अन्तर्राष्ट्रीय विवादों के निपटारे के विभिन्न तरीकों का संक्षिप्त वर्णन कीजिए। अथवा अन्तर्राष्ट्रीय विवादों के शान्तिपूर्ण ढंग से निस्तारण करने की पद्धतियों का वर्णन कीजिए।
विश्व में राज्यों की कुल संख्या 200 से अधिक है। इन राज्यों में किसी न किसी बात को लेकर आपस में विवाद सदैव विद्यमान रहता है। इन विवादों का सुलझाया जाना भी एक अत्यन्त आवश्यक कार्य है। यदि इन विवादों को न सुलझाया जाये तो सम्पूर्ण विश्व का विनाश निश्चित व स्वाभाविक है। ओपेनहाइम (Oppenheim) के अनुसार, ऐसे अनेक कारण हैं, जिनसे अन्तर्राष्ट्रीय विवाद उठ सकते हैं। साधारणतया राज्यों के मध्य कानूनी तथा राजनीतिक दो ही प्रकार के विवाद होते हैं। इन कानूनी तथा राजनीतिक विवादों का निपटारा मैत्रीपूर्ण तथा बाध्यकारी साधनों द्वारा ही किया जा सकता है। अन्य अनेक विधिशास्त्रियों ने भी अन्तर्राष्ट्रीय विवादों के समाधान को निम्नलिखित दो भागों में विभाजित किया है-
- (a) विवादों के समाधान का शान्तिपूर्ण साधन
- (b) बाध्यकारी साधन
शान्तिपूर्ण ढंग से विवादों के निपटारे के प्रमुख साधन निम्न हैं-
(1) वार्तालाप (Negotiation) – जब देशों में आपसी विवाद पैदा हो जाते हैं, तो उन विवादों को शान्तिपूर्ण ढंग से सुलझाने का सबसे सरल तथा प्रथम उपाय है कि दोनों देशों की सरकारों के अध्यक्ष अथवा राजदूत या अन्य प्रतिनिधि आपस में समस्या को सुलझाने के लिए पत्र-व्यवहार करते हैं। अभी भारत चीन सीमा-विवाद पैदा हो जाने पर वार्तालाप के माध्यम से समस्या को सुलझाने का प्रयास किया गया। सितम्बर 1959 ई० को भारत के प्रधानमन्त्री श्री जवाहरलाल नेहरू तथा पाकिस्तान के राष्ट्रपति अय्यूब खाँ के बीच पत्र-व्यवहार के द्वारा वार्तालाप हुआ, जिसमें सीमा विवाद का अन्त करने तथा एक अच्छे पड़ोसी की तरह आपसी सम्बन्ध स्थापित करने के उद्देश्य से मन्त्रियों की एक परिषद् बुलाने की बात तय की गयी। इसके बाद भी सीमा विवाद को सुलझाने के लिए वार्तालाप सम्बन्धी बहुत से प्रयास किये गये, परन्तु दुर्भाग्य की बात है कि अब तक उसका कोई उचित हल नहीं निकाला जा सका।
(2) सेवायें (Good Offices) – जब दो विवादित राष्ट्र आपसी वार्तालाप से विवाद को सुलझाना अस्वीकार कर देते हैं, तब कोई तीसरा राज्य, अपनी सेवाओं के द्वारा समझौता करने का प्रयास करता है। ‘सेवा’ (Service) शब्द से अर्थ यह रहता है कि यह तीसरा राज्य दोनों विवादग्रस्त राज्यों को एक साथ बैठाने, उनको सलाह देने तथा बिना वार्ता में भाग लिए विवाद को सुलझाने का प्रयास करता है। भारत व पाकिस्तान के बीच ताशकन्द समझौता (Tashkent Agreement) रूस की सेवा एक उच्चकोटि का प्रतीक है।
(3) सत्प्रयत्न या मध्यस्थता (Mediation)- जब दोनों विवादग्रस्त राज्य विवाद को सुलझाने में असफल होते हैं, तो तीसरा राज्य उसे सुलझाने के लिए अपनी सेवायें प्रस्तुत करता है। उसका अपने आपको प्रस्तुत करना उसकी सेवायें कहलाता है तथा दोनों राज्यों के बीच में पड़कर विवाद को सुलझाने का प्रयास मध्यस्थता कहलाता है। बहुत से विवाद इतने पेचीदा हो जाते हैं कि उनमें केवल एक राज्य ही मध्यस्थता के रूप में कार्य न करके बहुत-से राज्य सामूहिक रूप से मध्यस्थता के द्वारा उस विवाद को सुलझाने का प्रयास करते हैं। भारत-चीन सीमा विवाद को लंका की प्रधानमन्त्री श्रीमती भण्डारनायके ने सुलझाने के लिए प्रस्तुत करते हुए मध्यस्थता से इसे हल करने का प्रयास किया था।
हेग अधिनियम की धारा 4 में सेवाओं व मध्यस्थता के कार्य वर्णित करते हुए कहा गया है कि मध्यस्थता तथा सेवाओं का उद्देश्य “विवाद करने वाले राज्यों के बीच उत्पन्न मनमुटाव को दूर करना तथा परस्पर विरोधी भावों का आपसी समन्वय करना है।” अतः मध्यस्थता व सेवाओं का अर्थ यह नहीं है कि इसके द्वारा दोनों देशों की आपसी लड़ाई व युद्ध आदि को रोका ही जा सके। यह तो केवल उसे रोकने का प्रयास-मात्र है। संयुक्त राष्ट्र के चार्टर के अनुच्छेद 34 और 35 में भी यह अनुबन्धित है कि जब कभी ऐसी परिस्थिति उत्पन्न हो और अन्तर्राष्ट्रीय विवाद हो जाय तो संयुक्त राष्ट्र सामूहिक रूप से मध्यस्थता करे।
(4) समाधान (Conciliation) – इस विधि के अनुसार विवादग्रस्त पक्षकारों के मध्य में तीसरा पक्षकार शान्तिपूर्ण समाधान कराता है। ओपेनहीयम ने समाधान के विषय में अपने विचार प्रकट करते हुए कहा है कि “यह विवाद के समाधान की ऐसी प्रक्रिया है, जिसमें झगड़ा निबटाने का काम कुछ व्यक्तियों के कमीशन या आयोग को सौंपा जाता है।” यह आयोग दोनों पक्षों के विवरण सुनकर इनमें समझौता कराने के प्रयत्न की दृष्टि से विवाद-सम्बन्धी तत्वों को स्पष्ट करते हुये एक रिपोर्ट देता है, इसमें विवाद के समाधान के लिए कुछ प्रस्ताव होते हैं, किन्तु इनका स्वरूप पंचाट (Award) या अदालती निर्णय की भाँति अनिवार्य रूप से मान्य नहीं होता। हेग अभिसमय के द्वारा इस प्रक्रिया का रूप अधिक स्पष्ट तथा शक्तिशाली करने का प्रयास किया गया है। हेग अभिसमय की धारा 9 में यह कहा गया था कि विवाद होने पर, इसके तत्वों के अन्वेषण के लिए दोनों पक्षों के चुने हुये व्यक्तियों का एक आयोग बनाया जाना चाहिए। यहाँ पर पंचायती निर्णय व अन्तर्राष्ट्रीय जाँच आयोग के बीच अन्तर की जानकारी प्राप्त कर लेना आवश्यक है। हरिदत्त वेदालंकार ने इन दोनों को स्पष्ट करते हुए लिखा है कि यह जाँच के अन्तर्राष्ट्रीय आयोग (International Commission of Enquiry) तथा पंचनिर्णय (Arbitration) की मध्यवर्ती प्रक्रिया है। जाँच कमीशन का मुख्य उद्देश्य इस आशा से तथ्यों का विषदीकरण (Elucidation) करना होता है कि इससे दोनों पक्ष स्वयमेव आपस में समझौता कर लेंगे। किन्तु समाधान का मुख्य लक्ष्य इस आयोग के प्रयत्नों के द्वारा दोनों पक्षों का समझौता करना है। पंचनिर्णय में ठीक ढंग से बनाये पंच या न्यायाधिकरण का निर्णय दोनों पक्षों को अनिवार्य रूप से स्वीकार करना होता है, किन्तु समाधान में दोनों पक्षों के लिए कानूनी तौर से यह आवश्यक नहीं है कि वे विवाद के समाधान के लिए सुलझाये गये प्रस्तावों को स्वीकार कर लें।
(5) अन्तर्राष्ट्रीय जाँच आयोग (International Enquiry Commission) – दो देशों में आपसी विवाद उत्पन्न हो जाने पर समस्या को सुलझाने के लिए विवाद के तथ्यों की जाँच करने हेतु अन्तर्राष्ट्रीय जाँच आयोग का निर्माण किया जाता है। आयोग का मुख्य कार्य दोनों देशों के बीच हुये विवाद के आधारों को इस दृष्टिकोण से प्रस्तुत करना है जिसमें कि अज्ञान दूर हो व शान्ति स्थापित की जा सके। इसके साथ-साथ समस्या को शान्तिपूर्ण ढंग से निबटाने के लिए सुझावों को भी प्रस्तुत करता है। जिस समय तक के लिए आयोग जाँच करता है व अपना निर्णय करता है, दोनों पक्षों को युद्ध बन्द रखना पड़ता है। 1899 ई० के हेग अभिसमय (Hague Convention) में जाँच आयोग की व्यवस्था की गयी थी। 1924 ई० में वाशिंगटन समझौते (Washington Agreement) के अनुसार इस आयोग को स्थायी रूप से स्थापित करने का निर्णय किया गया। इस समझौते के अनुसार निम्नलिखित व्यवस्थायें की गयी – (i) समझौते के मुख्य कूटनीतिक उपायों के विफल हो जाने पर दोनों पक्ष अपने विवाद स्थायी आयोग को सौंपने और इनकी रिपोर्ट मिलने तक युद्ध आरम्भ नहीं करेंगे। (ii) स्थायी आयोग के पाँच सदस्य होंगे। प्रत्येक पक्ष इसके लिए अपना नागरिक और तीसरे राज्य का नागरिक चुनेगा तथा दोनों मिलकर तीसरे राज्य का पाँचवाँ सदस्य चुनेंगे। (iii) इनकी रिपोर्ट एक वर्ष के भीतर अवश्य आ जानी चाहिए, किन्तु इसकी अवधि दोनों पक्षों की सहमति से घटाई व बढ़ाई जा सकती है।
(6) पंच निर्णय या विवाचन (Arbitration)- राज्यों में जब आपसी विवाद उत्पन्न हो जाता है तब उसे शान्तिपूर्ण ढंग से हल करने के लिए पंचों को सौंपने की प्रक्रिया को पंच निर्णय या विवाचन कहा जाता है। ओपेनहाइम के अनुसार इसका अर्थ राज्य के मतभेद का समाधान कानूनी निर्णय द्वारा किया जाता है। यह निर्णय दोनों पक्षों द्वारा चुने हुए एक अथवा अनेक पक्षों के न्याधिकरण (Tribunal) द्वारा होता है और यह अधिकरण न्याय के अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय से पृथक् है। हेग के 1899 ई० के व 1907 ई० के अभिसमय में पंचनिर्णय की व्यवस्था के विषय में विस्तृत वर्णन किया गया था। अभिसमय की 37 से लेकर 90 धाराओं तक इनका वर्णन है, इसी के आधार पर पंचनिर्णय के स्थायी न्यायालय की स्थापना की गयी थी। पंचनिर्णय के स्थायी न्यायालय की स्थापना के बाद 1914 ई० तक 16 विवादों पर अपना निर्णय प्रस्तुत किया, जिनमें से 1902 ई० का कैलिफोर्निया का प्यूज फण्ड विवाद, 1905 ई० में जापान गृह-कर विवाद, 1910 ई० का अटलांटिक तट का मछलीगाह वाद आदि मुख्य है।
(7) न्यायिक अधिनिर्णय (Judicial Settlement) – जैसा कि हम पहले लिख चुके हैं कि पंचनिर्णय का स्थायी न्यायालय कोर्ट नहीं था, बल्कि जजों की एक सूची-मात्र था, इसी कारण इसमें पर्याप्त दोष भी थे। इन्हीं दोषों को दूर करने के लिए राष्ट्र संघ के अन्तर्गत अन्तर्राष्ट्रीय न्याय के स्थायी न्यायालय व संयुक्त राष्ट्र के अन्तर्गत इसी न्यायालय का दूसरा नाम इसमें कुछ संशोधन करने के पश्चात् अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय ही रखा गया था।
(8) संयुक्त राष्ट्र प्रणाली – संयुक्त राष्ट्र की स्थापना से पूर्व राष्ट्र संघ ने राज्यों के आपसी विवादों को सुलझाने का कार्य अपने कन्धों पर लिया था। संघ के आज्ञा पत्र की धारा 12 के अन्तर्गत इन विवादों को सुलझाने के तीन मुख्य उपाय बतलाये गये थे- (i) विवाद को पंचों को सौंपना। (ii) विवाद को हेग के स्थायी न्यायालय को सौंपना। (iii) संघ की कौंसिल द्वारा स्वयं विवाद को सुलझाया जाना। धारा 16 में कौंसिल के द्वारा विवादों को सुलझाने की क्रिया की विस्तृत व्याख्या की गयी थी।
1945 ई० में राष्ट्र संघ की समाप्ति तथा संयुक्त राष्ट्र के जन्म पर संयुक्त राष्ट्र संघ के विवादों को निबटाने सम्बन्धी कार्य अपने ऊपर ले लिया। संयुक्त राष्ट्र के चार्टर की धारा 24 व 25 के अनुसार इन विवादों को सुलझाने का मुख्य भार संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद् ने सम्भाला। सुरक्षा परिषद् द्वारा वार्तालाप, जाँच व मध्यस्थता, संराधन, पंच-निर्णय प्रादेशिक संगठन व अधिनिर्णयों की सहायता लेते हुए इन विवादों को सुलझाया जाता है। संयुक्त राष्ट्र चार्टर के अनुसार विवादों के समाधान की तीन रीतियाँ हैं-
- विवाद को पंचों को सौंपना
- विवाद को हेग स्थित अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय को सौंपना
- यू० एन० ओ० की कौंसिल द्वारा विवाद का स्वयं समाधान करना।
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