अन्तर्राष्ट्रीय विधि की परिभाषा दीजिए। क्या अन्तर्राष्ट्रीय विधि यथार्थ में एक विधि है? अथवा “अन्तर्राष्ट्रीय विधि कोई नहीं है, वरन् यह राज्यों के पारस्परिक सम्बन्धों में उनके आचरण को विनियमित करती है।” इस कथन के सन्दर्भ में अन्तर्राष्ट्रीय विधि की प्रकृति की विवेचना कीजिए। अथवा अन्तर्राष्ट्रीय विधि की परिभाषा दीजिए। अन्तर्राष्ट्रीय विधि के स्वरूप (प्रकृति) सम्बन्धी विचारधाराओं का आलोचनात्मक विश्लेषण कीजिए।
इंग्लैण्ड के प्रसिद्ध विधिशास्त्री जर्मी बेन्थम द्वारा 1789 में सर्वप्रथम अन्तर्राष्ट्रीय विधि शब्द का प्रयोग किया गया, जो कि ‘राष्ट्रों की विधि’ (Law of Nations) का ही पर्यायवाची है। तत्पश्चात् यह शब्द उन नियमों का बोध कराने के लिए प्रयोग होने लगा जिनके द्वारा अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय के सदस्यों के पारस्परिक सम्बन्ध नियन्त्रित होते हैं। इसी प्रकार के शब्द जर्मन भाषा में ‘ Volk errecht’ तथा फ्रांसीसी भाषा में ‘Droit gens’ के रूप में प्रयोग किये गए हैं। यह प्रमुखत: समान व्यवहार पर ही आधारित है। अन्तर्राष्ट्रीय विधि की प्रकृति (Nature) को समझने के लिए इसकी विभिन्न परिभाषाओं पर विचार करना आवश्यक है।
अन्तर्राष्ट्रीय विधि को विभिन्न विद्वानों द्वारा निम्न प्रकार से परिभाषित किया गया है-
हेन्स केल्सन के अनुसार, “अन्तर्राष्ट्रीय विधि अथवा राज्यों की विधि ऐसे नियमों के समूह का नाम है, जो राज्यों के पारस्परिक सम्बन्धों में उनके आचरण को नियन्त्रित करते हैं।”
व्हाइटमैन के अनुसार, “अन्तर्राष्ट्रीय विधि किसी निश्चित समय पर राज्यों एवं अन्य इकाइयों, जो इसके अन्तर्गत आती हैं, के आचरण का स्तर है। “
लारेंस के अनुसार, “अन्तर्राष्ट्रीय विधि वे विधियाँ हैं, जो सुसंस्कृत देशों में जातियों व समूहों के आचार और उनके आपसी व्यवहार को मर्यादित करती हैं।”
ओपेनहाइम के अनुसार, “अन्तर्राष्ट्रीय विधि या राज्यों की विधि ऐसे रूढ़िजन्य और परम्परागत नियमों के समूह को कहते हैं जिन्हें सभ्य राष्ट्रों द्वारा पारस्परिक व्यवहार में बन्ध री माना जाता है।”
वर्तमान समय में अन्तर्राष्ट्रीय विधि की सबसे उपयुक्त परिभाषा फेन्विस ने दी है जिसके अनुसार, “अन्तर्राष्ट्रीय विधि की परिभाषा विस्तृत शब्दों में, सामान्य सिद्धान्तों तथा विनिर्दिष्ट नियमों के समूह से दी जा सकती है जो अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय के पारस्परिक सम्बन्धों पर बाध्यकारी होते हैं।
अतः निष्कर्ष के रूप में यह कहा जा सकता है कि अन्तर्राष्ट्रीय विधि की उपर्युक्त सभी परिभाषाओं में चार्ल्स जी. फेन्विक की परिभाषा ही सबसे अधिक उपयुक्त है। फेन्विक ने “अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय के सदस्य” शब्दों का प्रयोग किया है। इसमें प्रभुत्व सम्पन्न राज्य, व्यक्ति, अन्तर्राष्ट्रीय संस्थायें, गैर-राज्य इकाइयाँ आदि सभी आ जाते हैं। इसके अतिरिक्त इस परिभाषा के अन्तर्गत सामान्य सिद्धान्त भी आ जाते हैं।
क्या अन्तर्राष्ट्रीय विधि यथार्थ में विधि है अथवा नहीं?
विधिवेत्ताओं के मध्य इस बात को लेकर विवाद है कि ‘अन्तर्राष्ट्रीय विधि यथार्थ में ‘विधि है अथवा नहीं है’। यदि हम हाब्स, आस्टिन तथा प्यूफेनडार्फ के मत कि “विधि प्रभुत्व सम्पन्न शासक का आदेश है तथा एक उच्च राजनीतिक सत्ता द्वारा कार्यान्वित करायी जाती है।” को उचित मानते हैं तो अन्तर्राष्ट्रीय विधि को ‘विधि’ की कोटि में नहीं रखा जा सकता है। परन्तु यदि हम स्वीकार करते हैं कि विधि की परिभाषा को उच्च राजनीतिक सत्ता द्वारा किये गये आदेश तक सीमित नहीं किया जा सकता है तथा इसकी परिभाषा को इससे कहीं अधिक व्यापक होना चाहिए तो अन्तर्राष्ट्रीय विधि को ‘विधि’ स्वीकार किया जा सकता है। अत: यह स्पष्ट है कि यह मतभेद कि अन्तर्राष्ट्रीय विधि”विधि है अथवा नहीं”, इस बात पर आधारित है कि कोई विधिशास्त्री विधि की क्या परिभाषा देता है। इस विषय में विधिशास्त्रियों के दो मुख्य वर्ग है जिसे निम्नत: स्पष्ट किया जा सकता है-
(क) ‘अन्तर्राष्ट्रीय विधि, विधि नहीं है’- विधिशास्त्री हॉब्स, प्यूफेनडार्फ एवं आस्टिन के अनुसार, “विधि एक प्रभुसत्ता वाले शासक का आदेश है जो कि एक ज्येष्ठ राजनीतिक सत्ता द्वारा लागू करवाया जाता है।” आस्टिन के अनुसार, विधि एक राजनीतिक ज्येष्ठ सत्ता द्वारा राजनीतिक अवरों को दी जाती है तथा लागू करवायी जाती । आस्टिन के अनुसार, विधि के पालन में अनुशास्ति (sanction) का महत्वपूर्ण स्थान होता है। लोग विधि का पालन इसलिए करते हैं, क्योंकि उन्हें भय रहता है कि पालन न करने पर अथवा विधि का उल्लंघन करने पर ज्येष्ठ राजनीतिक सत्ता द्वारा उन्हें पालन करने पर विवश किया जा सकता है तथा सजा दी जा सकती है। अस्टिन के अनुसार, निश्चयात्मक विधि (Positive Law) की तीन विशेषताएँ होती हैं-
(1) यह एक प्रकार का आदेश होता है; (2) यह एक राजनीतिक प्रभुसत्ता वाले शासक द्वारा दिया जाता है तथा (3) यह एक अनुशास्ति द्वारा लागू किया जाता है। आस्टिन द्वारा दी गयी विधि की परिभाषा से प्रभावित होकर अस्तित्ववादियों ने यह मत प्रकट किया है कि अन्तर्राष्ट्रीय विधि को निश्चयात्मक विधि की कोटि में नहीं रखा जा सकता है क्योंकि यह प्रभुत्वसम्पन्न शासक द्वारा नहीं बनायी गयी है तथा इसमें अनुशास्ति नहीं होती है। अत: वे विधिशास्त्री जो अन्तर्राष्ट्रीय विधि को सच्चे अर्थों में विधि नहीं मानते हैं, विधि को एक प्रभुसत्ता वाले शासक का आदेश मानते हैं तथा जिसको एक ज्येष्ठ राजनीतिक सत्ता द्वारा मनवाया जा सकता है। इस मत के विधिशास्त्रियों में हालैण्ड, जर्मी बेंथम तथा जेथरो ब्राउन के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।
यह विधिशास्त्री अपने मत के पक्ष में निम्नलिखित तर्क देते हैं-
- राज्य विधि में एक ऐसी राजनीतिक सत्ता होती है जो कि नागरिकों को विधि का पालन करने के लिए बाध्य करती है परन्तु अन्तर्राष्ट्रीय विधि में इस प्रकार की राजनीतिक सत्ता का अभाव है।
- अन्तर्राष्ट्रीय विधि में विधायिनी संस्था का भी अभाव है।
- अन्तर्राष्ट्रीय विधि में अनुशास्ति का अभाव है।
- अन्तर्राष्ट्रीय विधि में ऐसी कोई कार्यपालिका शक्ति नहीं है जो राज्यों को अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय द्वारा दिये गये निर्णयों तथा सन्धियों के प्रावधानों को कार्यान्वित करा सके।
- अन्तर्राष्ट्रीय विधि में एक सक्षम न्यायालय का अभाव है।
- कुछ विधिशास्त्री अन्तर्राष्ट्रीय विधि को ‘विधि सदृश’ (Quasi law) मानते है।
क्योंकि इसमें सामान्य विधि प्रणाली के महत्वपूर्ण तत्वों (जैसे विधायिनी आदि) का अभाव है।
आलोचना – उपर्युक्त मत कि, अन्तर्राष्ट्रीय विधि सच्चे अर्थों में विधि नहीं है, उचित नहीं प्रतीत होता। उपर्युक्त मत का आधार शब्द ‘विधि’ की यह परिभाषा है कि विधि प्रभुसत्ता वाले शासक का आदेश है, जो ज्येष्ठ राजनीतिक सत्ता द्वारा मनवाया जाता है, अर्थात् विधि के पालन में सदैव भय निहित होता है। विधि की यह परिभाषा बड़ी ही संकुचित है। ओपेनहाइम के शब्दों में “यह परिभाषा उचित नहीं है। इसमें राज्य विधि का वह भाग नहीं शामिल है जो अलिखित तथा प्रथा विधि कहलाता है। वास्वत में ऐसा कोई समुदाय, कोई राज्य नहीं है जो लिखित विधि पर ही आधारित रह सके। “प्रो. हार्ट ने आस्टिन की परिभाषा की आलोचना की है तथा लिखा है कि यह परिभाषा केवल आपराधिक अधिनियमों के लिए उपयुक्त है।”
(ख) अन्तर्राष्ट्रीय विधि यथार्थ में विधि है- वर्तमान में जबकि अन्तर्राष्ट्रीय विधि का समुचित विकास हो चुका है ज्यादातर विधिवेत्ता अन्तर्राष्ट्रीय विधि के विधिक स्वरूप से सहमति प्रकट करते हैं। जहाँ तक विधि के पीछे अनुशास्ति या भौतिक बल की बात है, यह कहा जा सकता है कि यह विधि का आवश्यक तत्व नहीं है। कुछ हद तक राष्ट्र संघ में और अब संयुक्त राष्ट्र चार्टर में उल्लंघनों को रोकने के लिए भौतिक बल तथा अनुज्ञप्ति का प्रावधान है।
स्टार्क ने आस्टिन की विधि की धारणा की आलोचना की है तथा अन्तर्राष्ट्रीय विधि वास्तव में विधि होने के पक्ष में अपना मत प्रकट किया है। स्टार्क ने अग्रलिखित तर्क प्रस्तुत किया है-
(1) आधुनिक ऐतिहासिक विधिशास्त्र ने यह सिद्ध कर दिया है कि बहुत से समुदाय में बिना औपचारिक विधायिनी शक्ति के एक विधि की प्रणाली विद्यमान है और इस प्रकार की विधि राज्य की सच्ची विधायिनी शक्ति द्वारा बनायी विधि से भिन्न नहीं है।
(2) आस्टिन के विचार चाहे उसके समय में उपयुक्त रहे हों, परन्तु अब उचित नहीं है। विधि निर्माण करने वाली सन्धियों के फलस्वरूप अन्तर्राष्ट्रीय विधायिनी भी अब कुछ हद तक मौजूद हैं।
(3) अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों को बनाये रखने के लिए जो संस्थाएँ जिम्मेदार हैं वे भी अन्तर्राष्ट्रीय विधि को केवल नीति-संहिता नहीं समझती हैं।”
(4) संयुक्त राष्ट्र अन्तर्राष्ट्रीय विधि की सच्चे रूप में वैधानिकता पर आधारित है।
प्रो. ओपेनहाइम ने भी तर्क प्रस्तुत किया है कि अन्तर्राष्ट्रीय विधि, विधि है क्योंकि अभ्यास में इसे निरन्तर विधि की मान्यता प्रदान की जाती है। राज्यों का भी यह मत है कि न केवल नैतिक रूप से वरन् विधि के रूप में भी राज्य अन्तर्राष्ट्रीय विधि को मानने के लिए बाध्य है।
अन्तर्राष्ट्रीय विधि को यथार्थ में विधि मानने वालों के प्रमुख विचार निम्न हैं-
(1) शब्द ‘विधि’ प्रभुसत्ता वाले अधिकारी द्वारा कराये गये आचरण सम्बन्धी नियमों तक सीमित नहीं किया जा सकता है। सर हेनरी मेन (Sir Henry Maine), जिन्होंने ऐतिहासिक विधिशास्त्र में शोधकार्य किया, यह सिद्ध कर दिया है कि उन समुदायों में भी विधि थी जिनमें कोई प्रभुसत्तासम्पन्न अधिकारी नहीं था।
(2) आज के समय में अन्तर्राष्ट्रीय विधि में अधिकतर विधि-निर्माण करने वाली सन्धियों के नियम हैं; जैसे-जेनेवा और हेग-अभिसमय। यह नियम राज्यों के ऊपर कोई प्रभुत्वसम्पन्न सत्ता द्वारा नहीं बनाये गये हैं, फिर भी ये बन्धनकारी हैं।
(3) जैसा कि पोलक (Pollock) का कथन है, जब कोई अन्तर्राष्ट्रीय प्रश्न उठता है तो राज्य नैतिक तर्कों के बजाय अपने तर्कों को आधार सन्धियों पूर्वोक्तियों (precedents) तथा विधिशास्त्रियों के मतों का हवाला देते हैं।
(4) अन्तर्राष्ट्रीय झगड़ों में राज्य अन्तर्राष्ट्रीय विधि के अस्तित्व से इन्कार नहीं करते हैं वरन् वे उसकी इस प्रकार व्याख्या करते हैं कि उनका आचरण उचित सिद्ध हो।
(5) आस्टिन की विधि की धारणा उचित नहीं है, क्योंकि इसके अन्तर्गत प्रथासम्बन्धी नियम नहीं आते हैं। यदि आस्टिन की धारणा को उचित मान लिया जाय तो इंग्लैंड का कामन लॉ (common law) भी विधि की कोटि में नहीं आयेगा।
(6) कुछ राज्य (जैसे अमेरिका और इंग्लैंड) अन्तर्राष्ट्रीय विधि को अपनी विधि का ही भाग मानते हैं। पाकेट हबाना (The paquete Habana) के वाद में न्यायाधीश (Gray) ने ऐसा ही मत प्रकट किया था। न्यायाधीश ग्रे के मौलिक शब्दों में- “अन्तर्राष्ट्रीय विधि हमारी विधि का ही भाग है तथा उसे उपयुक्त अधिकारिता वाले न्याय के न्यायालयों को तब तब निश्चित तथा अभिशासित करना चाहिए जब-जब उन पर आधारित निर्णय के लिए प्रश्न प्रस्तुत हों।” वेस्ट रेन्ड सेण्ट्रल गोल्ड माइनिंग कम्पनी लिमिटेड बनाम रेक्स (West Rand central Gold Mining Co. Lid, Rex) तथा लोला (The Lola) में भी अन्तर्राष्ट्रीय विधि को सच्चे अर्थों में विधि माना गया है।
(7) अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलनों तथा अभिसमयों में भी अन्तर्राष्ट्रीय विधि को सच्चे अर्थों में विधि माना जाता है।
(8) संयुक्त राष्ट्र अन्तर्राष्ट्रीय विधि के सच्चे अर्थों में विधि होने पर आधारित है। उपर्युक्त तर्कों, से यह स्पष्ट है कि अन्तर्राष्ट्रीय विधि सच्चे अर्थों में विधि है।
आलोचना, तर्क, निष्कर्ष तथा मूल्यांकन- उपर्युक्त तर्कों के बावजूद यह मानना पड़ेगा कि अन्तर्राष्ट्रीय विधि, विधि होते हुए भी राष्ट्रीय विधि के समान शक्तिशाली नहीं है। राज्य-विधि के विपरीत अन्तर्राष्ट्रीय विधि एक विकेन्द्रीय राजनीतिक प्रणाली में क्रियाशील होती है। यह भी स्पष्ट है कि इसको मनवाने वाली शक्ति अनुपयुक्त है तथा यह अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों में शान्ति के प्रयोग को दूर करने में असफल रही है। जैसा कि स्टॉर्क ने भी प्रकट किया है कि आवश्यक रूप से अन्तर्राष्ट्रीय विधि एक ‘दुर्बल विधि’ है।
उपर्युक्त तर्कों तथा तथ्यों को ध्यान में रखते हुए हम यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि अन्तर्राष्ट्रीय विधि वास्तविक रूप में विधि है। जहाँ तक अन्तर्राष्ट्रीय विधि के एक ‘दुर्बल विधि’ होने का प्रश्न है यह दुर्बलता हमें तभी प्रकट होती है जब हम इसकी तुलना राज्य विधि से करते हैं।
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