शरण या आश्रय के विभिन्न प्रकारों का वर्णन करते हुये उसमें अन्तर स्पष्ट कीजिए।
शरण अथवा आश्रय को दो भागों में विभक्त कर सकते हैं-
- पहला राज्यक्षेत्रीय आश्रय या शरण (Territorial Asylum)
- दूसरा बाह्य राज्यक्षेत्रीय आश्रय (Extra Territorial Asylum )
कोलम्बियन-पेरुवियन आश्रयवाद (1950) में अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय ने कहा था कि राज्यक्षेत्रीय आश्रय में शरणार्थी शरण देने वाले राज्य के क्षेत्र के भीतर होता है तथा उसके प्रत्यर्पण के सम्बन्ध में केवल क्षेत्रीय प्रभुत्वसम्पन्नता का प्रयोग होता है। बाह्य राज्यक्षेत्रीय या राजनीतिक आश्रय में शरणर्थी उस देश में रहता है जहाँ उसने अपराध किया है तथा उसे आश्रय देने से सम्बन्धित राज्य की प्रभुत्वसम्पन्नता के ऊपर विपरीत प्रभाव पड़ता है। क्योंकि उसके द्वारा अपराधी को उस राज्य की अधिकारिता से बाहर किया जाता है तथा उस राज्य की क्षमता के विषय में हस्तक्षेप होता है। जब तक कि वह वाद-विशेष में इसके विधिक आधार को स्थापित नहीं किया जाता, इस प्रकार के आश्रय को मान्यता नहीं दी जा सकती। स्टार्क ने भी मत प्रकट किया है।
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राज्यक्षेत्रीय आश्रय (Territorial Asylum)
जब कोई राज्य किसी दूसरे राज्य के निवासी को अपने राज्य के अन्दर शरण देता है तो उसे प्रादेशिक शरण या आश्रय कहते हैं। बहुत प्राचीन समय से यह स्वीकार किया जाता है कि राज्य प्रादेशिक आश्रय देने के मामले में स्वतन्त्र होता है तथा यह आश्रय अपराधियों के अतिरिक्त राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक शरणार्थियों को भी दिया जा सकता हैं। परन्तु इस बात में मतभेद है कि कोई राज्य पकड़े हुये युद्ध बन्दियों को जो अपने राज्य वापस नहीं जाना चाहते हैं, आश्रय दे सकता है अथवा नहीं? जैसा कि पहले स्पष्ट किया जा चुका है कि किसी पीड़ित व्यक्ति को अन्तर्राष्ट्रीय विधि यह अधिकार नहीं प्रदान करती है कि जब वह आश्रय मांगे तो अवश्य मिले और न ही इस विषय में राष्ट्रों का कोई सामान्य उत्तरदायित्व है। परन्तु इस विषय में यह उल्लेखनीय है कि इस सम्बन्ध में संयुक्त राष्ट्र महासभा ने 14 दिसम्बर, 1967 के अपने प्रस्ताव में कहा कि अभ्यास में राज्यों को निम्नलिखित बातें माननी चाहिए-
(i) कोई व्यक्ति जब आश्रय माँगे तो उसे अस्वीकार नहीं किया जाना चाहिए अथवा वह जब आश्रय देने वाले राज्य के क्षेत्र में प्रवेश कर लेता है तो उसे निष्कासित नहीं किया जाना चाहिए। परन्तु राष्ट्रीय सुरक्षा के आधार पर या अपनी जनता की सुरक्षा के आधार पर या जब बड़ी संख्या में लोग आश्रय की प्रार्थना करें तो आश्रय की प्रार्थना को अस्वीकार किया जा सकता है।
(ii) यदि कोई राज्य आश्रय देने में कठिनाई महसूस करता है तो व्यक्तिगत राज्य या संयुक्त राष्ट्र के माध्यम से अन्तर्राष्ट्रीय एकता के भाव से उचित उपाय पर विचार करें।
(iii) जब कोई राज्य पीड़ित व्यक्तियों को आश्रय दे तो अन्य राष्ट्र को उनका सम्मान करना चाहिए। राज्य अन्य राज्यों के व्यक्तियों को आश्रय देने में स्वतन्त्र हैं, परन्तु इस स्वतन्त्रता को सन्धि द्वारा नियन्त्रित तथा सीमित किया जा सकता है।
शरणार्थियों का अन्तर्राष्ट्रीय संरक्षण
शरणार्थियों से सम्बन्धित प्रमुख अभिसमय या संधियाँ शरणार्थियों की प्रास्थिति पर 1951 का संयुक्त राष्ट्र अभिसमय तथा इसका 1967 का प्रोटोकाल है। इसके अलावा 1 जनवरी 1961 को शरणार्थियों के संयुक्त राष्ट्र कमिश्नर (UNHCR) की स्थापना शरणार्थियों को विधिक संरक्षण तथा सामान आदि की सहायता देने हेतु की गयी थी। शरणार्थियों पर 1951 के संयुक्त राष्ट्र अभिसमय के अनुच्छेद 31 में प्रावधान है कि यदि किसी देश में व्यक्तियों पर अत्याचार या उत्पीड़न हो रहा है तथा दूसरे देश में शरणार्थी के रूप में अवैध रूप से प्रवेश करते हैं और यदि वह बिना विलम्ब के अपने आपको प्राधिकारियों के समक्ष प्रस्तुत कर देते हैं तो इन्हें दण्डित नहीं किया जाना चाहिए। अभिसमय के अनुच्छेद 2 के अनुसार जिस देश में शरणार्थी प्रवेश करते हैं उन्हें वहाँ की विधि एवं नियमों का आदर करना चाहिए तथा उन्हें कोई ऐसा कार्य नहीं करना चाहिए जो उनके शरणार्थियों की प्रास्थिति के अनूकूल न हों।
दलाई लामा तथा उनके अनुयायियों का उदाहरण
दलाईलामा ने जब चीन की उत्पीड़न नीतियों से त्रस्त होकर भारत से राजनीतिक आश्रय का निवेदन किया तब भारत ने अपनी क्षेत्रीय प्रभुत्वसम्पन्नता का प्रयोग करते हुए दलाई लामा तथा उनके अनुयायियों को आश्रय प्रदान किया। चीन ने भारत के इस कार्य की आलोचना की तथा कहा कि यह उसके आन्तरिक मामले में हस्तक्षेप है। परन्तु वास्तविकता यह है कि भारत ने अपनी क्षेत्रीय प्रभुसम्पन्नता का प्रयोग किया तथा अपने क्षेत्र के भीतर भारत को पूर्ण स्वतन्त्रता थी कि वह आश्रय प्रदान करे अथवा नहीं। अन्तर्राष्ट्रीय विधि के अनुसार, इस कार्य को चीन के आन्तरिक मामलों में हस्तक्षेप नहीं कहा जा सकता है। प्रसिद्ध विधिशास्त्री हाल (Hall) ने भी लिखा है कि बिना दूसरे राज्यों की इच्छा की परवाह करते हुए प्रत्येक राज्य पूर्ण स्वतन्त्र है कि वह अपने क्षेत्र के भीतर जो चाहे करे; तथा यदि उसके कार्य से प्रत्यक्ष रूप से अन्य राज्यों को क्षति नहीं पहुँचती है तो उसे शरणार्थियों को आश्रय देने का अधिकार है। इस बात से कोई अन्तर नहीं पड़ता है कि शरणर्थी राजनीतिक अपराधी है अथवा साधारण अपराधी या उसने अन्तर्राष्ट्रीय विधि का उल्लंघन किया है।
बाह्य-राज्यक्षेत्रीय आश्रय (Extra-territorial Asylum)
बाह्य राज्यक्षेत्रीय आश्रय या शरण उस स्थिति को कहा जाता है जब राज्य अपने राज्यक्षेत्र से बाहर आश्रय प्रदान करता है। आधुनिक अन्तर्राष्ट्रीय विधि राज्यों को बाह्य-राज्यक्षेत्रीय आश्रय प्रदान करने के अधिकार को मान्यता नहीं देता है। बाह्य राज्यक्षेत्रीय आश्रय केवल अपवाद के रूप में या विशेष परिस्थितियों में ही दिया जा सकता है। बाह्य राज्यक्षेत्रीय आश्रय को निम्नलिखित भागों में विभाजित किया जा सकता है-
(1) विदेशी दूतावास में शरण – किसी दूतावास के प्रधान द्वारा आश्रय देने के सामान्य अधिकारों को अन्तर्राष्ट्रीय विधि मान्यता प्रदान नहीं करती है। इसका स्पष्ट कारण यह है कि इससे सम्बन्धित राज्य (वह राज्य जहाँ दूतावास स्थित है) की क्षेत्रीय प्रभुसम्पन्नता पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। इसके अन्तर्गत अभियुक्त को क्षेत्रीय राज्य की अधिकारिता से हटाया जाता है जो राज्य की क्षमता वाले हस्तक्षेप हैं। क्षेत्रीय प्रभुसम्पन्नता के ऐसे अल्पीकरण या अनादर को सामान्यतया स्वीकार नहीं किया जा सकता। किसी विशिष्ट वाद या मामले में इसे तभी स्वीकार किया जा सकता है जबकि इसके लिए विधि आधार को स्थापित किया जाय। यह विचार अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय ने एसाइलम (कोलम्बिया बनाम पेरू) वाद (The Asylum case Columbia Vs. Peru) में व्यक्त किये थे।
(2) वाणिज्य-दूतावास में शरण – वाणिज्य दूतावास के सम्बन्ध में भी उपर्युक्त सिद्धान्त लागू होते हैं।
(3) अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाओं के कार्यालय में शरण – संयुक्त राष्ट्र तथा विशिष्ट एजेंन्सियों के मुख्यालय करारों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाओं को अपने कार्यालय में आश्रय देने के विषय में कोई सामान्य अधिकार प्राप्त नहीं है। परन्तु जैसा कि स्टार्क ने लिखा है कि भीड़ से खतरा उत्पन्न होने की दशा में ये संस्थाएँ भी आश्रय प्रदान कर सकती हैं।
(4) युद्धपोतों में शरण- कुछ लेखकों का मत है कि वह व्यक्ति जो न्यायिक नहीं है तथा स्थल में अपराध करने के पश्चात् किसी युद्धपोत में आश्रय प्राप्त कर लेता है, न तो स्थानीय अधिकारियों द्वारा गिरफ्तार किये जा सकते हैं और न जहाज से हटाये जा सकते हैं। जहाज के कप्तान की सहमति से ही उन्हें गिरफ्तार किया जा सकता है। दूसरी ओर कुछ लेखकों का मत है कि ऐसे व्यक्तियों को स्थानीय पुलिस को सौंप दिया जाना चाहिए, परन्तु मानवीय आधारों पर यदि ऐसे जीवन को खतरा है तो उन्हें राजनीतिक शरण दी जा सकती है। इस विषय में फेन्विक ने लिखा है, “जबकि साधारण अपराधियों को अब आश्रय नहीं दिया जाता है, बहुधा राजनीतिक शरणार्थियों को अब भी आश्रय दिया जाता है।”
(5) व्यापारिक जहाजों पर शरण – व्यापारिक जहाजों को स्थानीय क्षेत्राधिकार से उन्मुक्ति प्राप्त नहीं होती है, अत: उन्हें स्थानीय अधिकारियों को आश्रय देने का अधिकार नहीं है। उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि शरण देने के विभिन्न तरीके हैं। यह सम्बन्धित राज्य पर निर्भर करता है कि वह किस प्रकार से शरण प्रदान करता है। अन्तर्राष्ट्रीय विधि में राज्य इस विषय पर समयानुकूल नीति का अनुपालन करते रहे हैं।
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