राजनीति विज्ञान / Political Science

अन्तर्राष्ट्रीय विवादों के निपटारे के बाध्यकारी उपाय | Compulsory measures to settle international disputes in Hindi

अन्तर्राष्ट्रीय विवादों के निपटारे के बाध्यकारी उपाय | Compulsory measures to settle international disputes in Hindi
अन्तर्राष्ट्रीय विवादों के निपटारे के बाध्यकारी उपाय | Compulsory measures to settle international disputes in Hindi

अन्तर्राष्ट्रीय विवादों के निपटारे के बाध्यकारी उपाय | Compulsory measures to settle international disputes 

अन्तर्राष्ट्रीय विवादों के निपटारे में जब मैत्रीपूर्ण साधन सफल नहीं होते अथवा उनके सफल होने की आशा नहीं होती तो विवादों के निपटारे के लिए बाध्यकारी साधन युद्ध के पूर्व होते है। युद्ध निपटारे का अन्तिम साधन होता है। इसीलिए ये साधन Short of War कहलाते हैं। ओपेनहाइम के शब्दों में, “मतभेदों को दूर करने के वे साधन बाध्यकारी कहलाते हैं, जितने बाध्यता या कुछ अंश होता है। इनका प्रयोग एक राज्य दूसरे राज्य के विरुद्ध इस उद्देश्य से करता है कि वह पहले राज्य द्वारा वांछित रूप से मतभेदों के समाधान को स्वीकार कर ले।

बाध्यकारी साधन युद्ध के पूर्व की अवस्था होते हैं। इनमें और युद्ध में अन्तर है। यद्यपि इनका उद्देश्य भी दबाव डालकर दूसरे पक्ष से अपनी बात मनवाना होता है, लेकिन इनमें युद्ध के समान हिंसा का प्रयोग नहीं होता। दूसरे इनके दौरान दोनों पक्षों में शान्तिकालीन दशा चलती रहती है। इसलिए बाध्यकारी साधनों को युद्ध का पर्याय नहीं समझ लेना चाहिए। ये युद्ध से कुछ कम तथा शान्तिपूर्ण साधनों से कुछ कठोर होते हैं। इन्हें प्रयोग करने से युद्ध मार्ग नहीं अपनाना पड़ता।

फेनविक के मतानुसार, ‘बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ में अन्तर्राष्ट्रीय व्यवहार में अनेक ढंग विकसित हो गये हैं, जिनके द्वारा एक राज्य अन्य राज्य पर उसके विरुद्ध युद्ध छेड़े बिना ही भौतिक दबाव डाल सकता है।

युद्ध एवं बाध्यकारी साधनों में भेद

बाध्यकारी साधनों तथा युद्ध में प्रत्यक्ष रूप से निम्नलिखित अन्तर दृष्टिगोचर होते हैं-

(1) बाध्यकारी साधनों तथा युद्ध में प्रतिपक्षी राज्य को पहुँचाई जाने वाली हानि की एक सीमा होती हे जबकि युद्ध में होने वाली हिंसा तथा क्षति की कोई सीमा नहीं होती।

(2) बाध्यकारी साधनों के प्रयोग से यदि प्रतिपक्षी राज्य मतभेदों को दूर करने के लिए तैयार हो जाता है तो इनका प्रयोग तुरन्त बन्द कर दिया जाता है, लेकिन युद्ध की स्थिति में प्रतिपक्षी राज्य अपने उद्देश्य की पूर्ति के पूर्व युद्ध बन्द नहीं करता।

(3) बाध्यकारी साधनों का प्रयोग मात्र मतभेदों को दूर करने के लिए किया जाता है, जबकि युद्ध में विजेता राज्य प्रतिपक्षी राज्य से मतभेदों को दूर करने के साथ मनचाही शर्तें मनवाता है।

अन्तर्राष्ट्रीय विवादों के समाधान के बाध्यकारी साधन

(1) प्रतिकार या प्रतिकर्म (Retortion) – जब कोई राज्य किसी दूसरे राज्य के प्रति किसी प्रकार का अभद्र और मैत्रीपूर्ण व्यवहार करता है तो वह भी पहले वाले राज्य के साथ प्रतिशोध की दृष्टि से ऐसा ही करता है। जैसा द० अफ्रीका की सरकार ने भारतीयों के प्रति रंग विभेद की नीति अपनाई तो भारत की सरकार ने अपने यहाँ रहने वाले अफ्रीकनों पर अनेक प्रतिबन्ध लगा दिये और वहाँ से अपने हाई कमिश्नर को बुला लिया। इतना ही नहीं भारत सरकार ने दक्षिण अफ्रीका के साथ व्यापारिक सम्बन्धों को भी वर्जित कर दिया।

सन् 1981 में भारत सरकार ने अमेरिकी राजनीतिक सलाहकार के रूप में भी श्री ग्रिफिन की नियुक्ति अस्वीकार कर दी थी। प्रतिकर्म स्वरूप ( In Retortion) अमेरिकी सरकार ने भी अपने देश में स्थित भारतीय राजदूतावास में राजनीतिक सलाहकार के रूप में श्री प्रभाकर मेनन की नियुक्ति को अस्वीकार कर दिया।

ओपेनहाइम के शब्दों में, “प्रतिकर्म प्रतिरोध का ही दूसरा नाम है। इसका प्रयोग एक राज्य के उन अशिष्टतापूर्ण, अकृपालु, अनुचित और अन्यायपूर्ण कार्यों के लिए होता है, जो दूसरे राज्य द्वारा इस प्रकार के कार्य किए जाने पर प्रत्युत्तर के रूप में दिए जाते हैं।”

(2) बलपूर्वक प्रतिकार या प्रत्यपहार (Reprisals)- पहले इस शब्द का प्रयोग सम्पत्ति की जब्ती और व्यक्तियों की गिरफ्तारी के लिए होता था। बावरली के अनुसार, प्रत्यपहार का अर्थ है, “बदले की भावना से सम्पत्ति जब्त करना या व्यक्तियों को पकड़ना।” वर्तमान समय में इसका यह अभिप्राय समझा जाता है कि किसी राज्य के गैर कानूनी या अनौचित्यपूर्ण व्यवहार से उत्पन्न हुए झगड़े के समाधान की दृष्टि से दूसरे राज्य द्वारा अवलम्बन किये गये बल प्रयोग के साधन। इसके अनेक रूप हो सकते हैं- जैसे किसी विशेष राज्य के माल का बहिष्कार, पोतावरोध नौ सैनिक प्रदर्शन, गोलाबारी। स्टार्क के अनुसार, “बलपूर्वक प्रतिकार ऐसे उपाय हैं जो कुछ राज्य अन्य राज्य के विरुद्ध प्रतिकारात्मक कार्यवाहियों के रूप में करते हैं एवं जिनका उद्देश्य उन्हें पहुंचाई गई हानि का निवारण करना होता है।”

लारेंस ने प्रत्यपहार के चार भेद-विधेयात्मक (Positive), निषेधात्मक (Negative), विशेष (Special) और सामान्य (General) किये हैं। विधेयात्मक प्रत्यपहार साहित्यिक अर्थ में प्रतिशोध है। आँख के बदले आँख यही इसका नियम है। निषेधात्मक प्रत्यपहार में अमैत्रीपूर्ण व्यवहार के बदले में दूसरा अमैत्रीपूर्ण व्यवहार किया जाता है, जैसे राज्य का ऋण भुगतान करने से मना कर देना अथवा सन्धि के दायित्व का पालन न करना आदि। विशेष प्रत्यपहार में दूसरे राज्य के किसी कार्य से क्षतिग्रस्त होने वाले विशेष व्यक्तियों को बदला लेने का अधिकार दे दिया जाता है। प्राचीन काल में विशेष प्रत्यपहार का ही प्रचलन था। सामान्य प्रत्यपहार में क्षतिग्रस्त राज्य द्वारा किये जाने वाले ऐसे कार्यों की गणना की जाती है, जो युद्ध के कार्य तो नहीं होते, लेकिन जिनका स्वरूप बहुत कुछ युद्ध से ही मिलता-जुलता होता है। इन कार्यों के सहारे क्षतिग्रस्त राज्य दूसरे राज्य से अपनी क्षतिपूर्ति की माँग करता है। दूसरे राज्य की सम्पत्ति जब्त कर लेना, जहाजों को पकड़ लेना आदि भी इसी प्रकार के कार्य हैं।

इजरायल, प्रत्यपहार के रूप में लेबनान के उन क्षेत्रों पर हवाई आक्रमण करता रहा है, जहाँ से अरब छापामार उसके क्षेत्रों पर आक्रमण करते रहते हैं।

ओपेनहाइम के अनुसार, “प्रत्यपहार एक राज्य के दूसरे राज्य के विरुद्ध, उसे हानि पहुँचाने वाले तथा अन्तर्राष्ट्रीय दृष्टि से ऐसे अवैध कार्य हैं, जिन्हें अपवाद रूप में इस उद्देश्य से करने की अनुमति दी जाती है, जिससे कि दूसरे राज्य को अन्तर्राष्ट्रीय अपराध करने से उत्पन्न हुए मतभेदों का संतोषजनक समाधान स्वीकार करने को विवश किया जा सके।”

संयुक्त राष्ट्र संघ के चार्टर ने दूसरे राज्य के प्रति शक्ति का प्रयोग करके प्रत्यपहार के रूप में किन्हीं कार्यों को करना अवैध बताया है। इसमें कहा गया है कि किसी भी राज्य को ऐसे कार्य नहीं करने चाहिये जिनसे दूसरे राज्यों की प्रादेशिक अखण्डता अथवा राजनीतिक स्वतन्त्रता पर बुरा असर पड़ता है। संयुक्त राष्ट्र संघ के चार्टर की तो यही भावना है कि राज्यों को अपने सभी विवाद शान्तिपूर्ण ढंग से ही सुलझाने चाहिए।

(3) वैमनस्यपूर्ण अधिरोध (Hostile Embargo) – कभी-कभी क्षतिग्रस्त राज्य क्षति पहुँचाने वाले राज्यों से उसकी पूर्ति कराने के लिए उसके जहाजों अथवा सम्पत्ति को अपने बन्दरगाहों में रोक लेता है। इस कार्य को वैमनस्यपूर्ण अधिरोध कहते हैं। यह शान्तिपूर्ण अधिरोध से भिन्न होता है क्योंकि शान्तिपूर्ण अधिरोध राज्य अपने ही बन्दरगाहों में अपने ही जहाजों पर लगाता है।

सन् 1971 के भारत-पाक युद्ध में कई विदेशी राज्यों के ऐसे जहाजों पर अधिरोध लगा दिया गया था, जिनका लक्ष्य पाकिस्तान जाना था।

(4) शान्तिपूर्ण नाकाबन्दी (Pacific Blockade) – शान्ति के समय किसी राज्य से अपनी क्षति की पूर्ति के लिए दबाव डालने के साधन के रूप में शान्तिमय आवेष्ठन का प्रयोग होता है। इसके अन्तर्गत क्षतिग्रस्त राज्य के जहाज क्षति पहुँचाने वाले राज्यों के तटों को घेर लेते हैं, जिससे उसका दूसरे राज्यों से व्यापारिक सम्बन्ध समाप्त हो जाता है। इस तरह के दबाव डालकर राज्य से क्षतिपूर्ति कराने का प्रयास किया जाता है। शान्तिमय आवेष्ठन का प्रयोग दो रूपों में किया जाता है-एक तो क्षतिपूर्ति कराने के लिए प्रत्यपहार के रूप में। इस रूप में यह युद्ध के पहले की दशा (Short of war) होता है और दूसरे एक अन्तर्राष्ट्रीय पुलिस के रूप में।

शान्तिपूर्ण नाकेबन्दी के उदाहरण के रूप में 1962 में अमेरिका द्वारा क्यूबा की नाकाबन्दी करने को उद्धृत किया जा सकता है।

(5) हस्तक्षेप (Intervention)- जब दो राज्यों के मध्य विवाद में कोई तीसरा राज्य मध्यस्थता करता है तो उसे हस्तक्षेप कहते हैं। ओपेनहाइम के अनुसार, हस्तक्षेप दो राज्यों के विवाद में तीसरे राज्य द्वारा ऐसा अधिनायकवादी हस्तक्षेप है, जिसका उद्देश्य यह है कि इस विवाद का समाधान मेरी इच्छा के अनुसार हो।” मुनरो सिद्धान्त (Munroe Doctrine) हस्तक्षेप का सुन्दर उदाहरण है। इस सिद्धान्त के अनुसार, संयुक्त राष्ट्र अमेरिका ने दक्षिणी अमेरिका के राज्यों के सम्बन्ध में अनेक बार हस्तक्षेप किया है।

(6) सं०रा० संघ के चार्टर में उल्लिखित बाध्यकारी साधन (Compulsive Means Under U.NO. Charter) – सं०रा० संघ के चार्टर के अनुच्छेद 2 (3) में यह प्रावधान किया गया है कि इसके सदस्य राष्ट्र अन्तर्राष्ट्रीय विवादों का निपटारा इस प्रकार शान्तिपूर्ण ढंग से करें कि उससे विश्व की शान्ति, सुरक्षा तथा व्यवस्था नष्ट न हो। सं० रा० संघ के चार्टर के अनुसार बाध्यकारी साधन तभी तक वैध हैं, जब तक उनसे अन्तर्राष्ट्रीय सुरक्षा तथा शान्ति को कोई भय न हो। सं०रा० संघ के चार्टर के अनुसार बाध्यकारी साधन निम्न प्रकार हैं-

(अ) चार्टर के अनुच्छेद 39 के अनुसार सुरक्षा परिषद् शान्ति एवं सुरक्षा से सम्बन्धित खतरों तथा आक्रमणकारी का पता लगायेगी।

(ब) चार्टर के अनुच्छेद 40 व 41 के अनुसार सुरक्षा परिषद् आक्रमणकारी के विरुद्ध आर्थिक प्रतिबन्ध लगा सकती है तथा कूटनीतिक सम्बन्धों को तोड़ने की सिफारिश कर सकती है। 1990-91 के खाड़ी युद्ध में सुरक्षा परिषद् ने इराक के विरुद्ध इन उपायों का सहारा लिया था।

(स) चार्टर के अनुच्छेद 42 के अनुसार उपर्युक्त तरीकों के असफल होने पर सुरक्षा परिषद सैन्य शक्ति का इस्तेमाल भी कर सकती है।

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Anjali Yadav

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