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नियंत्रण प्रक्रिया का अर्थ एंव लक्षण | Meaning and characteristics of control process in Hindi

नियंत्रण प्रक्रिया का अर्थ एंव लक्षण | Meaning and characteristics of control process in Hindi
नियंत्रण प्रक्रिया का अर्थ एंव लक्षण | Meaning and characteristics of control process in Hindi

नियंत्रण प्रक्रिया का उल्लेख कीजिए एवं नियंत्रण के प्रमुख लक्षणों का वर्णन कीजिए।

 हेनरी फेयोल के अनुसार, “किसी संस्था में नियंत्रण से आशय इस तथ्य की जांच करने से है कि प्रत्येक कार्य स्वीकृत योजनाओं, निर्गमित निर्देशों तथा निर्धारित सिद्धान्तों के अनुरूप हो रहा है अथवा नहीं। इसका उद्देश्य कमजोरियों और त्रुटियों का पता लगाना है जिससे उनको सुधारा जा सके और भविष्य में उनकी पुनरावृत्ति को रोका जा सके। इसके क्षेत्र में, हर चीज-वस्तुएं, व्यक्ति और कार्य, शामिल हैं।”

बिली ई० गोइट्ज नियोजन एवं नियंत्रण के अन्तर को स्पष्ट करते हुए लिखते हैं, प्रबन्धकीय नियोजन सुसंगत, संघटित और चातुर्यपूर्ण कार्यक्रमों के निर्धारण का प्रयास होता है जबकि प्रबन्धकीय नियंत्रण घटनाओं को भोजनाओं के अनुरूप घटित होने की ओर बाध्य करने का प्रयास होता है। और जी० आर० टेरी के अनुसार, “नियंत्रण से आशय इस बात का पता लगाना है कि उपलब्धि क्या हुई है, अर्थात् निष्पादन, निष्पादित कार्य का मूल्यांकन और, यदि आवश्यक हो तो सुधारात्मक कदमों को उठाना ताकि निष्पादन नियोजन के अनुकूल हो सके। तथा थियोहैमन नियंत्रण के सम्बन्ध में लिखते हैं, “नियंत्रण जांच द्वारा यह निर्धारित करने की प्रक्रिया है कि योजनाओं का पालन किया जा रहा है या नहीं, उद्देश्यों और लक्ष्यों की प्राप्ति की दिशा में उपयुक्त प्रगति हो रही है या नहीं, और यदि आवश्यक हो तो अन्तर को सुधारने के लिए आवश्यक कदम उठाना।” नियंत्रण इस प्रकार, वह कार्य है जो संस्था के निष्पादन को पूर्व निर्धारित नियोजन के प्रमापों के अनुरूप समायोजित करने का प्रयत्न करता है।

नियंत्रण के प्रमुख लक्षण

नियंत्रण के प्रमुख लक्षण निम्न प्रकार हैं-

(1) उद्देश्य (Object) – इसका मुख्य उद्देश्य इस बात को सुनिश्चित करना होता है कि क्रियाओं के परिणाम यथासम्भव निर्धारित लक्ष्यों, कार्यविधियों, तथा निर्गमित निर्देशों के अनुरूप ही प्राप्त हो रहे हैं।

(2) अंग (Elements) – नियंत्रण प्रक्रिया के तीन प्रमुख अंग होते हैं— (1) प्रमापों की स्थापना जो कि वांछित निष्पादन का प्रतिनिधित्व करते हैं, (2) निष्पादित कार्य का मूल्यांकन तथा निर्धारित प्रमापों से वास्तविक परिणामों की तुलना तथा अन्तरों का पता लगाना, और (3) पिछली त्रुटियों के लिए सुधारात्मक कार्यवाही करना तथा भविष्य में उनकी पुनरावृत्ति को रोकना।

(3) दायित्व (Responsibility) – नियंत्रण, रेखाधिकारी का ही कार्य और उत्तरदायित्व माना जाता है क्योंकि कार्य निष्पादन के लिए वही उत्तरदायी होता है। अतः नियंत्रण द्वारा यह सुनिश्चित करने कि कार्य निर्धारित प्रमापों, निश्चित नियमों एवं कार्यविधियों तथा निर्गमित निर्देशों एवं आदेशों के अनुसार ही हो रहा है, का भी दायित्व रेखाधिकारी का ही होता है। इसका तात्पर्य यह स्तर पर नहीं है कि नियंत्रण केवल मुख्य प्रबंधक ही करता है, बल्कि नियंत्रण प्रबन्ध के हश्र रेखाधिकारियों द्वारा सम्पन्न होता है। स्तर के रेखाधिकारी का अपने कार्य हर स्तर द्वारा कार्य क्षेत्र में नियंत्रण निष्पादन को नियोजन के अनुरूप लाने का दायित्व होता है।

(4) क्षेत्र (Spheres) – नियंत्रण एक व्यापक क्रिया है और इसका क्षेत्र भी तदानुसार बहुत विस्तृत है। नियंत्रण हर चीज, हर व्यक्तिं, हर कार्य, हर प्रक्रिया और हर समय संचालित होता है। जैसा कि हेनरी फेयोल ने इस सन्दर्भ में लिखा है, “प्रबन्धकों के दृष्टिकोण से, यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि नियोजन विद्यमान है, इसको कार्यान्वित किया जा रहा है और आधुनिकतम रखा जा रहा है, मानवीय संगठन पूर्ण है, संक्षिप्त वैयक्तिक चार्ट प्रयोग में लाए जा रहे हैं, प्रबन्ध श्रृंखला में आदेश सिद्धान्तों के अनुसार प्रयोग में लाए जा रहे हैं, और समन्वय सम्मेलन हो रहे हैं, आदि-आदि। व्यावसायिक दृष्टिकोण से यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि बाहर से आने ओर जाने वाली सामग्री की जांच मात्रा, गुण और मूल्य की दृष्टि से की जा रही है, भंडार के अभिलेख ढंग से रखे जा रहे हैं तथा आश्वासन पूरे किए जा रहे हैं।

(5) निरन्तर और गतिशील प्रक्रिया (A Continuous and Dynamic Activity) – नियोजन की भांति नियंत्रण भी एक निरन्तर चलने वाली प्रक्रिया है। कुंटज और ओडोनेल के शब्दों में, “जैसे एक नाविक निरन्तर यह निश्चित करने के लिए अध्ययन करता रहता है कि वह निर्धारित मार्ग की ओर अग्रसर है, वैसे ही एक व्यावसायिक प्रबन्धक भी निरन्तर यह निश्चित करने के लिए अध्ययन करता है कि उसकी संस्था या विभाग सही मार्ग पर है।” चूँकि नियंत्रण नियोजन पर आधारित होता है और नियोजन सदैव ही गतिशील होता है, अतः नियंत्रण भी सदैव गतिशील होता है। गोइट्ज के अनुसार, “प्रबन्धकीय नियोजन का कोई जटिल कार्यक्रम किन्हीं विशेष परिस्थितियों में यदि असफल हो जाता है, तो नियंत्रण व्यवस्था को ऐसी असफलताओं को तुरन्त सूचित करना चाहिए तथा उसमें पर्याप्त लोच का तत्व भी होना चाहिए जिससे नियंत्रण व्यवस्था क्रियाओं के असफल होने के बाद भी प्रबन्धकीय नियंत्रण को बनाए रख सके।”

(6) अग्रावलोकी (Forward Looking)- नियंत्रण अग्रावलोकी होता है। क्योंकि प्रबन्ध का उन घटनाओं पर कोई नियंत्रण नहीं हो सकता जो पहले ही घटित हो चुकी हैं। वह अनुभव प्राप्ति के लिए भूतकालीन घटनाओं की समीक्षा और विश्लेषण करता है जिससे कि भविष्य में उन त्रुटियों की पुनरावृत्ति को रोका जा सके और उनमें यथासम्भव सुधार किए जा सकें। इस प्रकार, नियंत्रण भविष्य में होने वाली हानियों, बर्बादियों, कमियों और अन्तरों को रोकने के लिए तथा निष्पादन को श्रेष्ठतर करने के लिए प्रयोग किया जाता है। चूँकि नियंत्रण अग्रावलोकी होता है अतः यह आवश्यक है कि अन्तरों का शीघ्र से शीघ्र पता लगाया जाय।

(7) पारस्परिक निर्भरता (Interdependence) – नियंत्रण स्वतन्त्ररूप से प्रयोग नहीं किया जा सकता। इसके लिए नियोजन, संगठन और समन्वय का विद्यमान होना परमावश्यक है। यदि कोई लक्ष्य प्राप्ति के लिए निर्धारित नहीं है, कोई नियम और कार्यविधियां अनुसरण करने के लिए नहीं है, कोई संगठन नहीं है, तो नियंत्रण का भी कोई आधार या उद्देश्य नहीं हो सकता। ऐसी स्थिति में नियंत्रण भ्रान्तियों, संदेहों और संघर्षों को ही जन्म देगा।

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Anjali Yadav

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