किशोरावस्था में संवेगात्मक विकास का वर्णन कीजिए।
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किशोरावस्था में संवेगात्मक विकास
किशोरावस्था में जीवन अत्यन्त भावात्मक होता है। वह अनेक संवेगों का अनुभव करता है। संवेगात्मक प्रभाव के सम्बन्ध में रॉस ने कहा है, ‘किशोर बालक अत्यधिक तीव्र संवेगात्मक जीवन में रहता है, जिसमें हम उसके अत्यधिक उत्तेजनापूर्ण तथा गहन उदासीनता के मध्य उसके निरन्तर परिवर्तनपूर्ण व्यवहार के स्वीकारात्मक संगीतमय एवं नकारात्मक स्थिति को एक बार पुनः देख सकते हैं।’
इसी प्रकार स्टेनले हॉल ने भी किशोरावस्था को गम्भीर उथल-पुथल (Strom and stress) की अवस्था कहा है क्योंकि इस अवस्था में किशोर बालक और बालिकायें अनेक कठिनाइयों का सामना करते हैं। जैसे—शारीरिक परिवर्तन, प्रतिकूल पारिवारिक सम्बन्ध माता-पिता की अपेक्षायें तथा अत्यधिक प्रतिबन्ध, सामाजिक तथा पारिवारिक समायोजन में कठिनाई आदि। इन सभी के बीच समायोजन स्थापित करते-करते वह कभी-कभी निराशाओं और कुण्ठाओं का भी शिकार हो जाता है और अत्यधिक भावुकता तथा संवेदनशीलता का प्रदर्शन करता है। उनके संवेगों में तीव्रता दिखायी पड़ती है किन्तु उत्तर किशोरावस्था तक संवेगों की तीव्रता कम हो जाती हैं क्योंकि इस समय तक संवेगात्मक अस्थिरता कम हो जाती है और किशोर बालक और बालिकायें स्वयं को वातावरण से अच्छी तरह समायोजित कर लेते हैं।
किशोरावस्था में प्रकट होने वाले प्रयुक्त संवेगों में क्रोध, भय, ईर्ष्या चिन्ता स्नेह एवं प्रसन्नता के संवेग प्रमुख होते हैं। किशोरों का क्रोध और उसका प्रदर्शन बालकों से भिन्न होता है। हरलॉक के मतानुसार किशोरों का क्रोध सामाजिक परिस्थितियों के कारण होता है उन्हें क्रोध तब आता है जब उनके साथ समानता का व्यवहार नहीं किया जाता है, उसकी आलोचना की जाती है या उस पर अत्यधिक प्रतिबन्ध लगाया जाता है। क्रोध की स्थिति में अप्रिय व्यवहार करने लगता है, अप्रसन्नता प्रकट करता है तथा दूसरों को हानि भी पहुँचा सकता है। कभी-कभी तो क्रोध तीव्र होता है वह अपनी प्रिय वस्तु के विनाश में भी जसा-सा संकोच नहीं करता है।
इन अवस्थाओं में भय की उत्पत्ति काल्पनिक सम्भावनाओं से होती है। जैसे— परीक्षा में अच्छे अंक न आने का, सामाजिक आलोचना, प्रेम पात्र को खो देने का आदि। भय की अवस्था में शरीर गतिहीन हो जाता है तथा चिन्ता की उत्पत्ति होती है। किशोरावस्था में चिन्ता के संवेग की भी उत्पत्ति होती है जिसकी उत्पत्ति का मूल कारण भय होता है।
किशोरों में ईर्ष्या का संवेग भी पाया जाता है। ईर्ष्या का मूल कारण वह व्यक्ति या वस्तु होती है। जो उसके मार्ग में बाधा उत्पन्न करती है। किशोरों की ईर्ष्या तीव्र किन्तु छिपकर चोट करने वाली होती है वह प्रतिद्वन्द्वी की आलोचना करते हैं तथा शब्दों का सूक्ष्म प्रहार करते हैं।
किशोरावस्था में स्नेह का संवेग तीव्रतर होता है किन्तु किशोर उसे सभी के सामने प्रकट करने में संकोच का अनुभव करता है। किशरों का यह स्नेह विपरीत लिंग के प्रति होता है। इस कारण कभी-कभी ऐसे व्यवहार कर बैठते हैं जो सामाजिक दृष्टि से उचित नहीं होते हैं। यदि किशोरों के जीवन में स्नेह का अभाव रहता है तो वह अप्रसन्न रहता है।
किशोरावस्था में संवेगात्मक समायोजन अति आवश्यक है क्योंकि किशोरों की अतिसंवेगशीलता उनके शारीरिक व मानसिक विकास को प्रभावित करती है तथा सामाजिक समायोजन में बाधा डालती है। किशोरों के व्यक्तित्व में दोष उत्पन्न हो जाते हैं, जैसे वह उदासीन, चिड़चिड़ा तथा आक्रामक प्रवृत्ति का हो जाता है। अतः यह आवश्यक है कि किशोर अपने संवेगों पर नियन्त्रण रखे। संवेगात्मक नियन्त्रण से तात्पर्य यह नहीं कि किशोर अपने संवेगों का दमन कर दे अपितु समस्याओं का समाधान इस प्रकार करे कि संवेगात्मक उत्पन्न ही न हो।
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