किशोरावस्था में पहचान विकास से आप क्या समझते हैं ?
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किशोरावस्था में पहचान विकास का अर्थ एवं परिभाषा
किशोरावस्था विकास की एक क्रान्तिक अवस्था है। इस अवस्था के बालक को न बालक कह सक सकते हैं। इस अवस्था में बालक के शारीरिक और मनोवैज्ञानिक गुणों में परिवर्तन प्रौढ़ावस्था की दिशा में होते हैं। एडोलेससेन्स शब्द यदि शाब्दिक अर्थ को देखा जाये तो यह स्पष्ट होता है कि इस शब्द की उत्पत्ति लैटिन भाषा के शब्द एडोलेसकेयर से हुई है, जिसका अर्थ परिपक्वता की ओर बढ़ना है।
अनेक विद्वानों ने किशोरावस्था पहचान विकास की अवधारणा को निम्नलिखित प्रकार से परिभाषित किया है-
(1) जर्सील्ड के अनुसार, “किशोरावस्था में पहचान विकास वह अवस्था है जिसमें एक विकासशील व्यक्ति बाल्यावस्था से परिपक्वावस्था की ओर बढ़ता है।”
(2) कारमाइकेल ने किशोरावस्था की परिभाषा तीन दृष्टिकोणों से दी है, इनके अनुसार, किशोरावस्था जीवन का वह समय है, जहाँ से एक अपरिपक्व व्यक्ति का शारीरिक और मानसिक विकास एक चरम सीमा की ओर अग्रसर होता है। दैहिक दृष्टि से एक व्यक्ति तब किशोर बनता है जब उसमें वयःसन्धि अवस्था प्रारम्भ होती है और उसमें सन्तान उत्पन्न करने की योग्यता प्रारम्भ हो जाती है। वास्तविक आयु की दृष्टि से बालिकाओं में वयःसन्धि अवस्था बारह वर्ष की आयु से पन्द्रह वर्ष की आयु के मध्य प्रारम्भ होती है। इस आयु अवधि में 2 वर्ष की आयु किसी ओर घट-बढ़ सकती है। बालकों के लिए वयःसन्धि का प्रारम्भ इसी आयु में प्रारम्भ होता है, बहुधा यह बालिकाओं की अपेक्षा या 2 वर्ष देर से प्रारम्भ होता है।”
(3) किलपैट्रिक के अनुसार, “इस बात पर कोई मतभेद नहीं हो सकता है कि किशोरावस्था जीवन का सबसे कठिन काल है।”
( 4 ) क्रो एण्ड क्रो के शब्दों में, “किशोर ही वर्तमान की शक्ति और भावी आशा को प्रस्तुत करता है। “
(5) बिग्गी एवं हन्ट के अनुसर, “किशोरावस्था को सर्वोत्तम रूप से प्रकट करने वाला एक शब्द परिवर्तन है। परिवर्तन शारीरिक, सामाजिक तथा मनोवैज्ञानिक होता है।”
( 6 ) आइजनेक और उनके साथियों ने किशोरावस्था को परिभाषित करते हुए लिखा है कि, “किशोरावस्था वयःसन्धि के बाद की वह अवस्था है जिसमें व्यक्ति में आत्म- उत्तरदायित्व की स्थापना होती है।”
उपर्युक्त परिभाषाओं के आधार पर यह कहा जा सकता है कि किशोरावस्था वयः सन्धि के बाद की वह अवस्था है जिसमें व्यक्ति की शारीरिक और मानसिक वृद्धि पराकाष्ठा या अन्तिम रूप पर पहुँचत है। इस अवस्था में व्यक्ति में आत्म-उत्तरदायित्व का स्थापन होता है।
नेतृत्व- नेतृत्व के लिए आवश्यक है कि बालक में समूह के बालकों की अपेक्षा कुछ अधिक और श्रेष्ठ गुण हो तथा इन गुणों की समूह के अन्य सदस्यों द्वारा प्रशंसा की जा रही हो। सामाजिक कार्यक्रमों में नेता अन्य सदस्यों की अपेक्षा अधिक क्रियाशील दिखलाई पड़ते हैं। किशोरावस्था के बालक-बालिकाएँ यह पसन्द करते हैं कि उनका नेता देखने में अच्छा, स्टाइल वाला, अच्छे पहनावे वाला, अधिक बुद्धि वाला, अधिक शिक्षा वाला और अधिक परिपक्व होना चाहिए। “किशोरावस्था के नेताओं में अनेक गुण पाये जाते हैं, जैसे- विश्वसनीयता, वफादारी, बहिर्मुखता, अनेक रुचियों, आत्मविश्वास, निर्णय गति, खेल की भावना, सामाजिकता, विनोदीभाव, मौलिकता, दक्षता अनुकूलता, सहयोग, सजीवता, दृढ़ाग्रही और कुशलता” आदि। जहाँ पन्द्रह-सोलह वर्ष की अवस्था के लड़के-लड़कियाँ समूह में दोनों ही रहते हैं, वहाँ लड़कियाँ लड़कियों को और लड़के लड़कों को ही नेता चुनना पसन्द करते हैं।
सामाजिक स्वीकृति- कुछ किशोरों को अपने समूह और समाज में अधिक प्रतिष्ठा और स्वीकृति प्राप्त होती है तथा अन्य को सामान्य या कम होती है। किशोरावस्था के प्रारम्भ से ही किशोर यह समझने लग जाते हैं कि समूह और समाज के अन्य सदस्य उसे कितना और किस प्रकार चाहते हैं। लड़कों की अपेक्षा लड़कियाँ समूह में अपना स्थान और प्रतिष्ठा शीघ्र पहिचान लेती हैं। समूह में जो बालक अपनी स्थिति का मूल्यांकन सही करते हैं, उनका समायोजन सामान्य या अच्छा होता है। दूसरी ओर जो बालक अपने समूह में अपनी स्थिति का अति या अल्प मूल्यांकन करते हैं, उनका उस समूह में समायोजन दूषित होता है। जिस बालक को सामाजिक स्वीकृति जितनी ही अधिक प्राप्त होती है वह उतना ही अधिक सहयोगी बहिर्मुखी, सहायता करने वाला, उदार, सही बोलने वाला, कम क्रोधी, उत्तरदायित्व वाला, नियमों का पालन करने वाला होता है। अध्ययनों में यह देखा गया है कि जिन किशोरों को जितनी ही अधिक सामाजिक स्वीकृति प्राप्त होती है, वे उतने ही अधिक भी बढ़ जाता है। इसके सम्बन्ध में हरलॉक ने लिखा है कि “सामाजिक रूप से स्वीकृत व्यक्ति में कुछ लक्षण पाए जाते हैं, जैसे- निष्कपटता, दूसरों में रुचि, दूसरों को महत्व, आत्म-सम्मान, आत्म-विश्वास, समूह द्वारा स्वीकृत क्रियाकलापों में सक्रिय रूप से भाग लेना, सामान्यतया समयोजित व्यक्ति प्रतिमान।”
किशोरावस्था में पहचान विकास की समस्याएँ
अध्ययनों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि किशोरावस्था ‘समस्याओं की आयु है। किशोरों की समस्याएँ परिवार, विद्यालय, स्वास्थ्य, मनोरंजन, भविष्य, व्यवसाय, विपरीत लिंग के लोगों आदि से सम्बन्धित हो सकती है। ये समस्याएँ आर्थिक, व्यक्तिगत और सामाजिक आदि किसी भी स्तर की हो सकती है। किशोरावस्था को समस्याओं की आयु इसलिए कहा गया है कि बालक अपने माता-पिता, संरक्षकों और अध्यापकों आदि के लिए एक समस्या होता है तथा साथ ही साथ वह अपनी नई विकास अवस्था की भूमिका के साथ समायोजन नहीं कर पाता है। अतः उसमें चिन्ता, उत्सुकता, अनिश्चितता और भ्रान्ति के लक्षण उत्पन्न हो जाते हैं, यह किसी न किसी रूप में उसके लिए समस्या ही है। इनकी समस्याओं में पर्याप्त भागों में वैयक्तिक भिन्नताएँ भी पायी जाती हैं।
अध्ययनों में यह भी देखा गया है कि किशोरावस्था के प्रारम्भ में लड़कों की अपेक्षा लड़कियों की समस्याएँ अधिक और उनके लिए चिन्ताजनक होती है। एक अध्ययन में यह देखा गया है कि जिन परिवार में प्रजातान्त्रिक वातावरण रहता है, उन परिवारों में पले बच्चों की समस्याएँ कम जटिल होती हैं तथा जिन परिवारों में वातावरण प्रभुत्वशाली प्रकार का होता है, उन परिवारों में पोषित बच्चों की समस्याएँ अपेक्षाकृत अधिक जटिल हुआ करती हैं। एक अन्य अध्ययन में यह देखा गया है कि जिन परिवारों में असंतोषजनक परिस्थितियाँ होती अथवा परिवार में कोई मृत्यु आदि हो जाती हैं अथवा परिवार में कोई विवाह विच्छेद हो जाता है तो इन परिस्थितियों में भी किशोरों के लिए समस्याएँ उत्पन्न हो जाती है। कुछ अध्ययनों में यह भी देखा गया है कि जिन किशोरों में बुद्धि कम होती हैं, वे अपेक्षाकृत अधिक समस्याओं से ग्रस्त होते हैं।
किशोरावस्था में आयु जैसे-जैसे बढ़ती जाती है, वैसे-वैसे किशोरों की समस्याएँ जटिल और अधिक जटिल होती जाती हैं। अध्ययनों में यह देखा गया है कि यदि पूर्व के वर्षों में किशोर अपनी समस्याओं का समाधान करने में असफल रहता है तो आगे आने वाले वर्षों में भी वे अपनी समस्याओं का समाधान करने में असफल होता है। इस अवस्था में समस्याओं का समाधान वह अपने परिवार के वरिष्ठ सदस्यों, अध्यापकों और मित्रों आदि की सहायता से करता है। कई बार वह अपनी समस्याओं को परिवारीजनों एवं गुरुजनों को बताने में संकोच करता है। वह यह समझता है कि वे लोग उसकी समस्याएँ समझ नहीं पाएँगे अथवा उसकी सेक्स से सम्बन्धित समस्याएँ हो सकती हैं जिनको वह बताने में संकोच कर सकता है। कुछ अध्ययनों में यह सिद्ध करने का प्रयास किया गया है कि समस्याएँ जितनी ही अधिक गम्भीर होती हैं, किशोर उन्हें दूसरों को बताने और उनका समाधान प्राप्त करने के लिए, उतना ही कम प्रयास करता है। यह भी देखा गया है कि जब ये लोग अपनी समस्याओं का समाधान करने में असफल रहते हैं तो इनमें अनुपयुक्तता और हीनता की भावनाएँ भी उत्पन्न हो सकती है। हरलॉक ने लिखा है कि, “यदि किशोर इन समस्याओं का बिना किसी विशेष परेशानी के समाधान करने के योग्य है तो इसमें आत्म-विश्वास और उपयुक्तता की भावना विकसित होती है, यदि वह इनका समाधान नहीं कर सकता है तो उसमें कुण्ठा और अनुपयुक्तता की भावना का विकास होता है जो उस पर मनोवैज्ञानिक छाप छोड़ते हैं।”
किशोरावस्था के अन्त तक अधिकांश समस्याएँ धन, सेक्स या शैक्षिक उपलब्धि के सम्बन्ध में ही होती हैं। अधिक आयु के किशोरों के लिए ये समस्याएँ अधिक गम्भीर होती हैं। कुछ अध्ययनों में यह देखा गया है कि इस अवस्था की किशोरियों की कुछ गम्भीर समस्याएँ व्यक्तिगत आकर्षण, पारिवारिक सम्बन्ध और सामाजिक सम्बन्धों में सम्बन्धित होती हैं। किशोरावस्था में आयु बढ़ने के साथ-साथ किशोर अपनी समस्याओं का समाधान करना स्वयं सीखते जाते हैं। फलस्वरूप वे समय व्यतीत होने के साथ-साथ समायोजन में अच्छे और खुशहाल होते जाते हैं।
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