शिक्षा एवं संस्कृति का अर्थ बताइये। शैक्षिक एवं सांस्कृतिक मूल्यों में समता स्थापित करते हुए उसकी उपयोगिता बताइये।
प्रायः शिक्षक, विद्यालय व्यवस्थापक, अभिभावक, राजनीतिज्ञ एवं शिक्षा के दिशा निर्देशक, शिक्षामंत्री आदि सभी से यह कहते हुये सुना जाता है कि वर्तमान में ही नहीं, बल्कि अति प्राचीन काल से ‘शिक्षा’ शब्द का प्रयोग किसी न किसी अर्थ में होता चला आया है। इस तथ्य को स्पष्ट करने के लिये कुछ विद्वानों के विचारों को उल्लिखित किया गया है, यथा-
प्लेटो– “शिक्षा से मेरा अभिप्राय उस प्रशिक्षण से है जो अच्छी आदतों के द्वारा बच्चों में अच्छी नैतिकता का विकास करती है।”
अरस्तू – “शिक्षा स्वस्थ शरीर में स्वस्थ मस्तिष्क का निर्माण करती है। “
यहाँ पर शिक्षा की चर्चा करते-करते प्रश्न यह उठता है कि ‘शिक्षा’ शब्द का आविर्भाव पहले हुआ या संस्कृति का? किसी विद्वान ने लिखा है कि संस्कृति की निरन्तरता के लिये शिक्षा एक अतिआवश्यक स्थिति है, परिस्थिति है या माध्यम है। यह सांस्कृतिक स्वरूपों के साथ बौद्धिकता पूर्वक समरसता बनाये रखने की एक प्रक्रिया भी है। प्रायः अध्ययनों से ऐसा ज्ञात होता है कि प्रत्येक बालक का जन्म दोहरी विरासत के साथ होता है जो जैवकीय एवं सांस्कृतिक विरासत के रूप में जानी जाती है। जैवकीय विरासत से बच्चे को अपनी शारीरिक विशेषताएँ मानसिक क्षमता तथा आधारभूत आवश्यकताएँ प्राप्त होती हैं। इसी प्रकार उसे सांस्कृतिक विरासत में, सम्बन्धित समाज से कुछ विद्यायें प्राप्त होती हैं जो जीवन पर्यन्त बालक को समाज के अनुकूल बनने, पोषितर करने एवं उन्नति करने की ओर प्रेरित करत रहती हैं। बालक की शिक्षा में उसकी सांस्कृतिक विरासत का उतना ही महत्वपूर्ण स्थान होता है जितना कि उसकी जैवकीय विरासत का। इस तथ्य पर प्रकाश डालते हुये डी.जे.ए. बेरको ने लिखा है कि- “यद्यपि समाजशास्त्रियों की खोजों ने सिद्ध कर दिया है कि संस्कृति जन्मजात न होकर सीखी जाती हैं, फिर भी इसके सीखने को इतना अधिक महत्व दिया जाता हैं कि इसकी अवहेलना नहीं की जा सकती हैं।”
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संस्कृति का अर्थ एवं परिभाषा
शिक्षाशास्त्रियों, समाजशास्त्रियों एवं अन्य विद्वानों का मत है कि मानव एक सामाजिक प्राणी है। वह समाज से पृथक नहीं रह सकता है। अतः अपने समाज के अस्तित्व को बनाये रखने के लिये वह उसे पूर्ण रूप से संगठित करता है और एक निश्चित व्यवस्था को विकसित तथा स्थापित करता है। इसी निश्चित और सम्पूर्ण व्यवस्था को ‘संस्कृति’ कहते हैं। प्रायः इस संस्कृति के अन्तर्गत, उस समाज के जिसमें मानव रहता है, रीति-रिवाज, परम्पराएँ, उपकरण, यन्त्र, मशीनें, नैतिकता, कला, विज्ञान, धर्म, विश्वास, आस्था, सामाजिक संगठन, आर्थिक एवं राजनैतिक व्यवस्था आदि सभी का समावेश माना जाता है। सामान्य एवं सरल अर्थों में संस्कृति का अर्थ है- किसी भी समाज में मानव के रहने का ढंग (अर्थात् Way of human living) इस प्रकार संस्कृति के अर्थ को सष्ट करते हुये कुछ विद्वानों ने संस्कृति की परिभाषाएँ निम्न प्रकार से दी हैं-
(1) “संस्कृति वह जटिल पूर्णता हैं, जिसमें ज्ञान, विश्वास, कला, नैतिकता, रीति रिवाज, नियम और समाज के सदस्य के रूप में मनुष्य द्वारा अर्जित की जाने वाली अन्य योग्यताएँ तथा आदतें सम्मिलित रहती हैं। -टायलर
(2) “किसी विशेष समय और स्थान में निवास करने वाले विशेष व्यक्तियों के जीवन व्यतीत करने की सामूहिक विधि है।” -रोसेक
(3) “सामान्यतः ‘संस्कृति’ और ‘सामाजिक विरासत’ एक-दूसरे के पर्यायवाची हैं। – डॉ० सीमा मिश्रा
सांस्कृतिक एवं शैक्षिक मूल्य (Cultural and Educational Values)
जीवन मूल्य का शाब्दिक अर्थ “महत्व, योग्यता, उपयोगिता, श्रेष्ठता अथवा कीमत” आदि है। वस्तुतः किसी व्यक्ति का वह गुण जो उस व्यक्ति या वस्तु को महत्वपूर्ण या उपयोगी बनाता है, वह मूल्य ही कहलाता है। मूल्य वस्तुतः व्यक्ति के दृष्टिकोण पर आश्रित होता है। यदि किसी व्यक्ति को कोई वस्तु उपयोगी लगती है, उस वस्तु में उस व्यक्ति की रुचि है तो वह उसके लिये मूल्यवान है। यदि किसी को वह वस्तु अच्छी नहीं लगती तो वह वस्तु उसके लिये मूल्य रहित है। अतएव मूल्य व्यक्ति के दृष्टिकोण एवं रुचि पर आश्रित होता है।
शैक्षिक मूल्य का अर्थ- जो क्रियायें शिक्षा के क्षेत्र में उपयोगी होती हैं उनका निश्चित रूप से कुछ न कुछ मूल्य होता है। शिक्षा प्रक्रिया में पाठ्यक्रम का चयन, शिक्षण विधि का प्रयोग, अनुशासन पालन के नियम आदि क्रियाओं को इसीलिये किया जाता है, क्योंकि इनकी उपयोगिता होती है। बालक की शिक्षा में इनका कुछ मूल्य होता है। शिक्षक और शिक्षार्थी दोनों मिलकर उपयोगिता की दृष्टि से जिन कार्यों को करते हैं, वास्तव में वे ‘शैक्षिक मूल्य’ ही होते हैं। कतिपय शिक्षा शास्त्रियों के अनुसार तो शिक्षा के उद्देश्य ही ‘शैक्षिक मूल्य’ होते हैं। इसी सम्बन्ध में ब्रूवेकर का कथन इस प्रकार है-
“शिक्षा के उद्देश्यों को निर्धारित करना शैक्षिक मूल्यों को निर्धारित करना है।”
बूवेकर के अनुसार शैक्षिक उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिये व्यक्ति को गुण एवं उपयोगिता को प्राप्त करना होता है। वस्तुतः शैक्षिक मूल्य शिक्षा की उस एकता, उपयोगिता एवं शिक्षार्थी को आत्मसाक्षात्कार तथा वांछित विकास के लिये अध्ययन कार्य में लगे रहने की प्रेरणा देते हैं। शैक्षिक मूल्यों की उपयोगिता और उसके प्रति सम्मान भावना व्यक्ति की रुचि पर निर्भर है। इसीलिये कुछ विचारक शैक्षिक मूल्यों को आत्मनिष्ठ भी मानते हैं। शिक्षा के पाठ्यक्रम, शिक्षण विधि आदि को उतम समझना व्यक्ति विशेष के दृष्टिकोण पर अवलम्बित है। जो व्यक्ति इन्हें जितनी उत्तम दृष्टि से देखता है, इसके लिये वे उतने ही मूल्यवान हैं। इसी आधार पर शैक्षिक मूल्यों को आत्मनिष्ठ कहा जाता है। इसके विपरीत कुछ विद्वान शैक्षिक मूल्यों को वस्तुनिष्ठ मानते हैं। उनका कथन है कि किसी वस्तु या व्यक्ति के मूल्य को कोई व्यक्ति माने या न माने, उसमें यदि कोई विशेष गुण विद्यमान है तो वह उसका मूल्य ही है। वस्तु का गुण, महत्व या मूल्य वस्तुतः सामाजिक वातावरण पर आश्रित होता है। व्यक्ति की रुचियाँ उसका वैयक्तित्व दृष्टिकोण उस वस्तु के मूल्य को समाप्त नहीं कर सकता। वैयक्तिक दृष्टिकोण शैक्षिक मूल्यों के महत्व में वृद्धि अवश्य करता है किन्तु उसे पूर्ण तथा समाप्त नहीं कर सकता है। कहा जा सकता है कि शैक्षिक मूल्यों के लिये बाह्य वातावरण तथा वैयक्तिक अभिरुचि दोनों का महत्व होता है।
मूल्यों के प्रकार
ब्रूवेकर के द्वारा सांस्कृतिक एवं शैक्षिक मूल्यों का वर्गीकरण इस प्रकार किया गया है जिसे निम्न तालिका में दिखाया जा रहा है-
उपर्युक्त मूल्यों का परिचय इस प्रकार दिया जा सकता है—
(1) तात्कालिक मूल्य- जो मूल्य हमारी इच्छाओं तथा आवश्यकताओं की पूर्ति करते हैं उन्हें तात्कालिक मूल्य कहते हैं। इन मूल्यों का सम्बन्ध हमारी इच्छा से होता है। ये मूल्य केवल उन्हीं वस्तुओं से प्राप्त होते हैं जिससे हमारा सम्बन्ध होता है। इन मूल्यों की प्राप्ति का तात्पर्य इच्छाओं की तृप्ति या सन्तुष्टि होती है। उदाहरण के तौर पर एक खिलाड़ी व्यक्ति की तृप्ति खेलों के देखने से ही होगी। इसी प्रकार चित्रकला के प्रति रुचि रखने वाला छात्र चित्र प्रदर्शनी देखने, चित्र बनाने तथा उसमें रंग भरने को तत्काल तृप्त कर देते हैं, इसीलिये उन्हें तात्कालिक मूल्य कहते हैं।
( 2 ) इच्छित या मध्यस्थ मूल्य- व्यक्ति की अथवा बालक की इच्छायें अनेक होती हैं। विद्यालय में भी अनेक क्रियायें होती हैं, विभिन्न पाठ्यक्रम होते हैं। अनिवार्य तथा वैकल्पिक विषय भी अनेक होते हैं। बालक इन सभी को प्राप्त करने में असमर्थ होता है। इन क्रियाओं में से उसे चयन करना पड़ता है। छात्र सभी विषयों में से केवल महत्वपूर्ण विषयों को छाँट लेता है। छाँटे हुये विषयों में वह बाह्य रूप में ग्रहण किया जाता है। धर्म का यह कार्य पूरी तरह तभी हो सकता है जबकि वह शिक्षा की गतिशीलता तथा विचारों में वृद्धि करते हैं। इसे स्कूल के हर कार्य में पिरो देना चाहिए।
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