राज्य उत्तराधिकार के परिणाम (अधिकार और कर्त्तव्य)
जब पूर्वाधिकार राज्य के अधिकार और कर्त्तव्य उत्तराधिकार स्वरूप दूसरे राज्य या राज्यों को सौंप दिये जाते हैं तो, उन अधिकारों और कर्त्तव्यों में बड़ा अन्तर पैदा हो जाता है। ये अन्तर निम्नलिखित होते हैं-
(i) सम्पत्ति सम्बन्धी अधिकार और कर्त्तव्य- विलुप्त होने वाले राज्य की सार्वजनिक सम्पत्ति तथा कोष उत्तराधिकारी राज्य को प्राप्त हो जाते हैं। इसके अतिरिक्त दूसरे राज्य में स्थित ‘वितुप्त राज्य’ का सम्पत्ति स्वामित्व, अन्य राज्य का विलुप्त राज्य के प्रति ऋण, विलुप्त राज्य के दूसरे राज्य के सार्वजनिक तथा व्यक्तिगत सम्पत्ति में सुविधा सम्बन्धी अधिकार उत्तराधिकारी। राज्य को उत्तराधिकार में प्राप्त हो जाते हैं।
(ii) ऋण संबंधी अधिकार और दायित्व- ऋण के संबंध में कोईएक निश्चित नियम नहीं है। साधारणतः राज्य का ऋण उत्तराधिकारी राज्य अपने ऊपर ले लेता है। पर ऋण ऐसे नहीं होने चाहिये जो पूर्वाधिकारी राज्य ने जनता की हानि के लिये हों। अन्तर्राष्ट्रीय कानून के इतिहास में अनेक उदाहरण विलुप्त राज्य के ऋण को स्वीकार करने या अस्वीकार करने के सम्बन्ध में है। अतः स्पष्ट नियम के अभाव में सभ्य देश ऋण चुकाना ही अधिक बेहतर समझते हैं।
(iii) सदस्यता संबंधी अधिकार तथा दायित्व- उत्तराधिकारी राज्यों को अन्तर्राष्ट्रीय संगठन की सदस्यता उत्तराधिकार में नहीं प्राप्त होती। जैसे डेनमार्क से पृथक होने पर आइसलैंड एक नवीन राज्य बनने के पश्चात् स्वतंत्र रूप से अन्तर्राष्ट्रीय श्रम संगठन का सदस्य बना था। 1947 में भारत का विभाजन होने पर भारत संयुक्त राष्ट्र संघ का सदस्य बना रहा, परन्तु पाकिस्तान को उसकी सदस्यता नवीन राज्य के रूप में प्राप्त करनी पड़ी।
(iv) संविदात्मक अधिकार तथा दायित्व- उत्तराधिकार राज्य के द्वारा किये गये। करारों से उत्पन्न होने वाले अधिकारों तथा दायित्वों को स्वीकार करने के लिए बाध्य हैं। अन्तर्राष्ट्रीय न्याय के स्थायी न्यायालय ने Germa Settlers case 1923 में यह निर्णय दिया था कि विद्यमान कानून के अनुसार प्राप्त वैयक्तिक अधिकार प्रभुसत्ता के परिवर्तन के साथ समाप्त नहीं होते हैं।
(v) संधि संबंधी अधिकार तथा दायित्व- जब इस प्रकार एक नवीन राज्य की स्थापना होती है, तो उन नवीन राज्य को प्रभावित करने वाली कोई भी संधि उस पर लागू नहीं। होती है। उसे पुनः नवीन संधियाँ करनी पड़ेगी। इस प्रकार साहचर्य, विवाचन, तटस्थता तथा राजनैतिक संधियाँ रद्दद हो जाती हैं। जैसा कि कीथ ने लिखा है कि ‘विजेता राज्य उत्तराधिकार में कोई संधियाँ प्राप्त नहीं करते।’ इसे ‘कोरी स्लेट का सिद्धान्त’ भी कहते हैं। परन्तु उन अधिकारों के संबंध में उत्तरदायित्व हुआ करता है, जो विलुप्त होने वाले राष्ट्र में निहित रहते हैं। इस प्रकार के अन्तर्राष्ट्रीय अधिकार तथा कर्त्तव्य भूमि, नदियों, सड़कों तथा रेलवे से संबंधित रहते हैं जो उत्तराधिकारी राज्य को प्राप्त हो जाते हैं। इसी प्रकार सीमा रेखा, नदियाँ तथा रेलवे से सम्बन्धित संधियाँ भी उत्तराधिकार में उत्तराधिकारी राज्य के लिये वैध समझी जायेंगी।
(vi) राष्ट्रीय कानून संबंधी अधिकार- उत्तराधिकारी राज्य द्वारा केवल उन्हीं अधिकारों को स्वीकार किया जाना आवश्यक माना जाता है जिन अधिकारों ने अर्जित अधिकारों का रूप ग्रहण कर लिया हो। उत्तराधिकारी राज्य पूर्वाधिकारी राज्य से प्राप्त हुए प्रदेश के राष्ट्रीय कानून परिवर्तन करने का अधिकार रखता है। वह पुरानी कानूनी व्यवस्था में परिवर्तन ला सकता है।
(vii) कानूनी हानि- पूर्वाधिकारी राज्य के किसी गलत कार्य से यदि किसी व्यक्ति को हानि होती है, तो उसकी पूर्ति की जिम्मेदारी उत्तराधिकारी राज्य पर नहीं होती है।
(viii) राष्ट्रीयता संबंधी अधिकार- नवीन राज्य पूर्वाधिकारी राज्य से पृथक होते ही अपनी राष्ट्रीयता खो देता है। साधारणतया नागरिकों को कुछ अवसर दिया जाता है कि वे निश्चित करें कि वे किस राज्य के नागरिक बनेंगे। जैसे भारत व पाकिस्तान विभाजन के समय नागरिकों को नागरिकता संबंधी अधिकार निश्चित करने का अवसर दिया था ।
(ix) अन्तर्राष्ट्रीय संगठनों का उत्तराधिकार- राज्यों के समान ही अन्तर्राष्ट्रीय संगठन का भी उत्तराधिकार होता है। जब एक स्थित अन्तर्राष्ट्रीय संगठन को समाप्त करके उसी उद्देश्य के लिए एक नया संगठन स्थापित किया जाता है, तो उत्तराधिकार का प्रश्न उठ खड़ा होता है। जब द्वितीय विश्व युद्ध के बाद राष्ट्र संघ समाप्त हो गया और संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना की गयी तो संयुक्त राष्ट्र संघ को राष्ट्र संघ का उत्तराधिकारी माना गया ।
ओपेनहीम के अनुसार, “अन्तर्राष्ट्रीय जीवन को स्थायी बनाने के लिए यह आवश्यक है कि उन सब अवस्थाओं में उत्तराधिकार को स्वीकार किया जाये, जहाँ दोनों संगठनों के उद्देश्यों में एकता हो ।”
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