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संवेग क्या है? | What is momentum in Hindi

संवेग क्या है? | What is momentum in Hindi
संवेग क्या है? | What is momentum in Hindi

संवेग क्या है? 

संवेग- ‘संवेग’ शब्द अंग्रेजी भाषा के ‘Emotion’ का हिन्दी रूपान्तर है। Emotion लैटिन भाषा के ‘Emover’ शब्द से बना है जिसका अर्थ होता है ‘To move To Stirred up, To arouse, to excited’ “हिला देना” “उत्तेजित रकना” “भड़क उठना” या “उद्दीप्त होना”। अतः जब संवेगों की उत्पत्ति होती है तो व्यक्ति का शरीर उत्तेजित व उद्वेलित हो जाता है। इस उद्वेलित / उत्तेजित अवस्था को ही ‘संवेग’ कहते हैं और इस उत्तेजना का प्रकटीकरण व्यक्ति के शारीरिक एवं मानसिक दोनों ही व्यवहारों में परिलक्षित होता है। उत्तेजना के कारण शरीर की आंतरिक एवं बाह्य दोनों ही दशाओं में व्यापक परिवर्तन हो जाता है जैसे― चेहरे के रंग एवं भाव में परिवर्तन, हाथों एवं पैरों में परिवर्तन, नाड़ी गति एवं रक्तचाप में परिवर्तन, साँस की क्रिया में तेजी होना, व्यक्ति का मन उद्विग्न होना आदि।

संवेग की परिभाषाएँ ( Definitions of Emotions )

विभिन्न विद्वानों ने संवेग को अपने-अपने तरीके से परिभाषित किया है। कुछ प्रमुख परिभाषाएँ निम्नानुसार हैं।

(1) English & English के अनुसार, “संवेग एक जटिल भावना की अवस्था है। इसमें क्रियात्मक एवं ग्रंथीय क्रियाएँ होती है। अथवा संवेग वह जटिल व्यवहार है जिसमें आंतरिक अवयवों की क्रियाएँ महत्वपूर्ण होती है।”

(2) पी0 टी0 यंग के अनुसार, “संवेग व्यक्ति का तीव्र मनोवैज्ञानिक उपद्रव है जिसकी उत्पत्ति मनोवैज्ञानिक कारणों से होती है तथा इसमें व्यवहार, चेतन, अनुभूति, अनुभव और आंतरिक अवयवों की क्रियाएँ सम्मिलित रहती है।”

(3) जेम्स ड्रेवर के अनुसार, “संवेग शरीर की वह जटिल अवस्था है जिससे साँस लेने, नाड़ी गति, ग्रंथिल उत्तेजना, मानसिक दशा, अवरोध आदि की अनुभूति पर प्रभाव पड़ता है तथा उसी के अनुसार मांसपेशियाँ व्यवहार करने लगती है।”

संवेग की दशायें

बालकों के संवेगों का महत्व – बालकों के जीवन में संवेगों का अत्यंत ही महत्वपूर्ण स्थान है, क्योंकि बालक ही समय परिवर्तन के साथ पल-बढ़कर युवा व्यक्ति बनते हैं। जिसके कंधों पर भारत का भविष्य टिका रहता है। संवेग बालक के सर्वांगीण विकास में सहायक होते हैं। व्यक्ति विकास एवं सामाजिक समायोजन में संवेगों की अग्रणी भूमिका होती है। बालकों के जीवन में संवेगों का महत्व निम्नानुसार है—

(1) हर्ष एवं आनंन्द की अनुभूति – संवेगों में बालकों को हर्ष, खुशी, आनंद, उल्लास एवं उत्साह की अनुभूति होती है। फलतः उसमें सकारात्मक गुणों का विकास होता है। वह बहुमुखी प्रतिभा का धनी व्यक्ति बनता है। उसका व्यक्तित्व सुन्दर, सजीला एवं आकर्षक होता है। याद रहे। सकरारात्मक संवेगों की अनुभूति से जहाँ बालकों को सुख, शांति एवं प्रसन्नता मिलती है, वहीं वह नकारात्मक संवेगों को प्रकट कर वह अपने भीतर छिपे हुए क्रोध, ईर्ष्या, आक्रोश, जलन आदि को बार निकाल देता है। फलतः वह तनावमुक्त होकर आनंदमय जीवन जीता है। अतः स्पष्ट है कि संवेगों से, बालकों को हर्ष, खुशी एवं आनंद की अनुभूति होती है।

वैज्ञानिक भी इस बात से शत-प्रतिशत सहमत है कि आनंद एवं सुख की स्थिति में शरीर की सभी पेशियाँ तनावमुक्त हो जाती हैं जिससे शरीर को आराम पहुँचता है। उसकी पेशियों के भीतर विद्यमान लैक्टिक अम्ल संहित सभी दूषित पदार्थ बाहर निकल जाते हैं। फलतः उसका रोम-रोम हर्षित हो जाता है। ये भाव उसके चेहरे की खुशी के माध्यम से प्रकट होते हैं। चेहरे की मुस्कराहट अथवा खिलखिलाकर हँसना इसका द्योतक होता है।

( 2 ) सामाजिक समायोजन में सहायक – संवेग बालकों को सामाजिक समायोजन स्थापित करने में भी अमूल्य भूमिका निभाता है। यदि बालक आनंददायक संवेगों को जीवन में अपनाकर अच्छी आदतों का निर्माण कर लेता है तो उसका समायोजन स्कूल के साथियों आस-पड़ोस के बालकों एवं समाज के साथ अच्छा होता है। परन्तु यदि बालक अपने जीवन में कष्टदायी एवं नकारात्मक संवेगों को अपनाते हैं। तो इन्हें सामाजिक समायोजन में भारी कठिनाई का सामना करना पड़ता है।

(3) आदतों के निर्माण में सहायक – संवेग से बालकों में अच्छी आदतों का निर्माण होता है। जब बालकों को सकारात्मक संवेगों की अभिव्यक्ति से सुख की अनुभूति होती है, दूसरे लोग उसकी प्रशंसा करते हैं, माता-पिता एवं शिक्षक बालक को प्रोत्साहित करते हैं तो बालक उस संवेगात्मक अनुक्रियाओं की पुनरावृत्ति बार-बार करता है जो बाद में चलकर उसकी आदत में परिणत (बदल) हो जाता है और बालक अच्छी आदतों को सीखकर उसे जीवन में अपना लेता है।

( 4 ) भाषा विकास में सहायक- संवेगों से शरीर की क्रियाशीलता बढ़ जाती है। जिससे उसकी आवाज में परिवर्तन आ जाता है। वह किसी भी चीज को, चाहे वह कविता हो या कहानी अथवा सामान्य बातचीत ही, जोर-जोर से चिल्ला-चिल्लाकर कहने लगता है जिससे उसकी, गला, स्वरयंत्र, जीभ, होंठ एवं जबड़ों की मांसपेशियाँ परिपक्व होती है और भाषा विकास में सहायक होती हैं। इसके ठीक विपरीत यदि बालक अपनी शारीरिक क्रियाशीलता से घुटन पैदा करता है जिससे उसका भाषा विकास तो प्रभावित होता ही है उसका व्यक्तित्व भी कुंठित हो जाता है। उसके भीतर नकारात्मक गुणों का सामाज्य हो जाता है जो व्यक्तित्व विकास में बाधा पहुँचाता है।

(5) संप्रेषण में सहायक – संवेग संप्रेषण में भी बहुमूल्य भूमिका निभाता है। बालक अपने विचारों को, भावों को, शब्दों के माध्यम से तो व्यक्त करते ही हैं। साथ ही वे अपने चेहरे के हाव-भाव तथा ‘Body Language’ के माध्यम से भी व्यक्त करते हैं। दूसरे लोग बालक के विचारों, तुर्कों एवं भावों से कितना अधिक एवं किस हद तक सहमत या असहमत है। उसे भी वह उनके चेहरे के हाव-भाव एवं Body Language को देखकर समझ जाता है और उसी के अनुसार सुधार भी करता है।

( 6 ) आत्म-मूल्यांकन एवं सामाजिक मूल्यांकन में सहायक – बच्चे संवेगों के माध्यम से अपना स्वयं का आत्म-मूल्यांकन तथा दूसरों का अर्थात् सामाजिक मूल्यांकन करते हैं। वे बच्चे जो दूसरों के समक्ष सुखदायक संवेगों की अभिव्यक्ति अधिक मात्रा मे करते हैं, समाज उन्हें पसंद करता है, उसका आदर करता है। फलतः वे लोकप्रिय होते हैं। खेल एवं विद्यालय के साथी उसे अपना नेता मानता है। इसके विपरीत जो बालक दुखदायक संवेगों की अभिव्यक्ति अधिक मात्रा में करता है, उन्हें खेल के साथी भी बहुत ही कम पसंद करते हैं। समाज में भी उस बालक की निंदा होती है। समाज के लोग बालक को कितना अधिक पसंद / नापसंद करते हैं इस आधार पर बालक अपना स्वयं का मूल्यांकन करता है।

( 7 ) संवेग शारीरिक क्रियाशीलता को बढ़ाते हैं— संवेग के कारण बालकों की शारीरिक क्रियाशीलता बढ़ जाती है। सकारात्मक संवेगों के कारण हृदय की धड़कने बढ़ जाती है। नाड़ी गति बढ़ जाती है। मांसपेशियों की थकान कम हो जाती है। यकृत से अधिक मात्रा में ग्लाइकोजन (Carbohydrate) निकलने लगता है। थायरॉइड एवं एड्रीनल ग्रंथियों से हारमोन का अधिक स्रावन होने लगता है। फलतः बालक क्रियाशील हो जाता है। परन्तु यदि बालक इस बड़ी हुई क्रियाशीलता का उपयोग सृजनात्मक कार्यों के निर्माण में नहीं कर पाता है तो वह उदास, निराश, चिड़चिड़ा एवं नर्वस (Nervous) हो जाता है। उसमें कई प्रकार के व्यवहारात्मक दोष उत्पन्न हो जाते है जैसे—अँगूठा चूसना, नाखून चबाना, बात-बात पर क्रोधित होना, बिस्तर पर पेशाब करना, दूसरों को अपनी ओर आकर्शित करने के लिए ऊटपटांग हरकतें करना आदि।

( 8 ) संवेग मानसिक क्रियाओं में बाधा पहुँचाते हैं— तीव्र नकारात्मक संवेगों जैसे-ईष्या, क्रोध, भय आदि के कारण बालक उद्देलित हो जाता सोचने, समझने, तर्क करने, स्मरण करने एकाग्रता, ध्यान लगाने आदि पर प्रतिकूल प्रभाव फलतः उसमें सीखने, पड़ता है। इस कारण वह अपनी क्षमता एवं बुद्धिलब्धि (1.Q.) की तुलना में बहुत ही कम अभिव्यक्त कर पाता है। परिणामतः वह शैक्षिणिक एवं सह-शैक्षणिक गतिविधियों में अन्य बालकोंकी तुलना में काफी पीछे रह जाता है। वह व्यवहार कुशल भी नहीं हो पाता है। जो बालक सदैव ही ईर्ष्या, क्रोध, भय व चिन्ता से ग्रस्त रहता है वह पढ़ाई में कमजोर हो जाता है।

( 9 ) संवेग बहुत से कार्यों के प्रेरक होते हैं- बहुत से संवेग ऐसे होते हैं जो दुश्मनों के प्रति घृणा एवं क्रोध उत्पन्न करते हैं तथा देश एवं समाज के लिए हँसते हुए सर्वस्व न्योछावर कर देने की प्रेरणा देते हैं। आजादी की लड़ाई में देश का बच्चा-बच्चा अपना बलिदान देने के लिए तत्पर था। क्रांतिकारियों ने संवेग के कारण ही फाँसी के फंदे को भी हँसते हुए चूम लिया।

(10) संवेग बालकों के जीवन में रंग भरते हैं— सकारात्मक संवेगों की अभिव्यक्ति से बालकों को खेल के साथियों एवं समाज के लोगों द्वारा प्रशंसा मिलती है। फलतः वह सकारात्मक संवेगों को बार-बार दुहराने के लिए प्रेरित होता है और अपने जीवन को आनंदमय बनाता है। उसके कई अच्छे दोस्त बन जाते हैं जिनके बीच वह अपनी खुशियों को बाँटकर आनंदित होता है। अतः संवेग बालकों के जीवन में रंग भरते हैं तथा सरसता एवं आकर्षण उत्पन्न करते हैं। यदि बालक स्वस्थ रहता है तो उसका जीवन सुखदायक बनता है। परन्तु यदि बालक समाज में नकारात्मक संवेगों जैसे—दुख, चिन्ता, क्रोध, ईर्ष्या आदि की अभिव्यक्ति अधिक करता है तो उसे खेल के साथी एवं समाज के लोग कम ही पसंद करते हैं।

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Anjali Yadav

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