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क्रियात्मक विकास के महत्व एंव सीमायें | Importance and Limitations of Functional Development in Hindi

क्रियात्मक विकास के महत्व एंव सीमायें | Importance and Limitations of Functional Development in Hindi
क्रियात्मक विकास के महत्व एंव सीमायें | Importance and Limitations of Functional Development in Hindi

 क्रियात्मक विकास के महत्व 

क्रियात्मक विकास का प्रमुख महत्व निम्न है :

1. अच्छा उत्तम या स्वास्थ्य – बालक का क्रियात्मक विकास जितना अच्छा होगा, बालक में उतनी ही अधिक क्रियाशीलता भी होगी। अधिक क्रियाशीलता अच्छे स्वास्थ्य की परिचायक होती है। अच्छे शारीरिक स्वास्थ्य वाले मानसिक रूप से भी स्वस्थ और प्रसन्न रहते हैं। यदि बच्चे में क्रियात्मक योग्यताओं का विकास उपयुक्त मात्रा में नहीं होता, तो उसके खेल में साथी समूह के बच्चे कम पसन्द करते हैं। अपने साथ खिलाना या खेलना पसन्द न करने के कारण बालक को समूह से कोई विशेष सन्तुष्टि प्राप्त नहीं होती है। अतः स्पष्ट है बालक का शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य बहुत कुछ बालक की क्रियात्मक योग्यताओं और कौशलों के विकास पर ही निर्भर करता है।

2. अवांछित संवेगों को बाहर निकालना – अधिक क्रियाशीलता के कारण बालक में संचित शक्ति व्यय हो जाती है। संचित शक्ति व्यय होने के साथ-साथ उसमें संचित अवांछित संवेग और चिन्तायें भी निकल जाती हैं। प्रायः देखा गया है कि शारीरिक और मानसिक रूप से स्वस्थ बालक जब अपने साथियों में खेलता है, तो उसकी अवांछित चिन्तायें और संवेग अभिव्यक्त होकर निकल जाते हैं। इसी के फलस्वरूप वह इस प्रकार के कष्टदायक संवेगों और चिन्ताओं से मुक्त हो जाता है।

3. समाजीकरण – अच्छा समाजीकरण बालकों के अच्छे क्रियात्मक विकास पर निर्भर करता है। विभिन्न अध्ययनों में देखा गया है कि सामाजिक कौशलों को सीखने के अवसर प्रायः उन्हीं बच्चों को मिल पाते हैं जिनका क्रियात्मक विकास अच्छा होता है, यथा यदि एक बालक गेंद तीव्रता से नहीं खेल सकता है, तो उसके खेल के साथी उसका तिरस्कार करेंगे, उसका मजाक बनायेंगे, उसे अपने से छोटे बच्चों के साथ खेलना पड़ेगा, परन्तु वहां भी उसका मजाक और तिरस्कार हो सकता है। इस अवस्था मे बच्चा दूसरे अन्य बच्चों के साथ घुल मिल नहीं पाता, और इस प्रकार वह सामाजिक मूल्यों और सामाजिक कौशलों को सीखने से वंचित रह जाता है। इस प्रकार के वंचन से उसका समाजीकरण भी अपूर्ण रह जाता है। जो बच्चे खेलने, दौड़ने, कूदने आदि में होशियार होते हैं, उनके ही मित्र अधिक होते हैं। एक बालक के जितने ही मित्र अधिक होते हैं, उसका समाजीकरण उतना ही अच्छा और अधिक तीव्र गति से संपन्न होता है।

4. आत्म-आनन्द- जब बालक की क्रियात्मक योग्यताओं और कौशलों का विकास अच्छा होता है, तब वह अनेक ऐसी क्रियायें या कौशलों का अभ्यास करता है, जिनसे उसे आनन्द की प्राप्ति होती है। इसके अतिरिक्त वह अपने कौशलों के कारण अपने मित्रों में लोकप्रिय हो सकता है तथा उनमें अपने कौशलों की अभिव्यक्ति कर आत्म सन्तुष्टि और आनन्द की प्राप्ति करता है।

5. आत्म-निर्भरता – जन्म के समय बालक पूर्णतया असहाय होता है, अर्थात वह पूर्णतः दूसरों पर आश्रित होता है। क्रियात्मक योग्यताओं और कौशलों के विकास के साथ-साथ धीमे-धीमें आत्म-निर्भर होता जाता है। धीरे-धीरे वह उठने-बैठने व चलने-फिरने लग जाता है, अपने हाथों से खाने-पीने कपड़े पहिनने और नहाने आदि लग जाता है।

6. आत्म-प्रत्यय- जब बालक में अच्छी क्रियात्मक योग्यताओं और कौशलों का विकास होता है, तब उसमें उपयुक्त मात्रा में शारीरिक तथा मनोवैज्ञानिक सुरक्षा की भावना की जाग्रत होती है। फलस्वरूप उसमें पर्याप्त मात्रा में आत्म-विश्वास की भावना उत्पन्न होती है। इस अवस्था में बालक में धनात्मक आत्म-प्रत्यय का निर्माण होता है।

7. व्यक्तित्व में महत्वपूर्ण योगदान- बालक की क्रियात्मक योग्यताओं और कौशलों का विकास बालक के व्यक्तित्व को महत्वपूर्ण ढंग से प्रभावित करता है। अच्छे क्रियात्मक विकास की अवस्था में बालक का परिवार, खेल के साथियों और विद्यालय, आदि सभी क्षेत्रों में समायोजन अच्छा रहता है। अच्छे समायोजन की अवस्था में बालक के व्यक्तित्व का विकास भी अच्छा होता है।

क्रियात्मक विकास की सीमायें

 बालक को स्वयं उसकी क्रियात्मक योग्यताओं के विकास और कौशलों के विकास से कुछ हानियाँ भी हो सकती है। बालक को अपनी ही क्रियात्मक योग्यताओं के विकास से हानियाँ उस समय उठानी पड़ सकती हैं, जब उसमें क्रियात्मक योग्यताओं का विकास एक सीमा से अधिक हुआ हो; परन्तु इस प्रकार की हानियां केवल छह सात वर्ष की अवस्था तक ही अधिक होती एक निश्चित आयु- विशेष में एक निश्चित मात्रा में ही क्रियात्मक विकास बालक के लिए हर प्रकार से लाभप्रद रहता है, उदाहरणार्थ – एक बालक जो अपनी आयु को देखते हुए बहुत अधिक क्रियाशील है। प्रायः ऐसा बालक कुछ-न-कुछ दुर्घटनायें कर बैठता है। इन दुर्घटनाओं में वह अपनी ही प्रायः हानि नहीं करता, बल्कि वह परिवार की कुछ मूल्यवान चीजों की भी हानि कर बैठता है, वह अपने हाथ- पैरों आदि में चोट लगा सकता है और अपनी हरकतों से घर की चीजों को तोड़-फोड़ सकता है। अति क्रियात्मक विकास की एक अन्य हानि यह भी है कि जब बच्चों को अधिक क्रियाशीलता के कारण अधिक चोटें लगती हैं, हाथ-पैर टूटते है या घर की वस्तुओं को नुकसान पहुचता है, तो माता-पिता के लिए इस प्रकार के बालक एक समस्या बन जाते हैं। कई बार इन समस्यात्मक बच्चों के प्रति माता-पिता और परिवारीजनों की ऋणात्मक अभिवृत्तियाँ हो जाती हैं। संरक्षकों की ऋणात्मक अभिवृत्तियाँ बालक की प्रसन्नताओं को कम कर देती है, उसके आत्म-प्रत्यय और व्यक्ति के विकास में असामान्यतायें उत्पन्न होने लगती हैं। बालक की स्वतंत्रता को भी माता- पिता की ऋणात्मक अभिवृत्तियाँ महत्वपूर्ण ढंग से प्रभावित करती है।

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Anjali Yadav

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