मान्यता की परिभाषा दीजिए तथा मान्यता के सिद्धान्तों की विवेचना कीजिए। यह भी बताइए कि आपके मत में कौन सा सिद्धान्त सही है?
राज्य की मान्यता (Recognition of State)- राज्य की मान्यता का अर्थ है कि किसी ऐसे राज्य को जिसका निर्माण हाल ही में हुआ है विश्व के अन्य स्थापित राष्ट्रों द्वारा राज्य के रूप में स्वीकार करना और इस रूप में उस नवीन राज्य को स्वीकृति देना। राष्ट्रों की मान्यता मिलने पर ही कोई राज्य (नवनिर्मित राज्य) अन्तर्राष्ट्रीय व्यक्ति के रूप में राष्ट्रों के कुटुम्ब का एक सदस्य स्वीकृत किया जाता है। ‘मान्यता’ अन्तर्राष्ट्रीय विधि का एक महत्वपूर्ण विषय है। आधुनिक युग में मान्यता का महत्व और भी अधिक बढ़ गया है। प्रो० सी० श्वार्जनबर्गर के अनुसार, मान्यता को अन्तर्राष्ट्रीय विधि को विकसित करती हुई उस प्रक्रिया द्वारा अच्छी तरह समझा जा सकता है जिसके द्वारा राज्यों ने एक-दूसरे की नकारात्मक सार्वभौमिकता को स्वीकार कर लिया है तथा सहमति के आधार पर वह अपने कानूनी सम्बन्धों को बढ़ाने के लिए तैयार है। प्रो. श्वार्जनवर्गर ने स्वतन्त्र राज्यों के सम्बन्धों की तुलना क्लबों से की है। उनके अनुसार क्लबों के समान स्वतन्त्र राज्यों का समुदाय भी सहयोग के सिद्धान्त पर आधारित है। अपने इस परमाधिकार का प्रयोग करने के लिए अन्तर्राष्ट्रीय विधि के विषय, मान्यता का प्रयोग करते हैं। ओपेनहाइम के अनुसार, “राष्ट्रों के कानून का आधार सभ्य राज्यों की सामान्य स्वीकृति हैं।”
फेनविक के अनुसार, “मान्यता अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय के वर्तमान सदस्य द्वारा किसी ऐसे राज्य या राजनीतिक दल के अन्तर्राष्ट्रीय व्यक्तित्व की विधिपूर्वक स्वीकृति है, जिसका कोई प्रशासनिक सम्बन्ध अब तक इससे नहीं रहा हो।”
जेसप के अनुसार, “राज्यों की मान्यता द्वारा यह स्वीकार किया जाता है कि जिस नवनिर्मित राज्य को मान्यता प्रदान की जा रही है, वह राज्य की सभी विशेषताओं से युक्त है।”
ओपेनहाइम के अनुसार, ,”केवल मान्यता के द्वारा ही कोई राज्य अन्तर्राष्ट्रीय विधि का विषय बनता है।” “एक राज्य को मान्यता उस स्थिति में प्राप्त होती है, जब वर्तमान राज्य यह घोषित करते हैं कि नया राज्य उन समस्त शर्तों को पूरा करता है, जो अन्तर्राष्ट्रीय विधि के अनुसार आवश्यक हैं।”
अन्तर्राष्ट्रीय विधि में यह अभी तक स्पष्ट नहीं किया गया है कि इस बात का निर्धारण कैसे किया जायेगा कि मान्यता दिये जाने वाले राज्य में राष्ट्रत्व के गुण हैं, अथवा नहीं। इसका तात्पर्य यह है कि यह निर्धारण करने का कार्य राज्यों के स्वविवेक पर निर्भर है। एडवर्ड कॉलिन्स के अनुसार, “राज्यों तथा उनकी सरकार को मान्यता प्रदान किये जाने के विषय में राज्यों के व्यवहार से स्पष्ट है कि यह एक राजनीतिक कार्य है।” परन्तु यह मत उचित प्रतीत नहीं होता है, क्योंकि अन्तर्राष्ट्रीय विधि मान्यता प्रदान करने वाले राज्य पर इस प्रकार का कोई राजनीतिक दायित्व अधिरोपित नहीं करती है। वास्तविकता यह है कि किसी राज्य को मान्यता दिये जाने या न दिये जाने का कार्य मान्यता प्रदान करने वाले राज्य के स्वविवेक पर निर्भर करता है। मान्यता प्रदान करने वाला राज्य अपने स्वविवेक को अपने राष्ट्रीय हितों के अनुसार प्रयोग करता है।
मान्यता के प्रकार-
मान्यता के दो प्रकार होते हैं-वस्तुत: मान्यता या तथ्यतः मान्यता और विधितः मान्यता।
(1) तथ्यतः या वस्तुतः मान्यता (De-facto Recognition)- जब विद्यमान राज्य यह मानते हैं कि नवनिर्मित राज्य ने पर्याप्त स्थायित्व ग्रहण नहीं किया है, तब वे उसे औपवन्धिक रूप से (provisionally) मान्यता प्रदान कर सकता है। औपबन्धिक मान्यता को वस्तुतः मान्यता कहा जाता है। ओपेनहाइम के अनुसार, “वास्तविक मान्यता तब प्रदान की जाती है, जब मान्यता प्रदान करने वाले राज्य के विचार में, यद्यपि नया राज्य वास्तव में स्वतन्त्र है तथा उसके नियन्त्रणाधीन राज्यक्षेत्र में शासन करने की उसकी प्रभावी शक्ति है, फिर भी उसने पर्याप्त स्थायित्व अर्जित नहीं किया है या मान्यता की अन्य अपेक्षाओं के अनुपालन करने की सम्भावनाव को प्रस्तुत नहीं किया है।” प्रो० श्वार्जनबर्गर के अनुसार “जब कोई राज्य विधिक मान्यता प्रदान करने में देर करना चाहता है तो वह सर्वप्रथम वस्तुत: या तथ्येन मान्यता ही प्रदान करता है।”
सामान्य रूप से वस्तुत: मान्यता तब प्रदान की जाती है, जब मान्यता प्रदान करने वाला राज्य यह समझता है कि यद्यपि नये राज्य के पास विधिसम्मत (legitimate) सरकार है, फिर भी राज्यक्षेत्र को शामिल करने की उसकी क्षमता या निरन्तरता सन्देहास्पद है। वस्तुतः मान्यता प्रदान करने वाले राज्य की ओर से नये राज्य के साथ सम्बन्ध स्थापित करने की इच्छा को दर्शित करता है, किन्तु इच्छा औपबन्धिक रूप से अर्थात् पर्याप्त या तत्व सहित राज्यत्व के सभी तत्वों की पूर्ति के अध्यधीन दी जाती है। इसे विधित: मान्यता की ओर प्राथमिक कदम के रूप में माना जा सकता है। सोवियत संघ को 16 मार्च 1921 को ग्रेट ब्रिटेन द्वारा वस्तुत: तथा बाद में 1 फरवरी, 1924 को विधित: मान्यता प्रदान की गयी थी। इसी तरह अबीसीनिया (Abyssinia) पर इटली की विजय को ग्रेट ब्रिटेन द्वारा 1936 में वस्तुत: तथा 1938 में विधित: मान्यता प्रदान की गयी है। इन मामलों में निश्चित समझौते के अभाव में परिस्थिति की अनिश्चितता के कारण वस्तुत: मान्यता प्रदान की गयी थी। इन मामलों मे सरकारें कुछ समय के लिए अपने राज्यक्षेत्रों में प्रभावी थीं किन्तु उनके शासन के स्थायित्व का कोई लक्षण नहीं था। एक बार प्रदान की गयी मान्यता वस्तुत: मान्यता प्रदान करने वाले राज्य द्वारा तब वापस लिया जा सकता है, जब वह यह समझता है कि नये राज्य ने राज्यक्षेत्र में प्रशासन करने की क्षमता को खो दिया है। यदि विद्यमान राज्य वस्तुत: मान्यता प्रदान करने के बाद में विधितः मान्यता प्रदान करता है, तो विधि की मान्यता का प्रभाव भूतलक्षी (retrospective) तिथि, अर्थात् उस तिथि से होगा, जब वस्तुत: मान्यता प्रदान की गयी थी। राज्य को वस्तुत: मान्यता प्रदान करके, मान्यता प्रदान करने वाला राज्य कतिपय लाभों, विशेषकर आर्थिक लाभों को सुनिश्चित करता है। यह उसे वस्तुतः मान्यता प्राप्त राज्य में अपने नागरिकों के हितों को संरक्षित करने के लिए सक्षम बनाता है। पुनः यह प्रदान करने वाले राज्य को राजनीतिक शक्ति के बाह्य तथ्यों को अभिस्वीकृत करने के लिए तथा वस्तुत: मान्यता प्राप्त राज्य में अपने हित तथा व्यापार को संरक्षित करने के लिए भी सक्षम बनाता है। लेकिन वस्तुत: मान्यता का प्रभाव वैसा नहीं है, जैसा कि विधितः मान्यता का है।
(2) विधित: मान्यता (De-jure Recognition) – जब वर्तमान राज्य यह समझते हैं कि नया राज्य स्थायित्व तथा स्थिरता सहित राज्यत्व के सभी आवश्यक गुणों को धारण करने में सक्षम है, तब प्रदान की गयी मान्यता को विधित: मान्यता के रूप में जाना जाता है। दूसरे शब्दों में विधित: मान्यता अन्तिम होती है। विधित: मान्यता वस्तुत: मान्यता को प्रदान किये बिना भी प्रदान की जा सकती है। जब नया राज्य शांतिपूर्ण तथा संवैधानिक तरीके से अस्तित्व में आता है, तब सीधे मान्यता प्रदान की जा सकती है। लेकिन जब राज्य क्रान्ति के माध्यम से गठित होता है, तब कभी-कभी विधित: मान्यता वस्तुत: मान्यता प्रदान किये जाने के बाद प्रदान की जाती है।
वस्तुत: मान्यता तथा विधित: मान्यता के मध्य अन्तर
इन दोनों के बीच निम्नलिखित अन्तर हैं-
(1) वस्तुत: मान्यता को औपबन्धिक होने के कारण वापस लिया जा सकता है अनुसार, जबकि विधित: मान्यता को एक बार देने के पश्चात सामान्यत: वापस नहीं किया जा सकता।
(2) वस्तुत: मान्यता प्राप्त राज्य के साथ राजनीतिक सम्बन्धों की स्थापना नहीं की जा सकती, लेकिन राजनयिक सम्बन्ध की स्थापना तब की जा सकती है, जब राज्य को विधितः मान्यता प्रदान की जाती है। यूनाइटेड किंगडम को शामिल करके कुछ देशों की प्रथा नियम वस्तुत: मान्यता पूर्ण राजनयिक सम्बन्ध स्थापित नहीं करता।
(3) वस्तुत: मान्यता प्राप्त राज्य के प्रतिनिधियों को पूर्ण राजनयिक उन्मुक्तियाँ नहीं प्रदान की जार्ती, जबकि विधित: मान्यता प्राप्त राज्य के प्रतिनिधियों को ऐसी उन्मुक्तियाँ प्रदान की जाती हैं।
(4) विधित: मान्यता प्राप्त राज्य, मान्यता प्रदान करने वाले राज्य के राज्यक्षेत्र में स्थित सम्पत्ति को प्राप्त करने के लिये दावा कर सकते हैं, जबकि वस्तुत: मान्यता प्राप्त राज्य ऐसा दावा नहीं कर सकते। सोवियत सरकार इंग्लैण्ड में स्थित जारिस्ट (Tsarist) अभिलेखागार (archivs) तथा अन्य सम्पत्ति पर केवल तब कब्जा कर सकी थी, जब इंग्लैण्ड ने 1924 में उसे विधिक मान्यता प्रदान कर दिया।
(5) जहाँ अन्य राज्य के राज्यक्षेत्र के अन्तर्गत स्थित कतिपय सम्पत्ति पर वस्तुत: तथा विधिक मान्यता प्राप्त दोनों सरकारों द्वारा दावा किया जाता है। वहाँ सामान्यत: वस्तुत: मान्यता प्राप्त सरकार के दावा की उपेक्षा की जा सकती है।
(6) इसके अतिरिक्त राज्यक्षेत्र, जिसको वस्तुतः मान्यता दी गयी है, की शासकीय यात्रा तथा उसके सम्बन्ध में राज्य के साथ सम्बन्ध को न्यूनतम रखा जा सकता है या निवारित किया जा सकता है।
वस्तुतः एवं विधितः मान्यता के बीच उपर्युक्त भेद से स्पष्ट है कि उनके बीच अन्तर की प्रकृति राजनीतिक ज्यादा है जबकि विधिक कम ।
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