राजनीति विज्ञान / Political Science

सन्धि के चरण (stages of the treaty in Hindi)

सन्धि के चरण (stages of the treaty in Hindi)
सन्धि के चरण (stages of the treaty in Hindi)

सन्धियों के विभिन्न चरणों का वर्णन कीजिए।

सन्धि के चरण- दो या दो से अधिक राज्यों पर लागू होने वाली सन्धि एक लम्बी प्रक्रिया का परिणाम होती है। सन्धि करने का कोई एक निश्चित और सामान्य तरीका नहीं है। कानूनी रूप से बाध्यकारी सन्धि करने के लिये अनेक चरणों से गुजरना पड़ता है। प्रो. स्टार्क ने सन्धि के दायित्वों की रचना के लिये निम्नलिखित चरणों का उल्लेख किया है-

1. प्रतिनिधियों की नियुक्ति – एक उचित सन्धि करने की प्रक्रिया का पहला चरण होता है वार्तालाप करने के लिये प्रतिनिधियों को प्रमाणित करना और उनकी स्वीकृति देना। प्रत्येक राज्य अपने उन प्रतिनिधियों की नियुक्ति करता है जो सन्धि के लिए वार्ता करेंगे। नियुक्ति करते समय राज्य द्वारा ऐसा करने की पूर्ण सत्ता सौंपी जाती है। वर्तमान में अधिकांश सन्धियाँ राज्य द्वारा नियुक्त प्रतिनिधियों द्वारा ही सम्पादित की जाती है।

2. सन्धिवार्ता- सन्धि का दूसरा चरण सन्धिकर्ता राज्यों के प्रतिनिधियों के बीच होने वाली वार्ता होती है। द्विपक्षीय सन्धियों के सम्बन्ध में समझौता वार्ता वहीं बैठकर की जा सकती हैं। यदि सन्धि बहुपक्षीय है तो इसके उद्देश्य के लिये राजनायिक सम्मेलन बुलाया जा सकता है। जब तक प्रतिनिधियों के बीच प्रस्तावित सन्धि के प्रावधानों के सम्बन्ध में सहमति नहीं हो जाती तब तक यह समझौता वार्ता जारी रहती है।

3. हस्ताक्षर – सन्धि का तीसरा चरण सन्धि के तैयार अन्तिम प्रारूप पर वार्ताकारों के हस्ताक्षर करना है। सभी प्रतिनिधियों को उसी समय और स्थान पर एक-दूसरे की उपस्थिति में हस्ताक्षर करने होते हैं। नियमानुसार सन्धियों पर प्रतिनिधियों के भी हस्ताक्षर कराये जाते हैं। हस्ताक्षर होते ही सन्धि प्रभावशाली बन जाती है। यदि सन्धि में ऐसा प्रावधान है तो वह केवल तभी प्रभावशाली बनेगी जबकि आवश्यक सत्ता का अनुसमर्थन प्राप्त कर ले।

4. अनुसमर्थन- किसी सन्धि या अभिसमय पर हस्ताक्षर करने के बाद प्रतिनिधि अनुसमर्थन के लिये उसे अपनी सरकार के पास भेजते हैं। इसका औचित्य निम्न कारणों से है-

(अ) प्रत्येक राज्य को यह अधिकार होना चाहिए कि वह अपने प्रतिनिधियों द्वारा मान्य नियमों या शर्तों को स्वीकार करने से पूर्व पर्याप्त विचार कर सके।

(ब) क्योंकि राज्य को अपने में पूर्ण स्वामित्व का अधिकार होता है, इसलिये उसे यह अधिकार है कि वह किसी सन्धि को न माने।

(स) प्रायः कुछ सन्धियाँ ऐसी होती है, जिनके द्वारा यह आवश्यक हो जाता है कि राष्ट्रीय कानून में परिवर्तन किये जाएँ, अतः यदि कोई राज्य संसद से इस सम्बन्ध में कुछ स्वीकृतियाँ प्राप्त करना चाहता है, तो हस्ताक्षर करने से लेकर अनुसमर्थन तक उसे इस कार्य के लिये अवसर मिल जाता है।

(द) प्रजातन्त्रात्मक सिद्धान्त के अनुसार सरकार को कोई सन्धि स्वीकार करने से पूर्व संसद में अथवा जनता का समर्थन प्राप्त कर लेना चाहिए। यदि जनमत उसे ठुकरा देता है तो सम्बन्धित राज्य उसे स्वीकार नहीं कर सकता।

अनुसमर्थन की अस्वीकृति

एक राज्य निम्न कारणों के आधार पर सन्धि की पुष्टि करने से मना सकता है-

(अ) प्रतिनिधियों द्वारा अपने अधिकारों का अतिक्रमण करना।

(ब) प्रतिनिधि को किसी तथ्य के सम्बन्ध में जान-बूझकर धोखे में रखना

(स) सन्धि का पालन असम्भव होना।

(द) प्रतिनिधि का सन्धि की किन्हीं शर्तों से सहमत न होना।

प्रो. बायरली के अनुसार, “यह कोई कानून की दृष्टि से किसी राज्य के लिये आवश्यक नहीं है कि वह उस सन्धि का अनुसमर्थन भी करने के लिये बाध्य हो जिस पर उसके पूर्ण अधिकार प्राप्त प्रतिनिधियों द्वारा हस्ताक्षर किये गये हो। हाँ इतना आवश्यक है कि ऐसा करने में पूर्णतया असावधान नहीं हो जाना चाहिए क्योंकि यह कार्य अत्यन्त सावधानी का और गम्भीर है।”

5. सन्धि का लागू होना- कुछ सन्धियाँ तो प्रतिनिधियों द्वारा हस्ताक्षर कर देने के बाद से ही क्रियात्मक रूप धारण कर लेती हैं परन्तु कुछ सन्धियाँ अनुसमर्थन के बाद लागू होती है। इस दशा में जब जितने राज्यों द्वारा सन्धि-पत्र पर हस्ताक्षर किये गये हैं उन सभी के अनुसमर्थन प्राप्त हो जाते हैं तो सन्धि लागू हो जाती है। कभी-कभी कुछ अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलनों में सन्धि का अनुसमर्थन करने वाले राज्यों की संख्या निश्चित कर दी जाती है। ऐसी स्थिति में सभी निर्धारित राज्यों का अनुसमर्थन प्राप्त जाने के बाद सन्धि को लागू किया जाता है। उदाहणार्थ- 1925 में लोकानों सन्धि में इस शर्त का स्पष्टतया वर्णन किया गया था कि उसको तभी लागू किया जायेगा जबकि जर्मनी राष्ट्र संघ का सदस्य बन जायेगा।

6. सहमिलन और अभिलाग- बहुधा ऐसा होता है कि जब किसी सन्धि की सभी कार्यवाहियाँ पूर्ण हो जाती हैं तो कुछ राज्य इसके पश्चात् उस सन्धि की शर्तों को स्वीकार कर उसमें पक्षकार बन जाते हैं। यही क्रिया सहमिलन की क्रिया है। यदि बाद में सम्मिलित होने वाला राज्य सन्धि की केवल कुछ ही शर्तों को स्वीकार करता है, तो इस क्रिया को अभिलाग कहा जायेगा।

7. क्रियान्विति – सन्धि की सभी निश्चयात्मक कार्यवाहियाँ पूरी होने के पश्चात् इसकी अन्तिम कार्यवाही यही होती है कि उसको राज्यों द्वारा क्रियात्मक रूप दिये जाने के पूर्व राष्ट्रीय कानूनों में परिवर्तित कर दिया जाये। उदाहरणार्थ- अन्तर्राष्ट्रीय श्रम संघ के अनेक सम्मेलन होते हैं, जिनमें श्रमिक के रहन-सहन एवं उनकी दशा आदि सुधारने के सम्बन्ध में अनेक प्रस्ताव रखे जाते हैं परन्तु उन प्रस्तावों के किसी देश में लागू होने के लिये यह आवश्यक है कि पहले राष्ट्रीय कानून में परिवर्तन कर दिया जाये।

8. पंजीकरण और प्रकाशन- सं.रा. संघ के चार्टर की धारा 102 के प्रत्येक प्रकार की सन्धि को जब उसकी समस्त कार्यवाहियाँ पूर्ण हो जाएँ, संघ के सचिवालय में अनुसार शीघ्र ही पंजीकृत कराया जाना आवश्यक है। उसके द्वारा इसका प्रकाशन भी कराया जाना चाहिए। यदि सन्धि का पंजीकरण न कराया गया, तब वह अवैध हो जायेगी।

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Anjali Yadav

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