उत्तर-बाल्यावस्था ( 6 से 12 वर्ष) में बौद्धिक विकास का वर्णन कीजिये।
यह अवस्था प्रारम्भिक स्कूल आयु समूह आयु चुस्ती आयु, गन्दी आयु, क्षीण बुद्धि आत्मनिर्भरता, जिज्ञासा, संचय प्रवृत्ति, नैतिक विकास, सुप्त काम प्रवृत्ति की आयु के ना से भी जानी जाती है। इस अवस्था में बालक स्वयं के व्यक्तित्व को विकसित करना शुरू करता है। यद्यपि इस अवस्था में उसकी शारीरिक वृद्धि की गति मन्द पड़ जाती है, किन्तु उसके बौद्धिक विकास की गति काफी तीव्र हो जाती है। हॉलिंगवर्थ के अनुसार उत्तर बाल्यावस्था क्षीण-बुद्धि की आयु होती है। इस आयु में बच्चों में दूरदर्शिता और विवेकशीलता की कमी होने से वह अति शीघ्र भावावेश में आ जाता है। वह परिणाम की उपेक्षा करके क्षणिक आवेश में काम करता है।
उत्तर-बाल्यावस्था में बालक परिवार, पड़ोस और विद्यालय जैसे समूहों के सम्पर्क में आता है। उसका बौद्धिक विकास इस तरह से होता है कि उसे सामाजिक अनुमोदन / स्वीकृति प्राप्त हो। इसीलिये वह बाह्य जगत के लोगों, वस्तुओं तथा कार्यों से अधिकाधिक परिचित होने लगता है।
बाह्य लोगों के अनुमोदन के कारण बालक में परिश्रम और उपलब्धि की चेतना भी विकसित हो जाती है। छह वर्ष की आयु में वह समझ जाता है कि खियों पुरुषों की तुलना में कम शक्तिशाली होती है। सात वर्ष की आयु में वह अपने साथी समूहों एवं यौन-विभेदों को पहचानने लगता है। आठ वर्ष की आयु में बालक के खेल साथी उसके लिये एक ‘मॉडल’ की भूमिका निभाते हैं।
मनोवैज्ञानिकों के अनुसार, उत्तर बाल्यावस्था में बालक का बौद्धिक विकास अपनी चरम सीमा पर पहुँच जाता है, क्योंकि इस अवधि तक बालक में इतनी समझादारी/अवबोध विकसित हो जाता है कि अपनी माता पर पहुत कम निर्भर करने लगता है। दस वर्ष की आयु तक बालक अपने अधिकांश कार्य स्वयं ही करने लग जाता है। इस आयु में वह अपने साथियों, धार्मिक समूहों और अपने सामाजिक व्यवहारों का अनुकरण अधिक करने लगता है। अब वह उचित-अनुचित, धनी- निर्धन, आदि में अन्तर भी समझने लगता है। बालक अभावों और कठोरताओं को भी सहने लगता है। वह जीवन की वास्तविकताओं से भी परिचित होने का प्रयास करता है। उसके बौद्धिक विकास से सम्बन्धित ये सभी बातें उसकी किशोरावस्था की दृष्टि से बुनियादी होती है।
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