राजनीति विज्ञान / Political Science

राज्यों की मान्यता सम्बन्धी विभिन्न सिद्धान्त

राज्यों की मान्यता सम्बन्धी विभिन्न सिद्धान्त
राज्यों की मान्यता सम्बन्धी विभिन्न सिद्धान्त

राज्यों की मान्यता सम्बन्धी विभिन्न सिद्धान्तों का आलोचनात्मक परीक्षण कीजिए।

राज्यों की मान्यता के सम्बन्ध में विभिन्न विधिशास्त्रियों में मतभेद हैं। इसलिए मान्यत के विभिन्न सिद्धान्तों का विकास हुआ है, जिनमें निम्न दो प्रमुख हैं-

(1) निर्माणात्मक सिद्धान्त (Constitutive theory) –

निर्माणात्मक सिद्धान्त के अनुसार किसी राज्य का निर्माण तथ्य द्वारा नहीं बल्कि अन्य राज्यों द्वारा मान्यता के माध्यम से सृजित किया जाता है। दूसरे शब्दों में, कोई इकाई राजत्व के आवश्यक तत्वों को प्राप्त करने से राज्य नहीं हो जाता है। यह राज्य तब होता है, जब अन्य राज्यों द्वारा इसे मान्यता दी जाती है। इससे स्पष्ट होता है कि अन्य राज्य मान्यता प्रदान करके राज्य के व्यक्तित्व का निर्माण करते हैं। इस सिद्धान्त का समर्थन हीगल, जैलनिक, एन्जीलोट्टी तथा हालैण्ड द्वारा किया गया है। ओपेनहाइम ने अपनी पुस्तक इण्टरनेशनल लॉ के आठवें संस्करण में कहा था कि “राज्य अन्तर्राष्ट्रीय व्यक्ति केवल तथा अनन्य रूप से मान्यता के द्वारा ही बनता है।” इस सिद्धान्त के अनुसार, नई इकाई स्वत: (ipso facto ) राज्य नहीं हो सकती। अन्तर्राष्ट्रीय व्यक्ति होने के लिए उसे अन्य राज्यों द्वारा मान्यता दिया जाना आवश्यक है। इस सिद्धान्त के अन्तर्गत मान्यता को व्यापक महत्व दिया गया है। निर्माणात्मक सिद्धान्त को ही संघटक सिद्धान्त भी कहते हैं।

आलोचना – निर्माणात्मक सिद्धान्त की कई विधिशास्त्रियों द्वारा विभिन्न आधारों पर कड़ी आलोचना की गयी है जो निम्नलिखित है-

(1) जब कोई राज्य राज्यत्व के सभी तत्वों से युक्त हो जाता है, तब यह आवश्यक नहीं है कि इसके अस्तित्व को अन्य राज्यों द्वारा एक साथ मान्यता दी जाय। मान्यता देने का समय एक राज्य का दूसरे राज्य से भिन्न-भिन्न हो सकता है। इसलिए सदैव ऐसा पाया जाता है कि किसी विशिष्ट समय पर राज्य को केवल कुछ राज्यों द्वारा मान्यता दी जाती है। उदाहरण के लिए चीन को 1979 में संयुक्त राज्य द्वारा मान्यता दी गयी थी, जबकि कई राज्यों ने पहले ही मान्यता दे दी थी। संघटक सिद्धान्त को स्वीकार करने का अर्थ होगा कि नया राज्य कुछ राज्यों (जिन्होंने मान्यता दी है) के लिए अस्तित्व में है तथा अन्य राज्यों (जिन्होंने मान्यता नहीं दी है) के लिए अस्तित्व में नहीं है। इससे यह स्पष्ट होता है कि मान्यता राज्य के अस्तित्व के लिए निश्चायक प्रमाण नहीं है।

(2) मान्यता किसी राज्य के पास आवश्यक तत्वों के होने की स्वीकारोक्ति है। इसका यह तात्पर्य है कि राज्य मान्यता के पूर्व से ही सदैव अस्तित्व में रहता है। मान्यता द्वारा मात्र इस तथ्य को स्वीकार किया जाता है कि किसी इकाई के पास राज्यत्व के आवश्यक तत्व विद्यमान हैं। जब तक राज्य अस्तित्व में नहीं आता, तब तक मान्यता का प्रश्न ही नहीं उत्पन्न होता।

(3) मान्यता का प्रभाव भूतलक्षी (retrospetive) होता है। दूसरे शब्दों में, जब नये राज्य को अन्य राज्यों द्वारा मान्यता दी जाती है, तब यह माना जाता है कि मान्यता देने वाले राज्य ने मान्यता प्राप्त करने वाले राज्य की स्थापना की तिथि से उसके सभी कृत्यों को मान्यता दी है। इसका तात्पर्य है कि नये राज्य को मान्यता प्रदान करते समय राज्य यह स्वीकार करते हैं कि वह अपने मान्यता के पहले से ही अस्तित्व में आ गया है। उदाहरण के लिए बंग्लादेश को इसके अस्तित्व में आने के लगभग दो वर्ष बाद पाकिस्तान द्वारा मान्यता दी गयी थी, लेकिन इसने बंग्लादेश के निर्माण की तिथि से उसके सभी कृत्यों को मान्यता प्रदान की। इसमें पुन: यह निहित है कि राज्य अपने मान्यता के पूर्व अस्तित्व में होता है।

(4) निर्माणात्मक मत के अनुसार जिस राज्य को मान्यता नहीं मिलती है उसे अन्तर्राष्ट्रीय विधि में न तो कोई अधिकार है और न उत्तरदायित्व है। यह बहुत ही बेतुकी सलाह है। राज्यों के अभ्यास से यह स्पष्ट होता है कि एक राज्य को अन्तर्राष्ट्रीय विधि के अन्तर्गत अधिकार बिना मान्यता के भी प्राप्त होते हैं तथा ऐसे राज्यों को भी अन्तर्राष्ट्रीय व्यक्तित्व प्राप्त रहता है। ऐसे राज्य अपनी स्वतंत्रता और राज्यक्षेत्रीय अखण्डता की रक्षा कर सकते हैं। उपर्युक्त अधिकार मान्टेवीडियो अभिसमय (Montevideo Convention) 1933 के अनुच्छेद 3 में तथा बोगोटा चार्टर (Bogota Charter) के अनुच्छेद 9 और 10 द्वारा प्रदान किये गये हैं।

आलोचना से स्पष्ट है कि निर्माणात्मक सिद्धान्त व्यावहारिक रूप से उपयुक्त नहीं है।

(2) घोषणात्मक सिद्धान्त (Declaratory theory) –

घोषणात्मक सिद्धान्त के समर्थक ब्रायरली, हाल एवं फिशर थे। इस सिद्धान्त के अनुसार, अन्तर्राष्ट्रीय विधि में राज्य अस्तित्व में तब आता है, जब वह राज्यत्व के सभी गुणों को अर्जित कर लेता है। सभी गुणों के विद्यमान होने से राज्य इकाई वास्तव में अस्तित्व में आ जाता है। अन्य राज्यों द्वारा मान्यता इस तथ्य के साक्ष्य को पेश करती है। इसलिए मान्यता का कार्य विद्यमान तथ्य की घोषणा है कि इकाई राज्यत्व के आवश्यक गुणों को धारण करती है। हाल के अनुसार, “राज्य राष्ट्रों के परिवार में अधिकारों के रूप में तब शामिल होता है, जब वह राज्यत्व के आवश्यक गुणों को अर्जित कर लेता है।” ब्रायरली ने कहा कि “राज्य मान्यता प्राप्त किए बिना अस्तित्व में रह सकता है तथा यदि वह वास्तव में अस्तित्व में है तो इसे उनके द्वारा राज्य के रूप में माने जाने का अधिकार है।” इस प्रकार इस सिद्धान्त के समर्थकों ने यह कह करके मान्यता के महत्व को कम कर दिया है कि मान्यता केवल इस कारण आवश्यक है कि यह नये राज्य को अन्य राज्यों के साथ शासकीय संबंध (Official intercourse) बनाने के लिए समर्थ बनाता है। इस सिद्धान्त के अनुसार नये राज्य को मान्यता प्रदान करने वाले राज्य द्वारा मान्यता का प्रभाव उनके मध्य सम्बन्ध को सृजित करना है। यह सिद्धान्त निर्माणात्मक सिद्धान्त से सुनिश्चित रूप से बेहतर प्रतीत होता है। राज्यों के अभ्यास तथा न्यायिक संस्थाओं ने इस सिद्धान्त का समर्थन किया है।

आलोचना – यद्यपि घोषणात्मक सिद्धान्त निर्माणात्मक सिद्धान्त की अपेक्षा अधिक मान्य है कि फिर भी इसमें भी कमियाँ हैं। उदाहरण के लिए यद्यपि एक राज्य राज्यत्व के सभी गुणों को प्राप्त कर अस्तित्व में आता है फिर भी बिना मान्यता प्राप्त किये यह अन्य राज्यों के साथ।

विधिक सम्बन्ध स्थापित नहीं कर सकता। दूसरे शब्दों में इस सिद्धान्त के अनुसार विधिक सम्बन्धों का निर्माण मान्यता द्वारा ही होता है। अतएव घोषाणात्मक निश्चित रूप से सही अर्थ में नहीं होता। उद्घोषणात्मक नहीं है। इसमें संघटक सिद्धान्त के तत्व विद्यमान हैं।

निष्कर्षत: उपर्युक्त दोनों सिद्धान्तों में से किसी एक को परिपूर्ण कहना उपयुक्त प्रतीत नहीं है।

स्टॉर्क के अनुसार, “सत्यता दोनों सिद्धान्तों के बीच कहीं निहित है।”

स्टॉर्क के अनुसार, “मान्यता केवल घोषणात्मक इस दृष्टि से है कि वह एक राज्य के जन्म को स्वीकृति प्रदान करती है और अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय में उनकी वैधानिकता को स्वीकार करती है, परन्तु कभी-कभी वह नये राज्यों को पैदा करती है, जबकि उसका जन्म भी नहीं हुआ होता है।”

प्रो. ओपेनहाइम ने भी स्वीकार किया है कि मान्यता निर्माणात्मक तथा घोषणात्मक दोनों ही हैं। यह एक विद्यमान तथ्य है कि मान्यता उद्घोषणा करती है तथा प्रकृति में निर्माणात्मक है। अतः निष्कर्ष के रूप में यह कहा जा सकता है कि मान्यता निर्माणात्मक या उद्घोषणात्मक दोनों ही है।

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Anjali Yadav

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