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संज्ञानात्मक विकास से क्या तात्पर्य है? इसे प्रभावित करने वाले कारक

संज्ञानात्मक विकास से क्या तात्पर्य है? इसे प्रभावित करने वाले कारक
संज्ञानात्मक विकास से क्या तात्पर्य है? इसे प्रभावित करने वाले कारक

संज्ञानात्मक विकास से क्या तात्पर्य है?

आधुनिक गृह विज्ञान तथा मनोविज्ञान में संज्ञान के सम्प्रत्यय का प्रयोग व्यापक संदर्भ में किया गया है। लम्बे समय तक मनोविज्ञान संज्ञान को बालक की एक जन्मजात विशेषता मानते रहे, जिसके फलस्वरूप संज्ञानात्मक अनुभव की विशेषताओं की वैज्ञानिक खोज नहीं की जा सकी। व्यवहारवादी विचारों ने इसके अस्तित्व को ही नहीं स्वीकारा किन्तु संज्ञानवादी मनोवैज्ञानिकों ने व्यक्ति के चिन्तन, तर्क, प्रत्यक्षीकरण एवं समस्या समाधान जैसी प्रक्रियाओं का विस्तृत विश्लेषण किया और उन मानसिक तत्त्वों को ढूँढ़ निकाला, जो व्यक्ति के व्यवहार को निर्देशित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। संज्ञानवादी मनोवैज्ञानिकों ने संज्ञान की सूचनाओं के क्रियान्वयन की एक विधि माना है अर्थात् जब व्यक्ति वातावरण के तत्त्वों का प्रत्यक्षीकरण करता है, प्रतीकों की सहायता से उन्हें समझने की कोशिश करता है तथा उनके संदर्भ में अमूर्त चिन्तन करता है तो उक्त सभी प्रक्रियाओं से मिलकर उसके भीतर एक ज्ञान भण्डार अथवा संज्ञानात्मक संरचना का निर्माण होता है। यही संरचना उसके व्यवहार को निर्देशित करती है। कोई व्यक्ति वातावरण में उद्दीपकों द्वारा प्रभावित होकर सीधे प्रतिक्रिया नहीं करता, पहले वह उन उद्दीपकों को ग्रहण करता है तथा उनकी व्याख्या करता है। इस व्याख्या के परिणामस्वरूप बाह्य उद्दीपक व्यक्ति की संज्ञानात्मक संरचना में अव्यवस्थित हो जाते हैं। इस प्रकार व्यक्ति के भीतर विकसित संज्ञानात्मक संरचना परिवेशीय उद्दीपकों और व्यवहार के बीच मध्यस्थता का कार्य करती है।

स्टॉट ने संज्ञानात्मक संरचना को परिभाषित करते हुए कहा है, “संज्ञानात्मक क्षमता बाह्य वातावरण में विचारपूर्वक प्रभावपूर्ण ढंग से तथा सुविधा के साथ कार्य करने की क्षमता है।”

अतः संज्ञानात्मक प्रक्रियाओं का विकास शिशु में जन्म के बाद ही प्रारम्भ हो जाता है और विकासक्रम में बालक इन्हीं प्रक्रियाओं की सहायता से वातावरण की विशेषताओं को समझने में सक्षम हो पाता है संज्ञानात्मक प्रक्रियाओं में अमूर्तीकरण, अन्तरण, प्रत्यक्षीकरण, व्याख्या तथा प्रतीकों के उपयोग की विशेषताओं का समावेश होता है। ये सभी विशेषताएँ आन्तरिक एवं अव्यक्त होती हैं। ये विशेषताएँ मूलरूप से व्यक्तिगत होती हैं। किसी परिस्थिति का सामना करते हुए व्यक्ति के विचारों को प्रत्यक्ष रूप से नहीं जाना जा सकता है। संज्ञानात्मक प्रक्रियाओं के सम्बन्ध में हम तभी जान पाते हैं जब कोई व्यक्ति लिखकर, बोलकर अथवा कोई कार्य सम्पादित कर हमारा ध्यान अपनी ओर खींचता है। संज्ञानात्मक अनुभव की एक दूसरी विशेषता यह भी है। कि इसके अन्तर्गत कई प्रमुख मानसिक प्रक्रियाएँ सन्निहित होती हैं। इसी प्रकार चिन्तन में भाषा और प्रत्यक्ष का महत्त्वपूर्ण योगदान होता है। इस दृष्टि से संज्ञान को एक जटिल मानसिक अनुभव माना जाता है। संज्ञान की तीसरी महत्त्वपूर्ण विशेषता है कि यह परिवेशीय उद्दीपकों और व्यक्ति की प्रतिक्रियाओं के बीच मध्यस्थता का कार्य करती है। परिवेशीय उद्दीपकों द्वारा प्रभावित होने पर व्यक्ति विशिष्ट प्रकार के व्यवहार प्रदर्शित करता है, किन्तु इन व्यवहारों का नियंत्रण संज्ञानात्मक प्रक्रियाओं के हाथ में होता है। किसी परिस्थिति में व्यक्ति की प्रतिक्रिया का स्वरूप कैसा होगा, यह उसके प्रत्यक्षीकरण, चिन्तन एवं तर्क पर निर्भर होगा।

बाह्य वातावरण तथा उद्दीपक जगत के सम्बन्ध में ज्ञान अर्जन की प्रक्रिया संज्ञान का केन्द्रीय तत्त्व है। बालक के विकास में संज्ञान का विकास एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण कारक है। स्विट्जरलैण्ड के प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक जीन प्याजे ने बालक के भीतर संज्ञानात्मक प्रक्रियाओं के विकास का व्यापक स्तर पर अध्ययन किया है। बालक विकास की प्रारम्भिक अवस्थाओं में अपरिपक्व होने के कारण तार्किक चिन्तन नहीं कर पाता, किन्तु धीरे-धीरे वह बालक संज्ञानात्मक दृष्टि से परिपक्व हो जाता है। अतः बालक एवं प्रौढ़ के ज्ञान में बहुत अधिक अन्तर पाया जाता है किन्तु मनोवैज्ञानिकों के सम्मुख एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न यह उपस्थित होता है कि बालक के भीतर संज्ञानात्मक प्रक्रियाओं का विकास कैसे होता है। इस संदर्भ में दो परस्पर विरोधी सिद्धान्तों का विकास हुआ है। एक सिद्धान्त जो साहचर्यवादी कहा जा सकता है, वह मानता है कि बालक के ज्ञान का निर्माण विविध अनुभवों के साहचर्य के आधार पर होता है। इस प्रकार बालक के भीतर एक ज्ञान भण्डार निर्मित हो जाता है, किन्तु इसके विपरीत संज्ञान के एक सिद्धान्त को भी विकसित किया गया है जिसे विकासात्मक कहा गया है। संज्ञान के विकासात्मक सिद्धान्त का प्रतिपादन प्याजे ने किया है। इस सिद्धान्त के अनुसार, बालक के भीतर कुछ जन्मजात क्षमताएँ पायी जाती हैं जिनकी सहायता से वह विकास-क्रम उद्दीपक जगत् से सम्बन्धित ज्ञान अर्जित करता रहता है। सम्पूर्ण विकास काल में संज्ञानात्मक प्रक्रियाएँ तो ज्यों की त्यों बनी रहती हैं किन्तु अर्जित ज्ञान का स्वरूप परिवर्तित होता रहता है। इसी कारण जो बालक विकास की प्रारम्भिक अवस्था में अतार्किक चिन्तन करता है, वह आगे की अवस्थाओं में तार्किक चिन्तन करने योग्य हो जाता है। इस प्रकार विकसित हो जाने पर वह गलत प्रत्यक्षीकरण नहीं करता और उद्दीपक जगत के यथार्थ रूप को समझने में समक्ष हो जाता है।

संज्ञानात्मक योग्यताओं का विकास

संज्ञानात्मक विकास का अध्ययन स्विट्जरलैण्ड के प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक जीन प्याजे द्वारा व्यापक स्तर पर किया गया है। प्याजे ने बालकों के संज्ञानात्मक विकास के सन्दर्भ में स्वयं अपने तीन बच्चों का अध्ययन किया। उन्होंने निरीक्षण विधि को प्रमुख विधि के रूप में अपनाया जिससे संज्ञान सिद्धान्त के संदर्भ में अनेक महत्त्वपूर्ण प्रश्न सामने आये, जैसे बच्चों में प्रतीकों का विकास किस प्रकार होता है? भाषा और विचार किस प्रकार सम्बद्ध हो जाते हैं? संज्ञान विकास. की प्रक्रिया किस प्रकार विकसित होती है ? आदि।

प्याजे ने संज्ञानात्मक विकास की व्याख्या करते हुए बताया है कि “संज्ञान प्राणी का वह ज्ञान है जिसे वह वातावरण के सम्पर्क में आने पर अर्जित करता है। इस प्रकार के ज्ञान में अनेक मानसिक क्रियाएँ सन्निहित रहती हैं जो निरन्तर चलती रहती हैं और विकास की किसी अवस्था विशेष में बदलती नहीं हैं।” प्याजे के अनुसार, बालक द्वारा अर्जित ज्ञान भण्डार का ‘स्वरूप अथवा ढाँचा विकास की प्रत्येक अवस्था में परिवर्तित एवं परिमार्जित होता रहता है। प्याजे के संज्ञान सिद्धान्त को विकासात्मक सिद्धान्तं कहा जाता है, क्योंकि उसके अनुसार बालक के भीतर संज्ञान का विकास अनेक अवस्थाओं से होकर गुजरता है। उनके संज्ञान सिद्धान्त को ‘अवस्था सिद्धान्त’ की भी संज्ञा दी गयी है, क्योंकि बालक के संज्ञान का स्वरूप पृथक्-पृथक् अवस्था में पृथक्-पृथक् होता है। प्याजे ने प्रत्येक अवस्था में बालक द्वारा अर्जित ज्ञान भण्डार को स्कीमा के नाम से सम्बोधित किया है। उन्होंने बालक के सम्पूर्ण ज्ञान विकास को चार प्रमुख अवस्थाओं में विभाजित किया है, जो निम्नलिखित हैं-

(1) संवेदी-पेशीय अवस्था

(2) पूर्व संक्रियात्मक अवस्था

(3) स्थूल संक्रियात्मक अवस्था

(4) औपचारिक संक्रियात्मक अवस्था

प्याजे के अनुसार, “प्रत्येक अवस्था में बालक के भीतर एक विशिष्ट प्रकार की स्कीमा निर्मित होता है। यह स्कीमा बालक द्वारा अर्जित सम्पूर्ण ज्ञान का एक संगठन होता है। इस संगठन के निर्माण और विकास में बाह्य परिवेश या वातावरण का बहुत बड़ा योगदान होता है।”

संज्ञानात्मक विकास की प्रक्रिया की चर्चा करने से पहले प्याजे द्वारा विकसित कुछ मुख्य सम्बोधों को समझ लेना आवश्यक है। प्याजे ने अपने संज्ञान विकास के सिद्धान्तों में संरचना, संक्रिया और अन्तर्वस्तु जैसे सम्बोधों का उपयोग किया है और इनकी संरचना से संज्ञान विकास की सम्पूर्ण प्रक्रिया को समझाया। प्याजे के अनुसार, संरचना के अन्तर्गत बालक की सभी क्षमताएँ, योग्यताएं, विचार, आदतें आदि सन्निहित हैं। समय बीतने और अनुभव में वृद्धि होने के कारण ये संरचनाएँ परिवर्तित होती रहती हैं। विकास की भिन्न-भिन्न अवस्थाओं में इनका स्वरूप, आकार और गुण सम्बर्द्धित एवं परिवर्द्धित होता रहता है। संक्रियाएँ बालक के भीतर जन्म से पायी जाने वाली वे प्रतिक्रियाएँ हैं जो जीवनपर्यन्त चलती रहती हैं। ये स्वयं नहीं परिवर्तित होती बल्कि इन प्रक्रियाओं के कारण ही संरचनाओं में परिवर्तन होता है। जहाँ तक अन्तर्वस्तु का प्रश्न हैं, इसके अन्तर्गत वे तथ्य आते हैं जिन पर बालक किसी क्षण विशेष में ध्यान देता है या जिनके विषय में विचार करता है, जैसे गणित की समस्या कि दो-दो मिलकर चार कैसे होते हैं। प्याजे का विश्वास है कि नवजात शिशु में दो मुख्य संक्रियाएँ पायी जाती हैं जिनकी सहायता से वह उद्दीपक जगत के सम्बन्ध में चिन्तन और ज्ञान अर्जन कर पाता है। इनमें से एक आत्मसात और दूसरी समंजन है।

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Anjali Yadav

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