राजनीति विज्ञान / Political Science

अन्तर्राष्ट्रीय कानून के विषय सम्बन्धी सिद्धान्त

अन्तर्राष्ट्रीय कानून के विषय सम्बन्धी सिद्धान्त
अन्तर्राष्ट्रीय कानून के विषय सम्बन्धी सिद्धान्त

अन्तर्राष्ट्रीय कानून मुख्य रूप में राज्य के अधिकारों, कर्तव्यों एवं हितों से ही सम्बन्धित हैं।” अन्तर्राष्ट्रीय कानून में व्यक्तियों और गैर-राज्यीय इकाइयों की स्थिति के संदर्भ में इस कथन का परीक्षण कीजिए।

अन्तर्राष्ट्रीय कानून के विषय सम्बन्धी सिद्धान्त

अन्तर्राष्ट्रीय विषयों से सम्बन्धित तीन प्रमुख सिद्धान्त हैं-

  1. केवल राज्य ही अन्तर्राष्ट्रीय कानून के विषय हैं।
  2. केवल व्यक्ति ही अन्तर्राष्ट्रीय विधि के विषय हैं।
  3. राज्य, व्यक्ति और कुछ गैर-राजकीय इकाइयाँ अन्तर्राष्ट्रीय कानून के विषय हैं।

केवल राज्य ही अन्तर्राष्ट्रीय कानून के विषय हैं-

अन्तर्राष्ट्रीय कानून को सामान्तया राष्ट्रों के मध्य कानून के रूप में परिभाषित किया जाता है। अन्तर्राष्ट्रीय कानून की शब्दावली में इसको राज्यों के आपसी सम्बन्धों का कानून कहा जाता है। अन्तर्राष्ट्रीय कानून मुख्य रूप में राज्यों के अधिकारों, कर्तव्यों और हितों से सम्बन्धित होता है।

साधारण रूप में अन्तर्राष्ट्रीय कानून के नियम का राज्यों द्वारा पालन किया जाता है। राज्य ही युद्ध की घोषणा कर सकते हैं, शान्ति कर सकते हैं, सन्धियाँ कर सकते हैं, अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलनों में भाग ले सकते हैं, आपसी साझे हितों के सम्बन्ध में विचार विमर्श कर सकते हैं और अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय के सम्मुख एक व्यक्तित्व के रूप में सामने जा सकते हैं। ओपेनहीम के शब्दों में, “चूँकि अन्तर्राष्ट्रीय कानून राज्यों की सहमति पर आधारित है, अतः राज्य ही अन्तर्राष्ट्रीय कानून के मुख्य विषय हैं।”

केल्सन के अनुसार, “अन्तर्राष्ट्रीय विधि के विषय राष्ट्रीय विधि के विषय के समान ही व्यक्तित्व मानव है। एक नागरिक व्यक्ति के रूप में राज्य अन्तर्राष्ट्रीय विधि के विषय हैं।”

लॉरेन्स का मत है कि, “सभी विद्वान इसी मत से सहमत हैं कि सम्प्रभुता सम्पन्न राज्य अन्तर्राष्ट्रीय विधि के विषय है।”

फ्रेडरिक स्मिथ के शब्दों में, “अन्तर्राष्ट्रीय कानून में केवल राज्यों को ही आधिकारिता प्राप्त है। केवल राज्य ही अन्तर्राष्ट्रीय व्यक्तित्व के धारक हैं।”

जी.आई. टुंकिन के शब्दों में, “अन्तर्राष्ट्रीय कानून के नियम अन्तर्राज्य सम्बन्धों को नियन्त्रित करते हैं और राज्यों के हितों को प्रभावित करते हैं। राज्यों की पारस्परिक सहमति का परिणाम होने के कारण अन्तर्राष्ट्रीय कानून के नियम राज्यों की स्वेच्छा की अभिव्यक्ति करते हैं।”

न्याय के अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय का संविधान भी केवल राज्यों को ही अन्तर्राष्ट्रीय मामलों में कार्य करने की शक्ति सौंपता है। इसके संविधान के अनुच्छेद 34 के अनुसार, “न्यायालय के समक्ष आने वाले मामलों में केवल राज्य ही वादी-प्रतिवादी हो सकते हैं।’

इस प्रकार केवल राज्य ही अन्तर्राष्ट्रीय कानून के विषय हैं।

आलोचना- इस मत की आलोचना निम्न आधारों पर की जाती है-

(1) समुद्री डाके और हवाई डाके के सम्बन्ध में अन्तर्राष्ट्रीय कानून के नियम प्रत्यक्ष रूप में व्यक्तियों पर लागू होते हैं। अन्तर्राष्ट्रीय कानून प्रत्येक राज्य को यह शक्ति सौंपता है कि वह ऐसे अपराध करने वाले दोषियों को पकड़ कर दण्ड दे। इस प्रकार अन्तर्राष्ट्रीय कानून के नियम व्यक्तियों पर लागू होते हैं और व्यक्ति भी अन्तर्राष्ट्रीय कानून के विषय बन जाते हैं।

(2) अन्तर्राष्ट्रीय कानून के अधीन दास व्यापार एक अपराध है। इसके लिये अन्तर्राष्ट्रीय कानून के अधीन दण्ड दिया जा सकता है। दास-व्यापार केवल व्यक्ति ही करते हैं इसलिए केवल व्यक्तियों को ही अन्तर्राष्ट्रीय कानून के अधीन दण्ड दिया जा सकता है। इसलिये व्यक्ति अन्तर्राष्ट्रीय कानून के विषय बन जाते हैं।

न्यूरेम्बर्ग और टोकियो मुकद्दमों में अन्तर्राष्ट्रीय कानून के अधीन दोषी व्यक्तियों को सजाएँ दी गई और यह नियम सभी ने स्वीकार किया कि मानवता के विरुद्ध अपराध करने वाले दोषियों को अन्तर्राष्ट्रीय कानून के अधीन अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय द्वारा दण्ड दिया जा सकता इस सिद्धान्त के समर्थक आलोचकों के तर्कों का उतर देते हैं कि केवल राज्य ही अन्तर्राष्ट्रीय कानून के विषय हैं और समुद्री लूटमार और दास-व्यापार सम्बन्धी नियम व्यक्तियों को अन्तर्राष्ट्रीय है। कानून की केवल वस्तुएँ ही बनाते हैं, विषय नहीं। परन्तु आलोचक कहते हैं कि यह उत्तर अपने आप में विरोधाभासपूर्ण है क्योंकि व्यक्ति प्रत्येक समाज तथा राज्य का आधार होते हैं। इसके लिये यह कहना गलत है कि व्यक्ति तो अन्तर्राष्ट्रीय कानून की केवल वस्तुएँ हैं।

राज्य, व्यक्ति और कुछ गैर-राजकीय इकाइयाँ अन्तर्राष्ट्रीय कानून के विषय हैं-

अन्तर्राष्ट्रीय कानून के विषय सम्बन्धी उपर्युक्त दोनों सिद्धान्त एक पक्षीय और अतिवादी सिद्धान्त हैं। तीसरा सिद्धान्त मध्यमार्गी सिद्धान्त है जो कि यह कहता है कि न केवल राज्य और व्यक्ति ही अन्तर्राष्ट्रीय कानून के विषय हैं बल्कि इसके साथ-साथ अन्तर्राष्ट्रीय संगठन और संस्थाओं के साथ ही कुछ गैर-राज्यीय इकाइयाँ भी अन्तर्राष्ट्रीय कानून के विषय हैं। वर्तमान में इस सिद्धान्त को पहले दोनों सिद्धान्त को पहले दोनों सिद्धान्तों से श्रेष्ठ माना जाता है। इस सिद्धान्त के पक्ष में निम्नलिखित तर्क दिये जाते हैं-

(1) वर्तमान समय में कई एक कानून निर्माण, सन्धियाँ और समझौते किये गये हैं जिन्होंने अन्तर्राष्ट्रीय फौजदारी कानून के क्षेत्र को विस्तृत किया है। इन समझौतों के माध्यम से व्यक्तियों और राज्यों दोनों पर ही अनेक दायित्व लगाये गये हैं।

(2) दूसरे विश्वयुद्ध के पश्चात् न्यूरेम्बर्ग और टोकियो में मुकदमे चलाए गये जिनमें अनेक व्यक्तियों को शान्ति के विरूद्ध अपराधों और युद्ध के कानूनों के विरुद्ध अपराधों के लिये सजाएँ दी गई। इन मुकदमों में स्पष्ट कहा गया है कि अन्तर्राष्ट्रीय कानून के विरुद्ध अपराध व्यक्तियों द्वारा किये गये थे न कि अमूर्त इकाइयों द्वारा और इसके लिये केवल अपराधी व्यक्तियों को सजा देकर ही अन्तर्राष्ट्रीय कानून को लागू किया जा सकता था।

(3) 1948 के नरसंहार सम्मेलन ने प्रत्यक्ष रूप में व्यक्ति पर कुछ जिम्मेदारियाँ लागू की। इस समझौते के द्वारा यह स्पष्ट किया गया है कि नरसंहार के अपराधी व्यक्ति को सजा मिलेगी चाहे वह सरकारी व्यक्ति हो या निजी व्यक्ति ।

(4) वर्तमान समय में ऐसे अनेक अन्तर्राष्ट्रीय समझौते और सन्धियाँ किये गये हैं, जिनके माध्यम से मानवीय अधिकारों पर समझौते द्वारा व्यक्ति को सीधे अधिकार और कर्तव्य सौंपे गये हैं।

(5) आज अन्तर्राष्ट्रीय कानून के ऐसे नियम विद्यमान हैं जिनके आधार पर मानवीय अधिकारों तथा वातावरण सम्बन्धी नियमों को तोड़ने वाले राज्यों, व्यक्तियों और अन्य संस्थानों के विरुद्ध कार्यवाही की जा सकती है।

(6) वर्तमान में अनेक गैर-राज्यीय इकाइयाँ विश्व स्तर पर सक्रिय भूमिकाएँ निभ हैं जो अपना कार्य अन्तर्राष्ट्रीय कानून के नियमों के अनुसार कर रही हैं।

(7) अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर आज संयुक्त राष्ट्र संघ कार्य कर रहा है। यदि सं.रा. संघ की सेवा में संलग्न व्यक्तियों को कोई हानि पहुँचती है तो हानि पहुँचाने वाले राज्य, व्यक्ति और संस्थाओं को दण्डित किया जा सकता है।

(8) अन्तर्राष्ट्रीय कानून के अन्तर्गत संयुक्त राष्ट्र संघ को एक कानूनी दर्जा प्राप्त है।

(9) संयुक्त राष्ट्र संघ के चार्टर की प्रस्तावना के प्रारम्भिक शब्द “संयुक्त राष्ट्र के लोग” इस विशेषता को स्पष्ट करते हैं कि आज व्यक्ति भी अन्तर्राष्ट्रीय कर्ता हैं और अन्तर्राष्ट्रीय कानून उनके व्यवहार से भी सम्बन्धित है।

(10) वर्तमान में अनेक अन्तर्राष्ट्रीय संस्थायें जैसे यूनेस्को, डब्ल्यू ०एच०ओ०, आई०एल०ओ०, एफ०ए०ओ०, यूनीसेफ आदि प्रत्यक्ष रूप में व्यक्तियों के लिये कार्य कर रही है।

इस प्रकार आज यह कहना है कि अन्तर्राष्ट्रीय कानून का विषय केवल राज्य है उचित नहीं हैं, यह कहना भी उचित नहीं हैं कि केवल व्यक्ति ही अन्तर्राष्ट्रीय कानून के विषय हैं। सच्चाई तो यह है कि आज राज्य, व्यक्ति और इसके साथ-साथ अनेक अन्तर्राष्ट्रीय संगठन, यहाँ तक कि बहुत सी गैर-राज्यीय इकाइयाँ भी अन्तर्राष्ट्रीय कानून के विषय हैं।”

परसी ई. कोरबेट के शब्द उल्लेखनीय है कि, “केवल राज्य ही अन्तर्राष्ट्रीय कानून के विषय नहीं। निस्सन्देह वे अभी भी राज्य के प्रमुख विषय हैं और अन्तर्राष्ट्रीय कानून का बहुत बड़ा अंग उनके व्यवहार से सम्बन्धित होता है पर आज अन्तर्राष्ट्रीय कानून का चरित्र बदल चुका है और इसका क्षेत्र काफी विशाल हो चुका है। आज अन्तर्राष्ट्रीय संगठन, कुछ गैर-राज्यीय इकाइयाँ और व्यक्ति अन्तर्राष्ट्रीय कानून के विषय है।

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Anjali Yadav

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