आधुनिक परिप्रेक्ष्य में विश्व शान्ति कायम रखने में संयुक्त राष्ट्र संघ की भूमिका का मूल्यांकन कीजिए।
जान फास्टर डगलस ने कहा है कि “शान्ति वह सिक्का है जिसमें दो गुण पाये जाते हैं। पहला किसी प्रकार के बल प्रयोग को अवरुद्ध करना एवं दूसरा न्याय की परिस्थिति का सृजन करना। संयुक्त राष्ट्र ने इसी दुष्टिकोण को अपनाया है। जहाँ चार्टर के प्रावधानों का उद्देश्य अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों में बल के प्रयोग को रोकना है। शान्ति तथा सुरक्षा को बनाये रखने सम्बन्धी प्रावधान इस सम्बन्ध में विशेष रूप से उल्लिखित हैं। दूसरी ओर, महासभा, आर्थिक तथा सामाजिक परिषद् तथा विशिष्ट एजेन्सियों के सहयोग से संयुक्त राष्ट्र ने सामाजिक, आर्थिक तथा संस्कृतिक क्षेत्रों मे बड़ा ही प्रशंसनीय कार्य किया है। ऐसा किया जाना आवश्यक था क्योंकि दीर्घकाल में एक के बिना दूसरे की आशा नहीं की जा सकती है।
“संस्था कभी भी महाशक्तियों की सर्वसम्मति के अभाव से उत्पन्न परिसीमाओं को दूर नहीं कर पायी है। वास्तव में प्रारम्भ से ही संयुक्त राष्ट्र के कार्य में महाशक्तियों के संघर्ष के कारण बाधा पहुँची। परन्तु संयुक्त राष्ट्र का जब तक विद्यमान होना इसके निर्माताओं की दूरदर्शिता का प्रमाण है तथा उन सिद्धान्तों के औचित्य को प्रदर्शित करता है जिनके आधार पर यह निर्मित है। “
यह हम संयुक्त राष्ट्र के अब तक के कार्यों का मूल्यांकन करें तो यह निष्कर्ष निकलेगा कि संयुक्त राष्ट्र ने अपनी उपयोगिता इस हद तक सिद्ध कर दी है कि संयुक्त राष्ट्र के बिना विश्व का विचार करना कठिन प्रतीत होता है। संयुक्त राष्ट्र में चार्टर की सीमाओं के अन्तर्गत विकास करने की महत्वपूर्ण क्षमता है। ऐसा विश्वास करने का कारण नहीं है कि भविष्य में विकास की सम्भावनाएँ समाप्त हो गयी हैं। निकट भविष्य में ऐसा सम्भव नहीं दिखाई देता है कि संयुक्त राष्ट्र से भिन्न कोई विश्व-संस्था स्थापित की जा सकती है। वास्तव में विश्व की वर्तमान परिस्थितियों में संयुक्त राष्ट्र का कोई विकल्प नहीं है। “पूर्ण
संयुक्त राष्ट्र- प्रणाली को मनुष्य जाति की सेवा के अवसर हैं जिनकी सदस्यों की आपस में मिलकर कार्य करने तथा करते रहने की क्षमताएँ हैं।”
संयुक्त राष्ट्र ने ऐसी प्रणाली तथा प्रक्रियाओं को जन्म दिया है तथा एक ऐसा स्थान प्रदान किया है जहाँ राज्य आपस में विचार-विमर्श कर सकते हैं, जिसके परिणामस्वरूप एक संयुक्त राष्ट्र जनमत तैयार किया जा सकता हैं जो एक ऐसा नैतिक दबाव है जिसे राज्य नजरअन्दाज नहीं कर सकते हैं। डा० नगेन्द्र सिंह ने भी ऐसे ही विचार प्रकट किये हैं। उनके अनुसार, संयुक्त राष्ट्र ने जनमत एकत्रित करने हेतु एक स्थान प्रदान किया जिससे तनाव कम करने के लिए तथा हिंसक तरीकों के बजाय शान्तिपूर्ण प्रक्रियाओं में प्रयोग के लिए राजनीतिक दबाव डाला जा सके। 1966 में संयुक्त राष्ट्र दिवस के अवसर पर बोलते हुए भूतपूर्व राष्ट्रपति डा० राधाकृष्णन् ने कहा था- “संयुक्त राष्ट्र के एक संघीय संस्था के रूप में विकास करने का अवसर दिया जाना चाहिए। इसके रास्ते में कठिनाइयाँ हैं, तुरन्त आधुनिक युद्ध तथा उसकी भयंकरता व विश्व का विनाश रोकने का और कोई विकल्प नहीं है। हमें संयुक्त राष्ट्र के न्यायिक, कार्यपालिका तथा पुलिस कार्यों को सुदृढ़ करने की चेष्टा करनी चाहिए।” संयुक्त राष्ट्र के कार्य तथा इनकी परिधि में दिन-प्रतिदिन वृद्धि हो रही है। संयुक्त राष्ट्र के सदस्यों की संख्या का 51 से बढ़कर 194 होना इस संगठन की प्रासंगिकता का उदाहरण है। अतः स्पष्ट है कि अपनी परिसीमाओं तथा असफलताओं के बावजूद संयुक्त राष्ट्र मनुष्य जाति के संरक्षित तथा बेहतर भविष्य की केवल अन्तिम आशा है।
विश्व शान्ति एवं सुरक्षा के क्षेत्र में 1991 में खाड़ी युद्ध द्वारा कुवैत को स्वतन्त्र कराना एक महत्वपूर्ण उपलब्धि है। परन्तु युद्ध से एक अप्रत्याशित एवं विकट परिस्थिति उत्पन्न हो गयी है। अमेरिका सबसे अधिक शाक्तिशाली राष्ट्र के रूप में उभरा है। खाड़ी युद्ध में अमेरिका ने सुरक्षा परिषद् को अपने इशारों पर नचाया। औपचारिक संधि विराम हो जाने के पश्चात् अमेरिका ने अपनी सेनायें ईराक में भेजकर कुर्ड्स लोगो के लिए शिविर स्थापित किये। अमेरिका की इस कार्यवाही के लिए न तो सुरक्षा परिषद् ने अनुमति प्रदान की है तथा न ही यह खाड़ी युद्ध से सम्बन्धित सुरक्षा परिषद् के प्रस्तावों के अन्तर्गत आती है। 24 अप्रैल, 1991 को ईराक ने संयुक्त राष्ट्र से अमेरिका कार्यवाही के विरुद्ध विरोध प्रकट किया, तथा इसे ईराक की राजनीतिक स्वतन्त्रता तथा अखण्डता का उल्लंघन बताया। ईराक का आरोप उचित था तथा अमेरिका की यह कार्यवाही संयुक्त राष्ट्र चार्टर के अनुच्छेद 2 (4) का उल्लंघन था। सबसे गम्भीर बात है कि अमेरिका की उक्त कार्यवाही से संयुक्त राष्ट्र की छवि धूमिल होती है। पहली बार संयुक्त राष्ट्र के अन्तर्गत अध्याय 7 के अन्तर्गत इतनी सफल कार्यवाही हो सकी है। संयुक्त राष्ट्र को यह सुनहरा अवसर प्राप्त हुआ है कि वहअपनी छवि सुधार सके तथा यह कार्य किसी एक राज्य की कठपुतली बन कर नहीं हो सकता है। इसके लिए आवश्यक है कि वह विश्व के सभी लोगों का विश्वास प्राप्त करे।
यहाँ पर यह भी उल्लेखनीय है कि राष्ट्रों के मध्य संघर्ष दूर करने के अतिरिक्त भी कई ऐसी समस्याओं एवं चुनौतियाँ है जो सुरक्षा की धारणा से सम्बद्ध हैं जैसे उत्तर एवं दक्षिण के मध्य बढ़ती आर्थिक खाई। 2014 में विश्व आज वह नहीं है जो 1945 में था, जब संयुक्त राष्ट्र प्रणाली स्थापित की गयी थी। आज हम ऐसे समय में रह रहे हैं जहाँ सरकारों, जो संयुक्त राष्ट्र प्रणाली की मौलिक इकाइयाँ हैं, का उन शक्तियों पर बहुत कम नियन्त्रण है जो भविष्य बना रही है। राष्ट्रवाद एवं प्रभुत्व सम्पन्नता बहुत समस्या प्रधान धारणायें हैं। उनका अन्तर्राष्ट्रीय दायित्व वास्तविकताओं एवं तत्कालीन जीवन के कटु सत्यों से सम्बन्ध परिवर्तित हो रहा है। अत: अब संयुक्त राष्ट्र प्रणाली को स्वयं को विश्व के लोगों की आकांक्षाओं के अनुरूप ढालना है। संयुक्त राष्ट्र प्रणाली की पुन: जीवन शक्ति एवं महासचिव की कार्यकुशलता उत्तर-दक्षिण खाई, पर्यावरण की परिभ्रष्टता आदि ऐसी नई विश्व चुनौतियाँ हैं जो राष्ट्रीय सीमाओं के परे हैं, संयुक्त राष्ट्र प्रणाली के दायित्व के प्रमुख नये क्षेत्र संघर्ष रोकने की कूटनीति स्थापना, विवादों का निस्तारण निरस्त्रीकरण, जनता की गरीबी दूर करने के लिए रचना कौशल, पर्यावरण एवं मानव अधिकारों को प्रोन्नत है।
उपर्युक्त विवेचना के आधार पर निष्कर्ष में यह कहना अनुचित न होगा कि अपनी असफलताओं, दुर्बलताओं तथा दोषों के बावजूद संयुक्त राष्ट्र अभी विद्यमान है तथा वर्तमान परिस्थितियों को देखते हुए एक उपयोगी तथा आवश्यक विश्व-संस्था है जिसका निकट भविष्य में कोई विकल्प सम्भव नहीं है। चूँकि इसमें अपने को परिस्थितियों के अनुकूल बनाने तथा अपना विकास करने की क्षमता है भविष्य में इसके और भी अधिक उपयोग तथा महत्वपूर्ण होने की आशा की जा सकती है। संयुक्त राष्ट्र पूर्ण मनुष्य जाति की आशाओं तथा आकांक्षाओं का प्रतिनिधित्व करता है। संयुक्त राष्ट्र को समय तथा बदलती परिस्थितियों के अनुसार परिवर्तित होना चाहिए। जिन कठिनाइयों का अनुभव संयुक्त राष्ट्र कर रहा है वह उस कठिनाई तथा खतरे से भी उस विश्व का प्रतिबिम्ब है जिसमें हम रहते हैं। संयुक्त राष्ट्र इस प्रणाली का आवश्यक केन्द्र बिन्दु है तथा इसका कोई विकल्प नहीं है। 15 सितम्बर, 1992 को संयुक्त राष्ट्र महासभा के 47वें सत्र को सम्बोधित करते हुये कहा कि जैसे-जैसे संयुक्त राष्ट्र संस्था खतरे में अथवा आवश्यकता अथवा निराशा में लोगों की सहायता करती है, विश्व भर में संस्था की उपस्थिति और गहन रूप से महसूस की जाती है। इससे पूर्व संयुक्त राष्ट्र इतिहास में कभी भी इतना सक्रिय नहीं था। महासभा के 47वें सत्र के अध्यक्ष गानेव (Ganev) ने उचित ही विचार व्यक्त किया कि 47 वर्ष के अपने अस्तित्व में संयुक्त राष्ट्र ने शांति एवं सुरक्षा को बनाये रखने, राष्ट्रों के मध्य मित्रापूर्ण सम्बन्ध विकसित करने तथा सदस्य राज्यों के मध्य सहयोग की बेहतर दशायें उत्पन्न करने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है। संयुक्त राष्ट्र को अब अधिक से अधिक सुरक्षा के गैर-सैनिक तत्वों, जो तनाव तथा युद्ध उत्पन्न करने की समान क्षमता रखते हैं, की ओर अधिक ध्यान देना चाहिए। जनसंख्या में वृद्धि, ऋण का बढ़ता बोझ, व्यापार में अवरोध, मादक दवाओं का व्यापार आदि समस्यायें हैं जिन पर संयुक्त राष्ट्र के प्रयासों में निरनतर ध्यान तथा उच्च वरीयता दी जानी चाहिए।
संयुक्त राष्ट्र महासभा का 68 वाँ अधिवेशन 17 सितम्बर 2013 को अमेरिका के न्यूयार्क में हुआ। जिसकी अध्यक्षता एंटीगुआ एवं बरमुडा के राजदूत ‘जान विलियम ऐश’ ने किया। महासभा के इस सत्र का केन्द्रीय विषय था वर्ष 2015 के बाद विकास का एजेंडा चरणों का समयोजन। महासभा के 68वें सत्र को इस विवाद के कारण याद किया जायेगा कि सऊदी अरब ने सुरक्षा परिषद की अस्थायी सदस्यता को ग्रहण करने से इस कारण इन्कार कर दिया क्योंकि संयुक्त राष्ट्र संघ सीरिया मुद्दे पर दोहरा मापदण्ड अपना रहा है।
उपर्युक्त के बावजूद यह मानना पड़ेगा कि वर्तमान में संयुक्त राष्ट्र संघ एक सार्वभौमिक संस्था है जिसका शान्ति के क्षेत्र में कोई भी विकल्प नहीं हुआ है।
IMPORTANT LINK
- विचारधारा से आप क्या समझते हैं? What do you understand by ideology?
- परम्परा और आधुनिकता का समन्वय | Tradition and modernity of amalgamation in Hindi
- प्राचीन भारतीय राजनीति चिन्तन की विशेषताएं | Features of Ancient Indian Political Thought in Hindi
- प्राचीन भारतीय राजनीतिक चिन्तन के स्रोत | Sources of Ancient Indian Political Thought in Hindi
- राजनीतिक सिद्धान्त का अर्थ, प्रकृति, क्षेत्र एंव इसकी उपयोगिता | Meaning, nature, scope and utility of political theory in Hindi
- राजनीतिक विज्ञान की परम्परागत एवं आधुनिक परिभाषा | Traditional and Modern Definitions of Political Science in Hindi
- मानव अधिकार संरक्षण अधिनियम, 1993 के द्वारा दी गयी मानव अधिकार
- मानवाधिकार की परिभाषा एवं उत्पत्ति | Definition and Origin of Human Rights in Hindi
- नारीवाद का अर्थ एंव विशेषताएँ | Meaning and Features of Feminism in Hindi
- राजनीतिक विचारधारा में साम्यवाद का क्या विचार था?
- मार्क्सवाद विचारों की आलोचना | Criticism of Marxism Ideas in Hindi
- मार्क्सवाद (साम्यवाद) के सिद्धान्त एवं उसके महत्व
- मानवाधिकार का वर्गीकरण | classification of human rights in Hindi
- प्राकृतिक विधि का सिद्धान्त | Natural Law Theory in Hindi
- मानवाधिकार के सिद्धान्त | principles of human rights in Hindi