राजनीति विज्ञान / Political Science

अन्तर्राष्ट्रीय विधि के अन्तर्गत ‘मान्यता’ के प्रभाव एवं महत्व

अन्तर्राष्ट्रीय विधि के अन्तर्गत 'मान्यता' के प्रभाव एवं महत्व
अन्तर्राष्ट्रीय विधि के अन्तर्गत ‘मान्यता’ के प्रभाव एवं महत्व

“नये राज्यों की मान्यता नीति का एक कृत्य है, न कि विधि का। किन्तु एक बार मान्यता दिये जाने के विधिक परिणाम कारित होते हैं।” व्याख्या कीजिए तथा अन्तर्राष्ट्रीय विधि में राज्यों की मान्यता की प्रकृति तथा प्रभाव की विवेचना कीजिए । अथवा अन्तर्राष्ट्रीय विधि के अन्तर्गत ‘मान्यता’ के प्रभावों एवं महत्व की विवेचना कीजिए।

अन्तर्राष्ट्रीय विधि में विद्यमान राज्यों द्वारा नवीन राज्यों को मान्यता प्रदान करना अथवा मान्यता न देना विधि की अपेक्षा नीति का प्रश्न अधिक है, इसलिए राज्य की मान्यता राज्य के स्वविवेक पर आश्रित है। स्वविवेकीय निर्णय एक राज्य का प्रभुतासम्पन्न अधिकार है और इसको प्रश्नगत नहीं किया जा सकता। 1936 में अन्तर्राष्ट्रीय विधि संस्थान ने भी कहा था कि “मान्यता एक स्वतंत्र कार्य है। राज्य मान्यता देते हैं अथवा रोकते हैं यह विधि की विषयवस्तु न होकर नीति (राजनीति) का मामला अधिक है।” इसलिये विधिशास्त्री लाटरपैट का यह मत कि जब किसी राज्य में राष्ट्रत्व के तत्व मौजूद हों तो दूसरे राष्ट्रों का कर्त्तव्य हो जाता है कि वे उसे मान्यता प्रदान करें राज्य के अभ्यास पर आधारित नहीं है। यह मत उचित प्रतीत नहीं होता है, क्योंकि अन्तर्राष्ट्रीय विधि इस प्रकार का कोई कर्त्तव्य या उत्तरदायित्व राज्यों पर नहीं लादती है। राज्य मान्यता के विषय में कोई कर्त्तव्य नहीं मानते हैं तथा अन्तर्राष्ट्रीय विधि भी इस विषय में उन्हें बाध्य नहीं करती। मान्यता प्रदान करने के कार्य को बहुधा राजनीतिक प्रवृत्ति का कहा जा सकता है। एडवर्ड कॉलिन्स के अनुसार, राज्यों तथा उनकी सरकार को मान्यता प्रदान किये जाने के विषय में राज्यों के व्यवहार से यह स्पष्ट है कि यह एक राजनीतिक कार्य है। प्रो. लेवान्टीन ने लिखा है कि मान्यता अन्तर्राष्ट्रीय विधि की सबसे कमजोर कड़ी है। क्योंकि इससे मान्यता प्रदान किये जाने वाले की प्रतिष्ठा में वृद्धि होती है और उसके भौतिक स्रोतों में भी वृद्धि होती है। बहुधा सहानुभूति रखने वाले राज्यों द्वारा या तो मान्यता परिपक्वता आने के पहले दे दी जाती है या सहानुभूति न रखने वाले राज्यों द्वारा मान्यता नहीं दी जाती है। संक्षेप में हम कह सकते हैं कि किसी राज्य को मान्यता दिये जाने या न दिये जाने का कार्य मान्यता प्रदान करने वाले राज्य के स्वविवेक पर निर्भर करता है। मान्यता प्रदान करने वाला राज्य इसे अपने राष्ट्रीय हितों के अनुसार प्रयोग करता है। प्रो. स्वार्जनवर्जर के अनुसार, स्थापित नियमों तथा संधि-उत्तरदायित्वों की अनुपस्थिति में मान्यता एक स्वविवेक का प्रश्न है।

समयपूर्व या अपरिपक्व मान्यता प्रदान करना आमतौर से अन्तर्राष्ट्रीय विधि का उल्लंघन नहीं है। क्योंकि मान्यता प्रदान करने या न करने के सम्बन्ध में राज्यों का कोई उत्तरदायित्व नहीं होता है तथा यह उनकी स्वेच्छा तथा विवेक पर निर्भर करता है। परन्तु यदि सुरक्षा-परिष्द कोई प्रस्ताव द्वारा या महासभा सर्वसम्मति से पारित किसी प्रस्ताव द्वारा किसी राज्य को मान्यता प्रदान किये जाने के सम्बन्ध में निषिद्ध या मनाही करती है तो ऐसे राज्य को मान्यता प्रदान करना अनुज्ञेय होगा, जैसा कि ट्रान्सकी तथा रोडेशिया के मामलों में हुआ है।

फिलिप मार्शल ब्राउन ने भी मत प्रकट किया है कि किसी नये राज्य की सरकार को मान्यता दिया जाना एक राजनयिक कार्य है न कि विधि-संबंधी। यह राज्य की आवश्यकताओं, निजी हितों तथा उसकी नीति पर निर्भर करता है। किसी भी ऐसे राज्य को, जिनमें राष्ट्रत्व के आवश्यक गुण मौजूद हैं; विधि में यह अधिकार प्राप्त नहीं है कि उसे मान्यता अवश्य प्रदान की जाय, यद्यपि ऐसा अधिकार नैतिक रूप से हो सकता है। सोवियत संघ के अनुसार, मान्यता एक राजनयिक कार्य है तथा इसके राजनैतिक सम्बन्ध स्थापित करने में निहित है। चीन भी इसी मत का समर्थक है। मान्यता के सम्बन्ध में ब्रिटिश अभ्यास भी राजनीतिक यथार्थवाद पर आधारित है। अभ्यास में भारत भी मान्यता को राज्य की स्वेच्छा पर आधारित मानता है। राष्ट्रों के व्यवहार से यह स्पष्ट है कि मान्यता एक राजनीतिक कार्य है तथा यह राज्य की नीति तथा उसके स्वविवेक पर निर्भर करता है। उदाहरण के लिये, चीन को बहुत वर्षों तक अमेरिका तथा अन्य राज्यों ने मान्यता प्रदान नहीं की जबकि चीन में राष्ट्रत्व के सभी गुण मौजूद थे। इन राज्यों का मान्यता न प्रदान करना उनकी राजनीतिक तथा उनके राष्ट्रीय हितों के कारण था।

सुझाव (Suggestion) – विधिशास्त्री फिलिप सी जेसप ने सुझाव दिया है कि किसी नवीन राष्ट्र में राष्ट्रत्व के सम्पूर्ण तत्व मौजूद है अथवा नहीं है इसका निर्धारण सामूहिक निर्णय के द्वारा किया जाना चाहिए। उनके अनुसार, सुरक्षा-परिषद् की संस्तुति पर, महासभा को घोषणा करनी चाहिए कि किसी राजनीतिक समुदाय में राष्ट्र के गुण मौजूद हैं अथवा नहीं तथा जब तक इस विषय में घोषणा न हो जाय, संयुक्त राष्ट्र-सदस्यों का निषेध होना चाहिए कि वे राजनीतिक समुदाय को मान्यता न दें। इस प्रकार नये राज्यों की मान्यता के विषय में संयुक्त राष्ट्र के निर्णय के अनुसार स्थापित राज्यों को चलना होगा। यदि इस सुझाव को मान लिया जाय तो मान्यता में राज्यों की स्वेच्छा समाप्त होकर यह अन्तर्राष्ट्रीय सामूहिक नियन्त्रण के अधीन हो जायेगा। प्रसिद्ध विधिशास्त्री कार्बेट ने भी जेसप के सुझाव का समर्थन किया है।

मान्यता के विधिक परिणाम (Legal effects of recognition)

 उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि मान्यता प्रदान करने का कार्य राजनीतिक कार्य है तथा मान्यता प्रदान करने वाले राज्य के स्वविवेक परनर्भर करता है। परन्तु एक बार मान्यता प्राप्त हो जाने के बाद इसके विधिक परिणाम होते हैं। मान्यता प्राप्त करने वाले राज्य को अन्तर्राष्ट्रीय विधि तथा राज्य-विधि दोनों से कुछ अधिकार, शक्तियां तथा विशेषाधिकार प्राप्त हो जाते हैं। यह विशेषाधिकार अन्तर्राष्ट्रीय विधि तथा उस राज्य की राज्य-विधि के अन्तर्गत मिलते हैं जिसने मान्यता प्रदान की है। जब किसी राज्य द्वारा किसी नवीन राज्य को मान्यता दी जाती है तब मान्यता देने वाला राज्य नवीन राज्य के सम्बन्ध में अनेक अधिकारों को प्राप्त करता है जिसमें निम्न प्रमुख है-

(1) मान्यता प्राप्त राज्य मान्यता प्रदान करने वाले राज्य के साथ राजनयिक एवं वाणिज्यिक सम्बन्ध स्थापित कर सकता है।

(2) मान्यता प्राप्त करने वाले राज्य मान्यता दिये जाने वाले राज्य के न्यायालयों में वाद के अधिकारों को प्राप्त कर लेता है।

(3) उपर्युक्त न्यायालयों में मान्यता प्राप्त करने वाले राज्य के भूत तथा वर्तमान विधायनी तथा कार्यपालिका के कार्यों को लागू करवाया जा सकता है।

(4) मान्यता प्राप्त करने वाले राज्य को राजनीतिक प्रतिनिधियों के मामले में उन्मुक्ति प्राप्त करने का अधिकार प्राप्त हो जाता है।

(5) मान्यता प्राप्त करके राज्य को मान्यता प्रदान करने वाले राज्य में स्थित सम्पत्ति के सम्बन्ध में दावा कर सकता है या उसे उत्तराधिकार में प्राप्त कर सकता है।

(6) जहाँ किसी राज्य की नई सरकार को मान्यता दी गयी है उस राज्य तथा अन्य राज्य के मध्य पूर्व संधियाँ, जिनका लागू रहना मान्यता की अनुपस्थिति में असम्भव हो गया था; पुनः लागू हो जाती हैं।

उदाहरण – A राज्य ने एक दूसरे राज्य में सोना जमा किया। A में विद्रोह छिड़ जाता है और विद्रोही एक समानान्तर सरकार स्थापित करने में सफल हो जाते हैं। B कुछ समय बाद नई सरकार को विधि-मान्यता प्रदान कर देता है। नई सरकार यह सोना जो कि पुरानी सरकार ने B में जमा किया था, उसकी माँग करती है। मान्यता दिये जाने का एक विधिक परिणाम यह होता है कि मान्यता प्राप्त होने वाली सरकार को मान्यता प्रदान करने वाले राज्य में स्थित सम्पत्ति के सम्बन्ध में उत्तराधिकार प्राप्त हो जाता है। अत: नई सरकार सोना प्राप्त करने की अधिकारिणी होगी। परन्तु यदि नई सरकार को मान्यता प्राप्त न होती तो वह उक्त सोना प्राप्त नहीं कर सकती थी।

उपर्युक्त विवरण से यह स्पष्ट है कि मान्यता मिलने से नया राज्य पूर्णरूप से अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय का सदस्य बन जाता है। विधिमान्यता प्राप्त होने से राज्य को दूसरे राज्य से राजनीतिक सम्बन्ध स्थापित करने की भी क्षमता प्राप्त हो जाती है। मान्यता प्राप्त होने के समय से नवीन राज्य को अन्तर्राष्ट्रीय विधि के तहत जहाँ कुछ विधिक अधिकार प्राप्त होते है वहीं उसको अन्तर्राष्ट्रीय विधि के अन्तर्गत कुछ दायित्व का भी निर्वाह करना पड़ता है।

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Anjali Yadav

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