जाता तब तक न्यायालयों को सन्धियों को प्रवर्तित कराने के पूर्व विधायिका की सहायता से उन्हें कार्यान्वित करने की उम्मीद करनी चाहिये।
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