शिक्षण के विभिन्न चरण या अवस्थाओं की विवेचना कीजिए ।
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शिक्षण की अवस्थाएँ (Stages or Phases of Teaching)
शिक्षण की प्रकृति पर विचार करने पर शिक्षण की अवस्था और उसकी प्रक्रिया तथा पक्षों पर स्वतः ध्यान जाता है। शिक्षण की अनेक अवस्थाएँ हैं और इनका आपस में घनिष्ठ सम्बन्ध है। हम जानते हैं कि शिक्षणं एक प्रक्रिया है जो शिक्षा अधिगम को एक साथ लेकर चलती है। इसलिए शिक्षण की प्रक्रिया का व्यवस्थित विश्लेषण तीन अवस्थाओं द्वारा किया जाता है। ये अवस्थाएँ इस प्रकार हैं-
- शिक्षण की पूर्व क्रिया अवस्था (Pre-active Stage of Teaching)
- शिक्षण की अन्तःक्रियात्मक अवस्था (Inter-active Stages of Teaching)
- शिक्षण की क्रिया-पश्चात् अवस्था (Post-active Stages of Teaching )
1. शिक्षण की पूर्व क्रिया अवस्था (Pre-active Stage of Teaching)
पूर्व क्रिया अवस्था में शिक्षक छात्रों को ज्ञान प्रदान करने के लिए शिक्षण की योजना बनाता है और पढ़ाने की तैयारी करता है। इस अवस्था में वे सभी क्रियायें आती हैं जो शिक्षक कक्षा में जाने से पूर्व करता है। शिक्षण की क्रिया अवस्था को ‘शिक्षण-नियोजन-व्यवस्था’ भी कहा जाता है। शिक्षण की इस अवस्था के अन्तर्गत शिक्षक शिक्षण योजना का चयन करता है, उसका नियोजन करता है ताकि अभीष्ट उद्देश्यों को वह प्राप्त कर सके। इस समय शिक्षक को सुनियोजित तथा सफल बनाने के लिए चिन्तन करता है, सम्बन्धित साहित्य का अध्ययन करता है और दूसरों से विचार-विमर्श करता है। इसलिए इसे प्रयत्नात्मक या करने की अवस्था भी कहते हैं।
शिक्षण की पूर्व क्रिया अवस्था में निम्नलिखित क्रियाओं को सम्मिलित किया जाता है-
1. शिक्षण के उद्देश्यों का निर्धारण- शिक्षक कक्षा में जाने से पूर्व अपने अध्यापन के उद्देश्य निर्धारित करता है। वह उद्देश्यों को व्यावहारिक परिवर्तन के सन्दर्भ में परिभाषित करता है। छात्रों के पूर्व ज्ञान, पूर्व व्यवहार तथा अनुभव, कक्षा स्तर, आयु, मानसिक योग्यताओं आदि के आधार पर वह उद्देश्य बनाता है।
2. पाठ्यवस्तु के सम्बन्ध में निर्णय लेना- शिक्षण के उद्देश्यों को निर्धारित करने के पश्चात् शिक्षक उसे पाठ्यवस्तु के सम्बन्ध में निर्णय लेता है जिसे वह विद्यार्थियों के सामने प्रस्तुत करके उनके व्यवहार में परिवर्तन करना चाहता है। इस निर्णय को शिक्षक निम्नलिखित बातों को ध्यान में रखते हुए लेता है-
- शिक्षक द्वारा विद्यार्थियों के लिए प्रस्तावित पाठ्यक्रम की क्या आवश्यकता है ?
- विद्यार्थियों का पूर्व व्यवहार क्या है ?
- विद्यार्थियों को उसे सीखने की आवश्यकता क्यों है ?
- विद्यार्थियों को किस स्तर की प्रेरणा प्रभावशाली हो सकती है ?
- पाठ्यवस्तु से सम्बन्धित ज्ञान का मूल्यांकन कौन-कौन सी विधियों द्वारा करे ?
3. प्रस्तुतीकरण के लिए पाठ्यवस्तु के तत्त्वों की व्यवस्था- विद्यार्थियों के सामने प्रस्तुत पाठ्यवस्तु के सम्बन्ध में निर्णय लेने के पश्चात् शिक्षक पाठ्यवस्तु के अवयवों को तर्कपूर्ण एवं मनोवैज्ञानिक दृष्टि से क्रमबद्ध रूप में व्यवस्थित करता है जिससे पाठ्यवस्तु की व्यवस्था सीखने के स्थानान्तरण में सहायक सिद्ध हो जाये।
4. शिक्षण युक्तियों का चुनाव- शिक्षक को कक्षा में जाने से पहले ही इस बात का निर्णय करना चाहिए कि पाठ्यवस्तु के किन-किन शिक्षण बिन्दुओं को स्पष्ट करने के लिए शिक्षण के समय कौन-सी शिक्षण-युक्तियाँ (Tactics), प्रविधियाँ, उदाहरण तथा सहायक सामग्री का प्रयोग करेगा ? कक्षा में कब प्रश्न करेगा, व्याख्यान देगा और किस समय कौन-सी श्रव्य-दृश्य सामग्री का प्रयोग करेगा ? शिक्षक को पहले से योजना बना लेनी चाहिए कि वह शिक्षण कैसे और किन प्रविधियों के माध्यम से करेगा।
5. शिक्षणयुक्तियों का वितरण- शिक्षक को यह भी निश्चित करना चाहिए कि वह कक्षा-शिक्षण के समय किन-किन विधियों तथा प्रविधियों का कब और कैसे प्रयोग करेगा ? दूसरे शब्दों में वह कब और किस प्रकार का प्रश्न विद्यार्थियों से पूछेगा ? कब और कहाँ चार्ट अथवा मानचित्र का प्रयोग करेगा ? कब भाषण देगा ? कब और कैसे श्यामपट्ट का प्रयोग करेगा तथा कब मूल्यांकन प्रश्न पूछेगा ? आदि आदि ।
2. शिक्षण की अन्तः क्रियात्मक अवस्था (Inter-active Stages of Teaching )
शिक्षण की इस अवस्था में वे सभी व्यवहार, क्रियाएँ एवं वस्तुएँ निहित होती हैं जिनका उपयोग शिक्षक कक्षा में करता है। ये सभी कार्य किसी को पढ़ाने या वांछित अनुभव प्रदान करते समय किये जाते हैं। इस अवस्था में शिक्षक तथा छात्र आमने-सामने होते हैं। इसी अवस्था में शिक्षक अनेक व्यूहों (Strategies) का उपयोग करता है। वांछित व्यवहार में परिवर्तन के लिए वह पूर्व क्रिया अवस्था में नियोजित सभी उपयोगों का विनियोग कक्षा में करता है। इसी अवस्था में शिक्षक तथा छात्र के मध्य अनेक अन्तःक्रियाएँ (Interactions) होती हैं।
जैकसन ने इस सन्दर्भ में कहा है- “शिक्षक छात्रों को अनेक मौखिक उद्दीपन प्रदान करता है। व्याख्या करता है, प्रश्न पूछता है और छात्रों की अनुक्रियाओं को सुनकर उनको मार्गदर्शन देता है।” शिक्षण की यह अवस्था अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। शिक्षण की अन्तःक्रियात्मक अवस्था में शिक्षक द्वारा कक्षा के अन्तर्गत की जाने वाली मुख्य क्रियाएँ निम्नलिखित हैं-
1. कक्षा में आकार की अनुभूति- कक्षा में शिक्षक जैसे ही प्रवेश करता है वह वहाँ हुए छात्रों पर एक सरसरी निगाह डालता है। इस प्रकार आकार की अनुभूति करते हुए बैठे पता चल जाता है कि कक्षा के अच्छे और कमजोर छात्र कहाँ-कहाँ बैठे हुए हैं ? कहाँ-कहाँ से उसे शिक्षण व्यवस्था में सहायता मिलेगी ? और कौन छात्र उसे सहयोग नहीं दे पायेंगे ? इस प्रकार से वह कक्षा में भौतिक नियोजन कर लेता है।
दूसरी ओर छात्र भी शिक्षक को देखकर यह जानने का प्रयत्न करते हैं कि यह शिक्षक कितना योग्य है ? कितनी प्रभु वशीलता के साथ पढ़ा सकेगा ? अतः शिक्षक को कक्षा में काफी जागरूक रहना चाहिए। शिक्षक के हाव-भाव, वेषभूषा, बोलने का ढंग आदि प्रभावशाली होने चाहिए तभी छात्र प्रभावित हो सकेंगे और कुछ नया सीख सकेंगे।
2. अधिगन्ताओं का निदान- कक्षा के आकार की अनुभूति होने के पश्चात् यह जानने का प्रयास करता है कि अधिगन्ताओं अथवा विद्यार्थियों को विषय के सम्बन्ध में पूर्व ज्ञान कितना है। इस बात को वह निम्नलिखित तीन क्षेत्रों में जानने का प्रयास करता हैं-
- अधिगन्ताओं की योग्यताएँ।
- अधिगन्ताओं की रुचियाँ तथा अभिवृत्तियाँ।
- अधिगन्ताओं की पृष्ठभूमि।
उपर्युक्त क्षेत्रों की जानकारी अथवा निदान प्रश्नों के द्वारा निम्नलिखित क्रम से करते हुए शिक्षक कक्षा-शिक्षण की अनुक्रियायें आरम्भ करता है-
शिक्षक
प्रत्यक्षीकरण ↔ निदान ↔ अनुक्रिया
3. क्रिया तथा प्रतिक्रिया शिक्षण में दो प्रकार की क्रियायें होती हैं- (1) क्रिया तथा ( 2 ) अनुक्रिया। ये दोनों क्रियायें शिक्षक तथा विद्यार्थियों के बीच होती हैं। इन दोनों प्रकार की क्रियाओं को शाब्दिक अन्तःप्रक्रिया कहते हैं। दूसरे शब्दों में जब शिक्षक कुछ क्रियायें करता है तो विद्यार्थी उसके प्रति अनुक्रिया करते हैं अथवा जब विद्यार्थी कुछ क्रियायें करते हैं तब शिक्षक उनके प्रति अनुक्रिया करता है। इस प्रकार शिक्षण की अन्तःप्रक्रिया चलती रहती है।
“शिक्षण की क्रियाओं के शाब्दिक तथा अशाब्दिक अन्तःप्रक्रिया के स्वरूप का विश्लेषण करने के लिए शिक्षक निम्नलिखित क्रियाएँ करता है-
1. उद्दीपकों का चुनाव- शिक्षण उद्दीपन तथा अनुक्रिया (S. R.) पर आधारित है। इसमें शिक्षक छात्रों के समक्ष शाब्दिक तथा अशाब्दिक उद्दीपक प्रस्तुत करता है। शिक्षण की प्रक्रिया की सफलता इन्हीं उद्दीपकों के चयन पर निर्भर करती है। अतः शिक्षक को चाहिए कि वह ऐसे उद्दीपकों का प्रयोग करे जो कक्षा में अधिक प्रभावपूर्ण सिद्ध हों।
2. उद्दीपकों का प्रस्तुतीकरण- उद्दीपन के चयन के पश्चात् शिक्षक को उद्दीपक प्रस्तुत करते समय काफी सावधान रहना चाहिए। सबसे पहले तो उसे उद्दीपक के बारे में ज्ञान होना चाहिए कि उसे किस प्रकार कक्षा में प्रस्तुत किया जाय। यदि उद्दीपक गलत तरीके से प्रस्तुत कर दिया गया तो उसकी अनुक्रियायें भी गलत हो जायेंगी। अतः उद्दीपक प्रस्तुत करते समय उनके स्वरूप, सन्दर्भ तथा क्रम का ध्यान रखना चाहिए।
3. पृष्ठपोषण तथा पुनर्बलन- पृष्ठपोषण तथा पुनर्बलन (Feed-back and reinforcement)- वह स्थिति अथवा दशा है जो इस बात की सम्भावना को बढ़ावा देती है कि एक विशेष क्रिया को भविष्य में स्वीकार किया जायेगा। दूसरे शब्दों में, जो परिस्थितियाँ विशेष अनुक्रिया की सम्भावना में वृद्धि करती हैं उन्हें पृष्ठपोषण तथा पुनर्बलन की संज्ञा दी जाती हैं। ये परिस्थितियाँ निम्नलिखित दो प्रकार की होती हैं-
- धनात्मक पुनर्बलन (Positive Reinforcement)
- ऋणात्मक पुनर्बलन (Negative Reinforcement)
(i) धनात्मक पुनर्बलन- ये वे परिस्थितियाँ हैं जो वांछनीय व्यवहार अथवा अनुक्रिया के दुबारा होने की सम्भावना में वृद्धि करती हैं।
(ii) ऋणात्मक पुनर्बलन- ये वे परिस्थितियाँ हैं जिनमें अवांछनीय व्यवहार अथवा अनुक्रिया दुबारा होने की सम्भावना कम होती है; जैसे- दण्ड अथवा डाँटना।
4. शिक्षण युक्तियों का विस्तार शिक्षक कक्षा में छात्रों को नया ज्ञान देने के लिए विभिन्न प्रकार की शिक्षण युक्तियों का प्रयोग करता है जिससे उसकी शिक्षण क्रियाएँ अधिक उपयोगी बन सकें। शिक्षण युक्तियों का विस्तार करते समय शिक्षक को पाठ्यवस्तु के प्रस्तुतीकरण अधिगम के प्रकार तथा छात्रों की पृष्ठभूमि (पूर्व ज्ञान, आयु, कक्षा आदि), उसकी आवश्यकताएँ, अभिप्रेरणाएँ अभिवृत्तियाँ आदि का ध्यान रखना चाहिए तभी वह सही युक्तियों का चयन एवं विस्तार कर सकेगा।
3. शिक्षण की क्रिया पश्चात् अवस्था (Post-active Stages of Teaching)
जब शिक्षक अपना कार्य समाप्त कर लेता है तब वह यह जानना चाहता है कि जो कुछ उसने पढ़ाया है, उसका प्रभाव छात्रों पर क्या हुआ है ? छात्रों में कौन से व्यवहार में परिवर्तन हुआ है ? शिक्षण की इस अवस्था में छात्रों की निष्पत्ति का मूल्यांकन किया जाता है। छात्रों की निष्पत्ति अथवा वांछित परिवर्तन की जाँच के लिए प्रश्नों द्वारा ज्ञान तथा व्यावहारिक कार्य द्वारा कौशलों की जाँच की जाती है।
1. शिक्षण द्वारा व्यवहार परिवर्तन के वास्तविक रूप की परिभाषा- शिक्षण समाप्त होने के बाद शिक्षक शिक्षण द्वारा व्यवहार परिवर्तन के वास्तविक रूप को परिभाषित करता है, जिसे ‘मानदण्ड व्यवहार’ कहते हैं। इसके लिए वह छात्रों में आये वास्तविक परिवर्तनों की तुलना अपेक्षित व्यवहार परिवर्तन से करता है। यदि अधिकतर छात्रों में वांछित परिवर्तन आ गया है तो इसका तात्पर्य है कि शिक्षण सफल रहा और उद्देश्य की प्राप्ति हो गयी। यदि इसके विपरीत आये तो वह शिक्षण की असफलता की ओर इशारा करता है।
2. मूल्यांकन की उपर्युक्त प्रविधियों का चयन- विद्यार्थियों के वास्तविक व्यवहार परिवर्तन की अपेक्षित व्यवहार परिवर्तन से तुलना करने के लिए शिक्षक ऐसी परीक्षण प्रविधियों का चयन करता है जो विश्वसनीय तथा वैध हों तथा जो विद्यार्थियों के ज्ञानात्मक पक्षों का मूल्यांकन कर सके। इसके लिए निष्पत्ति परीक्षा की अपेक्षा मानदण्ड परीक्षा को अधिक महत्त्व दिया जाना चाहिए।
3. प्राप्त परिणामों से शिक्षण नीतियों में परिवर्तन- मूल्यांकन के द्वारा शिक्षक को अपने शिक्षण की कमियाँ तथा सीमाओं का ज्ञान प्राप्त होता है अतः एक अच्छा शिक्षक मूल्यांकन से जानकारी प्राप्त करके अपने शिक्षण की नीतियों, व्यूह रचनाओं तथा प्रविधियों आदि में सुधार लाकर शिक्षण को और अधिक प्रभावशाली बनाने में लग जाता है।
उपर्युक्त सभी क्रियाएँ तथा अवस्थाएँ एक-दूसरे से सम्बन्धित हैं। एक अच्छा शिक्षक इन तीनों अवस्थाओं में क्रियाओं को व्यवस्थित एवं समायोजित करके अपने शिक्षण को प्रभावपूर्ण बनाने का प्रयत्न करता है।
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