अन्तर्राष्ट्रीय विधि के संहिताकरण का इतिहास
संहिताकरण का इतिहास- अन्तर्राष्ट्रीय कानूनों के संहिताकरण के विचार को सबसे पहले अठारहवीं शताब्दी के अन्त में बेंथम द्वारा प्रतिपादित किया गया। उसने अपने विचार में विश्व शान्ति और सुव्यवस्था बनाये रखने की दृष्टि से अन्तर्राष्ट्रीय कानून के क्रमबद्ध रूप को प्रदर्शित किया। फ्रांस की राज्य क्रान्ति के बाद 1792 के राष्ट्रीय सम्मेलन में राज्यों के अधिकारों की घोषणा पत्र बनाने का निर्णय लिया गया। इसक प्राररूप बनाने का कार्य मि. एब्बग्रेगोयर को सौपा गया। उसने 1795 में 21 अनुच्छेदों का प्रारूप प्रस्तुत किया, किन्तु सम्मेलन ने इसे अस्वीकार कर दिया।
संहिताकरण को वास्तविक रूप देने का कार्य का आरम्भ 1856 में पेरिस घोषणा से हुआ। इस घोषणा में, जिस पर ग्रेट ब्रिटेन, फ्रांस, आस्ट्रेलिया, रूस, प्रशा, सानिया तथा टर्की ने हस्ताक्षर किये, निम्न चार सिद्धान्तों का निर्धारण किया गया।
(1) युद्दरत राष्ट्रों द्वारा व्यक्तिगत स्वामित्व रखने वाले निजी युद्धपोतों द्वारा शत्रु पर आक्रमण करने की प्रथा का अन्त कर दिया जाए।
(2) तटस्थ राष्ट्रों के जहाज शत्रु के लिये विनिषद्ध सामग्री के अतिरिक्त अन्य सामग्री को ढो सकते हैं।
(3) जिस जहाज पर शत्रु का झण्डा लगा हो, उसमें लदे तटस्थ देशों के माल में से केवल विनिषिद्ध पदार्थों को जब्त किया जा सकता है।
(4) यदि नाकेबन्दी करने की आवश्यकता हो तो उनका वास्तविक तथा प्रभावपूर्ण होना अत्यन्त आवश्यक है।
उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में अन्तर्राष्ट्रीय कानून को संहिताबद्ध करने के लिये विभिन्न प्रयास किये गये।
(1) 1861 में ऑस्ट्रिया के विधिशास्त्री जॉन ऑस्टिन ने प्रयास किया।
(2) 1863 में न्यूयार्क के प्रो. फ्रांसिस लीबर ने राष्ट्रपति लिंकन के अनुरोध पर भूमियुद्ध के कानूनों को संहिताबद्ध किया।
(3) 1864 में 12 बड़े देशों के प्रतिनिधियों का जेनेवा में सम्मेलन हुआ। इस सम्मेलन में युद्ध भूमि में घायल लोगों को राहत देने और युद्ध में संलग्न न होने वालों की उन्मुक्तियों पर विचार किया गया।
(4) 1968 में स्विटरलैण्ड निवासी ब्लंटशली ने
(5) 1874 में रूस के जार एलैक्जेण्डर द्वितीय की प्रेरणा से ब्रेसेल्स में सम्मेलन बुलाया गया, जिसमें यूरोप की प्रमुख शक्तियों ने भाग लिया। इस सम्मेलन में 60 अनुच्छेदों वाली एक संहित तैयार की गई जिसे “ब्रूसेल्स घोषणा” कहा जाता है।
(6) 1980 में अन्तर्राष्ट्रीय कानून के संस्थान ने भूमि पर युद्ध के नियमों का संग्रह प्रस्तुत किया।
उसके पश्चात् 1890 में इटली के विधिवेत्ता पास्किले फ्योरी और 1910 में ब्राजील के विधिशास्त्री एपीटुक्सो पेसुओ ने अन्तर्राष्ट्रीय कानून से सम्बन्धित संहित सम्बन्धी ग्रन्थ प्रस्तुत किये।
अन्तर्राष्ट्रीय कानून को संहिताबद्ध करने के लिये जो विभिन्न सम्मेलन और सभायें बुलायी गई वे इस प्रकार हैं-
1. प्रथम हेग शान्ति सम्मेलन- यह सम्मेलन रूस के सम्राट निकोलस द्वितीय के व्यक्तिगत प्रयासों से हेग नामक स्थान पर 1899 में बुलाया गया। इस सम्मेलन में 26 राष्ट्रों ने भाग लिया। इसने यह सिद्ध कर दिया कि राष्ट्रों के कानून संहिताबद्ध किये जा सकते हैं। जल युद्ध के सम्बन्ध में जेनेवा अभिसमय को स्वीकार किया गया। इसके अतिरिक्त इस सम्मेलन में संहिताकरण सम्बन्धी निम्नलिखित दो अभिसमयों को स्वीकार किया गया-
(1) अन्तर्राष्ट्रीय विवादों को शान्तिपूर्ण ढंग से हल करने के लिए
(2) स्थल युद्ध से सम्बन्धित विधियों और रूढ़ियों से सम्बन्धित अभिसमय
इस सम्मेलन को ओपेनहम ने “अन्तर्राष्ट्रीय कानून के इतिहास में युग निर्मात्री घटना” बताया।
2. द्वितीय हेग शान्ति सम्मेलन- 1907 में अमरीकी राष्ट्रपति थियोडोर रूजवेल्ट द्वारा द्वितीय हेग शान्ति सम्मेलन बुलाया गया, जिसमें 44 राष्ट्रों ने भाग लिया। इसमें 13 अभिसमयों को स्वीकार किया गया। इनमें कुछ प्रमुख निम्नलिखित थे-
(1) युद्ध छेड़ने के नियम,
(2) स्थल व समुद्री युद्ध के नियम,
(3) भूमिगत समुद्री तट तथा तटस्थता के नियम,
(4) नौ-सेनाओं की गोलाबारी के नियम,
(5) युद्ध के समय शत्रु देश के व्यापारिक जहाजों की स्थिति का निर्धारण,
(6) पनडुब्बियों का प्रयोग करने पर स्वयं विस्फोट करने वाले गुप्त रास्तों का निर्माण आदि।
3. लन्दन घोषणा- 1908-09 में विश्व की महाशक्तियों का लन्दन में एक नौ सेना सम्मेलन हुआ, जिसका उद्देश्य विनिषिद्ध वस्तुओं की सूची बनाना था। इस सम्मेलन में किये गये निर्णय को लन्दन घोषणा कहा गया। विभिन्न विरोधी स्वार्थों के कारण इस सम्मेलन के निर्णयों को क्रियान्वित नहीं किया जा सका।
4. प्रथम विश्व युद्ध के पश्चात् संहिताकरण- प्रथम विश्व युद्ध में अन्तर्राष्ट्रीय कानून का खुले रूप से उल्लंघन किया गया। इस युद्ध में व्यापक जन-धन की हानि हुई। अतः युद्ध के पश्चात् विश्व के अनेक राष्ट्रों ने ऐसे युद्ध की पुनरावृत्ति को रोकने के लिये विभिन्न प्रत्यत्न किये गये। 1925 में हानिकारक और विषैली गैसों के प्रयोग के विरूद्ध व्यवस्था की गयी। 1928 में अन्तर्राष्ट्रीय विवादों के शान्तिपूर्ण ढंग से समाधान के लिये की गई सन्धि, युद्ध के बहिष्कार के लिये की गई सन्धि, तथा स्थल, वायु एवं समुद्री युद्ध से सम्बन्धित प्रावधान थे। 1929 में एक सामान्य सम्मेलन हुआ जिसमें युद्ध बन्दियों, घायलों और बीमारों से सम्बन्धित प्रावधान रखे गये।
5. राष्ट्रसंघ के तत्वाधान में संहिताकरण- प्रथम विश्व युद्ध की समाप्ति पर राष्ट्र संघ की स्थापना की गई। इसकी स्थापना के समय अधिकांश राष्ट्रों द्वारा अन्तर्राष्ट्रीय संहितकारण को इसका मुख्य श्रेय रखने पर बल दिया गया। 1924 में राष्ट्रसंघ की परिषद् द्वारा अन्तर्राष्ट्रीय संहिताकरण के विषय छाँटने के लिये एक समिति बनायी गई। 1927 में इस समिति ने अपनी रिपोर्ट प्रकाशित करते हुए निम्न सात विषयों को अन्तर्राष्ट्रीय संहिताकरण के अन्तर्गत स्वीकार किया गया-
(1) राष्ट्रीयता, (2) प्रादेशित समुद्र (3) विदेशी सहमति एवं व्यक्तियों का दायित्व (4) राजनीतिक विशेषाधिकार एवं उन्मुक्तियाँ (5) अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलनों व सन्धियों को करने व इनका मसविदा तैयार करने की रीतियाँ (6) समुद्री डाका (7) समुद्र से उत्पन्न वस्तुओं का प्रयोग।
सितम्बर 1927 में राष्ट्र संघ की सभा ने विशेषज्ञ समिति द्वारा रिपोर्ट का अध्ययन करने के उपरान्त हेग में एक सम्मेलन का आयोजन किया, जिसमें मुख्य रूप से राष्ट्रीयता, प्रादेशिक समुद्र तथा किसी राष्ट्र की उसके प्रादेशिक क्षेत्र में विदेशियों को शारीरिक तथा उनकी सम्पत्ति दोनों ही पहुँचायी गई क्षति के लिये उत्तरदायित्व आदि विषयों के सम्बन्ध कानूनों के संहिताकरण के बारे में निर्णय लिया गया।
राष्ट्र संघ की महासभा ने राष्ट्रीयता, प्रादेशिक समुद्र, अपने प्रदेश में होने वाली विदेशी सम्पत्ति या शारीरिक क्षति के लिये राज्य की जिम्मेदारी इन तीन प्रश्नों के सम्बन्ध में संहिताकरण करने के लिये हेग ने 13 मार्च से 12 अप्रैल तक सम्मेलन बुलाया गय। इसमें उपरोक्त तीनों प्रश्नों के लिये अलग-अलग समितियाँ बनाई गई। पहली समिति द्वारा तैयार किये गये समझौते इस सम्मेलन ने स्वीकार किये। इसमें निम्न प्रावधान थे-
(1) राष्ट्रीय कानून के संघर्ष सम्बन्धी कुछ प्रश्नों के सम्बन्ध में एक अभिसमय
(2) राज्यहीनता के सम्बन्ध में समझौता।
(3) ऐसे मामलों के सम्बन्ध में संलेख, जिसमें कोई राष्ट्रीयता ही न हो।
(4) दोहरी राष्ट्रीयता के कुछ मामलों में सैनिक आभार सम्बन्धी संलेख।
अन्य दो विषयों पर सम्मेलन में इतना मतभेद रहा है कि इन पर कोई समझौता नहीं हो सका। इस सम्मेलन की असफलता के कारण राष्ट्रसंघ के प्रयासों को धक्का लगा और अन्तर्राष्ट्रीय कानून के संहिताकरण की आशाएँ धूमिल दिखाई देने लगीं। इस सम्मेलन में भाग लेने वालों ने प्रारम्भ में यह मान लिया था कि संहिताकरण का कार्य अनेक श्रेणियों में होकर किया जा सकेगा। सम्मेलन में भविष्य में सम्मेलन बुलाने के लिये विभिन्न तरीकों पर विचार किया।
1939 में द्वितीय विश्व युद्ध आरम्भ होने पर राष्ट्र संघ से राष्ट्रों का विश्वास समाप्त हो गया और युद्ध समाप्ति पर राष्ट्र संघ भी समाप्त हो गया।
6. संयुक्त राष्ट्र संघ और संहिताकरण- संयुक्त राष्ट्र संघ के चार्टर की धारा 13 (1) (ए) में कहा गया है कि, “महासभा राजनीतिक क्षेत्र में अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग बढ़ाने, अन्तर्राष्ट्रीय विधि के प्रगतिशील विकास करने व उसके संहिताकरण को प्रोत्साहन देने के लिये उनके अध्ययन की व्यवस्था कर उन पर अपनी सिफारिशें देंगी।”
अन्तर्राष्ट्रीय विधि आयोग की स्थापना- 21 नवम्बर, 1947 को सं.रा. संघ के तत्वधान में एक अन्तर्राष्ट्रीय विधि आयोग का गठन किया गया। इस आयोग को संघ के चार्टर के अनुच्छेद 13(1) (ए) के प्रावधानुसार अन्तर्राष्ट्रीय कानून के संहिताकरण और विकास का कार्य करना था। प्रारम्भ में इसके सदस्यों की संख्या 25 थी जो 1981 में बढ़ाकर 34 कर दी गई। अन्तर्राष्टीय कानून के संहिताकरण को प्रोत्साहित करने के उद्देश्य से अन्तर्राष्ट्रीय विधि आयोग को निम्नलिखित कार्य करने का निर्देश दिया-
(1) अन्तर्राष्ट्रीय कानून के उन सिद्धान्तों को व्यवस्थित करना, जिन्हें संयुक्त राष्ट्र चार्टर तथा न्यूरेम्बर्ग न्यायालय के निर्णय, दोनों में ही मान्यता प्राप्त हो ।
(2) मानवता के शान्ति तथा सुरक्षा के विरूद्ध अपराधों की संहिता का एक प्रारूप तैयार करना ।
(3) जातिवध तथा अन्य अपराधों के परीक्षण के लिये एक अन्तर्राष्ट्रीय न्यायिक संस्था की सम्भावनाओं के सन्दर्भ मे सुझाव देना।
(4) राज्यों के कर्तव्य तथा अधिकारों की घोषणा का एक प्रारूप तैयार करना
7. अन्तर्राष्ट्रीय विधि आयोग के कार्य- 1949 में अन्तर्राष्ट्रीय विधि आयोग ने निम्न 14 विषयों को अन्तर्राष्ट्रीय संहिताकरण के लिए चुना गया-
(1) राज्यों की मान्यता,
(2) राज्यों तथा सरकारों का उत्तराधिकारी,
(3) प्रादेशिक सामुद्रिक क्षेत्र,
(4) राष्ट्रीयता
(5) महासमुद्रों की प्रादेशिकता
(6) राष्ट्रीय प्रदेश से बाहा अपराधों का क्षेत्राधिकार
(7) राज्यों व उनकी सम्पत्ति की क्षेत्राधिकारिक उन्मुक्तियाँ,
(8) विदेशियों से व्यवहार,
(9) समझौतों से सम्बन्धित विधि
(10) राजनीतिक सम्बन्ध व उन्मुक्तियाँ,
(11) राज्य का उत्तरदायित्व,
(12) पंच निर्णय विधि,
(13) आश्रय का अधिकार,
(14) आश्रय का अधिकार,
(15) राजपुरूषों के सम्पर्क और उन्मुक्तियाँ ।
आयोग ने अपनी सूची के 14 विषयों में से 9 विषयों में उल्लेखनीय सफलता प्राप्त की। इसके अतिरिक्त महासभा ने इस विधि आयोग को अनेक विषय सौंपे, जैसे- राष्ट्रों के अधिकारों और कर्तव्यों से सम्बन्धित घोषणा, न्यूरेम्बर्ग चार्टर के सिद्धान्तों की रचना, आक्रमाण की परिभाषा, शरणागत के कानून का संहिताकरण आदि ।
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