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वृद्धावस्था ह्रास एवं उसका मनोवैज्ञानिक कारण | वृद्धावस्था में समायोजन अभाव | मनोवैज्ञानिक समायोजन के पक्ष

वृद्धावस्था ह्रास एवं उसका मनोवैज्ञानिक कारण | वृद्धावस्था में समायोजन अभाव | मनोवैज्ञानिक समायोजन के पक्ष
वृद्धावस्था ह्रास एवं उसका मनोवैज्ञानिक कारण | वृद्धावस्था में समायोजन अभाव | मनोवैज्ञानिक समायोजन के पक्ष

वृद्धावस्था ह्रास एवं उसका मनोवैज्ञानिक कारण

क्षय या ह्रास आंशिक रूप से मनोवैज्ञानिक कारकों के कारण होता है। शरीर के ऊतकों की संरचना में तीव्रता के साथ होने के कारण कोशिकाओं के अंदर के द्रव पदार्थ में कमी व पोषक तत्त्वों का कोशिकाओं को प्राप्त न होना है तथा अनुपयोगी पदार्थ का बाहर निष्कासन न होकर वहीं जमा रहना होता है। इस प्रकार कोशिका द्रव्य में परिवर्तन कोशिकाओं को बनाने के बजाय उन्हें क्षति पहुँचाते हैं व अधिक मात्रा में कोशिकाओं का टूटना शारीरिक हास को इंगित करता है।

इस अवस्था में परिवर्तन का दूसरा कारण व्यक्ति में होने वाले कोई रोग विशेष न होकर जरण की प्रक्रिया है। इस समय कोशिकाओं में परिवर्तन दो प्रकार से देखे जा सकते हैं-

  1. क्रमिक रूप से कोशिकाओं का शुष्क होना।
  2. क्रमिक रूप से कोशिका विभाजन की प्रक्रिया में न्यूनता उत्पन्न होना।

कोशिकाओं की वृद्धि, कोशिकाओं की टूट-फूट होने पर इनके स्थान में नई कोशिकाओं के निर्माण की शक्ति में भी मंदता आ जाती है। शरीर में आक्सीकरण की क्रिया की गति में धीमापन आ जाता है जिसके कारण कोशिकाओं की रचना में गिरावट जैसे ऊतकों में लचीलेपन का अभाव, शरीर के संयोगी ऊतकों में कमी, तंत्रिका तंत्र का धीमी गति से काम करना, कोशिकाओं के आन्तरिक वातावरण को सामान्य बनाए रखने की प्रक्रिया में मंदता का होना आदि परिवर्तन ह्रास की दिशा को इंगित करते हैं। इसके अलावा कोशिकाओं के द्रव्य में लौहतत्त्व व कैल्शियम जैसे तत्वों के जमा होने के कारण जरण की प्रक्रिया और द्रुत गति से होने लगती है। मस्तिष्क के ऊतकों में भी तीव्रता के साथ परिवर्तन होता है। अध्ययनों से ज्ञात होता है कि इस अवस्था में अधिकतर व्यक्ति मस्तिष्क में गिरावट के परेशान रहते हैं।

वृद्धावस्था में समायोजन अभाव 

ऐसे व्यक्ति जो वृद्धावस्था के दौरान अपनी भूमिका के साथ स्वयं को समायोजित नहीं कर पाते हैं वे शीघ्रता से जरावस्था में पहुँच जाते है। एक व्यक्ति जीवन में कितने तनाव व तूफान झेलता है, उस पर उसकी जरण प्रक्रिया निर्भर करती है। इस समय व्यक्ति की प्रेरणा अहम् भूमिका निभाती है। व्यक्ति अपने सेवानिवृत्ति के पश्चात् अपने खाली समय का सदुपयोग, समायोजन, रुचि व कौशल का प्रयोग कितना व किस प्रकार से करता है। ऐसे व्यक्ति जो जीवन के इस स्तर पर स्वयं को प्रेरित करने में असमर्थ होते. हैं, घर की जिम्मेदारियों को बोझ, बोरियत का काम समझते हैं, उनमें जरण जल्दी दिखाई देता हैं। इसके विपरीत घर की जिम्मेदारियों के प्रति व्यक्ति की रुचि उसे जिंदादिल बनाये रखती हैं।

जब व्यक्ति की शारीरिक अवस्था में परिवर्तन आ जाते हैं तथा समाज में उसकी स्थिति बदल जाती है, तब उसे समायोजन करने पड़ते जैसा प्रत्येक आयु में होता है। वृद्धों को भी अपने व्यवहार के प्रकारों में आवश्यक परिवर्तन कर सकने से पूर्व मनोवैज्ञानिक रूप से अपने को समायोजित कर लेना होता है। मनोवैज्ञानिक समायोजन वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा व्यक्ति अपनी आवश्यकता एवं इच्छा को पूरा करने का प्रयास करता है। आयु के साथ-साथ ज्यों-त्यों व्यक्ति के समायोजन की प्रक्रियाएँ एवं उसके लिए उपयुक्त विधियां भी बदलती जाएँगी। आयु वृद्धि के साथ शरीर रचना तथा क्रियात्मक क्षमता में होने वाले परिवर्तन व्यक्ति के लिए उपयुक्त विधियों को उसी तरह सीमित कर सकते हैं जिस तरह उस समाज का सांस्कृतिक ढाँचा जिसमें वह रहता है।

मनोवैज्ञानिक समायोजन के पक्ष

मनोवैज्ञानिक समायोजन के दो पक्ष होते हैं। एक बाह्य पक्ष तथा दूसरा आंतरिक पक्ष बाह्य पक्ष को बाह्य प्रेक्षक व्यक्ति की परिस्थिति के अनुरूप कुशलता के साथ कार्य करने की क्षमता को देखकर आंकता है। व्यक्ति अपनी विभिन्न मनोवैज्ञानिक आवश्यकता की अपेक्षाकृत सामंजस्यपूर्ण तृप्ति जिस मात्रा में करता है और कुशलक्षेम संतोष का तथा अप्रिय तनाव तथा अकुलाना से अपेक्षाकृत बचे रहने का जिस मात्रा में सुखकर अनुभव करता है, वहीं समायोजन का आंतरिक्ष पक्ष है। अधिकतर वृद्ध पर्यावरण परिवर्तनों से काफी सफलता के साथ समायोजन कर लेते हैं किन्तु आंतरिक परिवर्तनों से सफलता के साथ समायोजन कुछ ही कर पाते हैं। यदि समायोजन को सफल बनाना है तो व्यक्ति को आयु वृद्धि के साथ आने वाले परिवर्तनों से आवश्यक समायोजन कर लेना चाहिए तथा समाज को भी वृद्धों की आवश्यकता से समायोजन कर लेना चाहिए। फिर भी क्योंकि समाज तो वृद्धों से अपना अनुकूलन नहीं करेगा। अतः वृद्धों को ही समाज से अपना अनुकूलन करना तथा इसके लिए स्वयं तरीके निकालना सीख लेना पड़ता है। इससे वृद्धों के ऊपर बहुत बोझ आ पड़ता है, वृद्धों के प्रति सामाजिक अभिवृत्तियों के कारण, ये उनके प्रति व्यवहार से प्रदर्शित होती है। इसके परिणामस्वरूप अनेक वृद्ध लोगों में प्रतिकूल आत्म प्रत्यय बन जाता है और यह कुसमायोजित व्यवहार जिसकी गंभीरता की श्रेणियाँ भिन्न-भिन्न होती हैं, के रूप में व्यक्त किया गया है। ऐसे व्यक्ति जो प्रारंभ से ही कुसमायोजित रहे हैं वे और अधिक कुसमायोजित हो जाते हैं। ऐसा क्यों होता है इसको स्पष्ट करते हुए बटलर ने कुछ निम्नलिखित कारण बताए हैं-

  1. युवाओं के प्रभुत्व वाले समाज में गिरती हुई प्रतिष्ठा के कारण।
  2. अपनी पत्नियों के लिए वित्तीय सुरक्षा की इच्छाएं।
  3. आंशिक असहायता अथवा दर्द से बचने की इच्छा।

वृद्धावस्था में अच्छा समायोजन न होने के कारण वृद्ध लोगों में संवेगात्मक एवं मानसिक समस्याएं देखी जाती है। अनेक मस्तिष्क सम्बन्धी रोग हो जाते हैं।

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Anjali Yadav

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