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किशोरावस्था में सामाजिक विकास को प्रभावित करने वाले कारक
1. आनुवांशिकता- बालक के सामाजिक विकास पर आनुवांशिकता का थोड़ा-बहुत प्रभाव पड़ता है। भारत में कई ऐसे महान् लोगों के उदाहरण मिल जाते हैं जिनके पूर्वज उच्च सामाजिक मूल्य धारण करते हैं और उनमें भी सामाजिक मूल्यों की प्रधानता थी। वंश- परम्परा के रूप में उन्हें अपने पूर्वजों से ये मूल्य प्राप्त हुए। उदाहरणार्थ, गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर व पं. जवाहर लाल नेहरू का नाम प्रस्तुत किया जा सकता है।
2. पारिवारिक कारक- परिवार के सदस्यों के बीच दुलार-प्यार, सहयोग आदि की भावना अधिक होती है। इन सबका प्रभाव बालक के समाजीकरण पर पड़ता है। अनेक मनोवैज्ञानिकों का मत है कि परिवार ही वह पहली संस्था है जो बालक को शिष्टाचार एवं नैतिक विकास की शिक्षा देकर उन्हें योग्य व्यक्ति बनाता है। कुछ माता-पिता अपने बच्चों को प्यार- दुलार, स्नेह आदि देते हैं परन्तु कुछ माता-पिता इसके विपरीत होते हैं और बात-बात में बच्चों को डाँटते हैं, पीटते हैं और गाली देते हैं। मनोवैज्ञानिकों ने इस बात पर सहमति जताई है कि जिन माता-पिता द्वारा बालकों के प्रति हार्दिकता दिखाई जाती है, उनके बच्चों में सामाजिक शील-गुणों एवं सामाजिक व्यवहारों का विकास तेजी से होता है। माता-पिता से विद्वेष पाने वाले बालकों में ऐसे गुणों का विकास नहीं होता। माता-पिता से उचित प्यार-दुलार व स्नेह मिलने से बालकों में सुरक्षा की भावना, आत्मसम्मान, आत्मविश्वास आदि गुण उपजता है।
माता-पिता और बच्चों के बीच अंतःक्रिया के अलावा परिवार के अन्य पहलू (परिवार का आकार, परिवार में सदस्यों की संख्या, भौतिक वातावरण आदि) का भी बालक के समाजीकरण पर प्रभाव पड़ता है।
3. साथियों का समूह – बालकों द्वारा निर्मित टोली की विशेषता यह होती है कि उसमें सभी बालक करीब-करीब एक ही उम्र के होते हैं। टोली बालकों को लोकतांत्रिक होना सिखाती है, स्वार्थ तथा समाज विरोधी विचारों से ऊपर उठकर साथियों के साथ मिलकर कार्य करना सिखाती है तथा साथ ही साथ उनमें प्रतियोगिता की भावना उत्पन्न करके अपनी योग्यताओं और क्षमताओं को बढ़ाने का अवसर देती है।
साथियों का समूह भिन्न-भिन्न परिवारों के बालकों को एक-दूसरे के नजदीक आने का मौका देती है तथा उन्हें एक सामाजिक रूप से अनुमोदित व्यवहार करने की प्रेरणा देता है। साथियों के समूह में बालक सामाजिक मूल्यों को समझने और उनके अनुसार व्यवहार करना, सीखते हैं। साथियों द्वारा प्राप्त अनुभवों से बालकों में उचित सामाजिक मनोवृत्ति विकसित होता है। साथियों का समूह सदस्यों को सांवेगिक संतुष्टि देता है।
4. विद्यालय का प्रभाव- विद्यालय सिर्फ बालकों को शिक्षा ही नहीं देता है बल्कि सामाजिक मूल्यों, सामाजिक संज्ञान, सामाजिक मानकों के बारे में बताकर बालकों में समाजीकरण के बीच बोता है।
5. अध्यापक का प्रभाव- अध्यापक का व्यक्तित्व तथा उनके द्वारा विद्यार्थियों के साथ होने वाली अन्तःक्रियाओं का बालक के समाजीकरण पर सीधा प्रभाव पड़ता है। सामान्यतः देखा गया है कि अध्यापक स्वयं सामाजिक शील-गुणों से पूर्ण है तथा बालकों के साथ स्नेहमयी अन्तःक्रियायें करते हैं, तो इससे बालकों में प्रोत्साहन होता है, बालकों में सांवेगिक और सामाजिक समायोजन की क्षमता बढ़ जाती है। ऐसे बालकों का समायोजन तेजी से होता है। बालक अध्यापक के व्यवहारों का अनुकरण करते हैं। अतः यदि अध्यापक स्वयं ही कुसमायोजित होगा तो बालकों में कुसमायोजन की समस्या आ जाती है और उनके समाजीकरण की प्रक्रिया धीमी पड़ जाती है। हिल तथा एंटोन (1977) ने एक अध्ययन में पाया कि जो अध्यापक बालकों के साथ पुरस्कारी अन्तःक्रिया अधिक करते हैं, उनके व्यवहारों का अनुकरण बालक अधिक करते हैं।
6. संवेगात्मक विकास- बालक का संवेगात्मक विकास भी उसके सामाजिक विकास को प्रभावित करता है। स्नेह और विनोद के भाव रखने वाला बालक सभी का स्नेह पात्र होता है, जबकि इसके विपरीत सदैव ईर्ष्या, क्रोध, द्वेष व घृणा के भाव रखने वाले बालक की उपेक्षा करते हैं। ऐसी स्थिति में दोनों के सामाजिक विकास में अन्तर होना स्वाभाविक है। क्रो व क्रो के अनुसार, “संवेगात्मक और सामाजिक विकास साथ-साथ चलते हैं।”
7. शारीरिक तथा मानसिक विकास- जिन बालकों का शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य अच्छा होता है उनका सामाजिक विकास भी वांछित दिशा में वांछित गति से होता है। शारीरिक रूप से विशिष्ट, मोटे, बहुत पतले, नाटे आदि बालकों को अपने समूह में उपेक्षा झेलनी पड़ती है या समाज उन्हें हँसी का पात्र बना लेता है तो उनके अन्दर हीन भावना जन्म ले लेती है, वे समाज से समायोजन स्थापित नहीं कर पाते।
जो बालक मानसिक स्वास्थ्य में दुर्बल होते हैं, चिन्ता व इन्द्र में रहते हैं, भरनाशा के शिकार होते हैं, उनका समाजीकरण उचित रूप से नहीं हो पाता। ऐसे बालक समस्यात्मक बालक बन जाते हैं।
8. पास-पड़ोस- बालकों के समाजीकरण में पास-पड़ोस की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। पास-पड़ोस के व्यक्तियों के सम्पर्क में आने से बालक नए नए व्यवहार सीखता है। आपस में मिलकर भिन्न-भिन्न तरह की सामाजिक समस्याओं पर बात करता है जिससे वह नए-नए आदशों से परिचित होता है और उसे चेतन या अचेतन रूप से अपने व्यक्तित्व में समावेशित कर लेता है। इससे उसके समाजीकरण की प्रक्रिया तेज हो जाती है। उसमें सहकारिता, परोपकारिता जैसे सामाजिक गुणों का विकास होता है।
9. आर्थिक स्थिति- बालक के सामाजिक विकास पर घर की स्थिति का प्रभाव पड़ता है। धनी परिवार के बालक अच्छे निवास स्थान तथा वातावरण में रहते हैं। उन्हें सभी प्रकार के सुख साधन उपलब्ध होते हैं। ये अच्छे विद्यालयों में शिक्षा प्राप्त करते हैं। जबकि निर्धन परिवार के बालक आवश्यक सुविधाओं से वंचित रहते हैं, इससे उनका सामाजिक विकास भी प्रभावित होता है।
10. धार्मिक संस्थाएं और क्लब आदि- विभिन्न धार्मिक संस्थाएँ (मन्दिर, मस्जिद, गिरजाघर, गुरुद्वारा इत्यादि) बालकों के सामाजिक विकास को प्रभावित करते हैं। समाज के सदस्यों के इकट्ठे होकर विचार-विनिमय करने, एक- दूसरे सम्पर्क में आने तथा पारस्परिक सम्बन्धों को बढ़ाने के दृष्टिकोण से इन संस्थाओं का बहुत महत्व है। इन धार्मिक और सामाजिक स्थानों में जिस तरह का वातावरण होता है और इन संस्थाओं के जो आदर्श, परम्पराएँ और मान्यताएँ होती हैं उनका बालकों के सामाजिक व्यवहार को उचित और अनुचित दिशा प्रदान करने में बहुत बड़ी भूमिका होती है।
11. सूचना एवं मनोरंजन के साधन- सूचना और मनोरंज प्रदान करने वाले साधनों की बालक के सामाजिक विकास में बहुत बड़ी भूमिका होती है। ये साधन बालकों को सामाजिक संरचना, सामाजिक परिवर्तन, सामाजिक मूल्यों और मान्यताओं से अवगत कराते रहते हैं। ये उनमें सामाजिक कुरीतियों, अंधविश्वासों, बुराइयों, कुसंस्कारों के प्रति घृणा पैदा करके उनके उन्मूलन की दिशा में बालकों को अग्रसर करने में सक्षम होते हैं।
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