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तुलसी की भक्ति-भावना पर प्रकाश डालिए।
अथवा
तुलसी की भक्ति-पद्धति का सोदाहरण विवेचन कीजिए।
अथवा
“तुलसीदास की भक्ति में दैन्य भाव की प्रधानता है।” पठित रचनाओं के आधार पर तुलसीदास की ‘भक्ति-भावना’ का निरूपण कीजिए।
तुलसीदास का युग भक्ति-आन्दोलनों का युग था। उस युग में “हिन्दी कविता का प्रवाह राजकीय क्षेत्र से हटकर भक्ति-पथ और प्रेम-पथ की ओर चल पड़ा था। देश में मुस्लिम साम्राज्य के पूर्णतया प्रतिष्ठित हो जाने पर वीरोत्साह के सम्यक संचार के लिए वह स्वतन्त्र क्षेत्र न रह गया, देश का ध्यान अपने पुरुषार्थ और बल-पराक्रम की ओर से हटकर भगवान् की शक्ति और दया दाक्षिण्य की ओर गया। देश का वह नैराश्य-काल था जिसमें भगवान् के सिवाय और कोई सहारा नहीं दिखायी देता था। रामानन्द और बल्लभाचार्य ने जिस भक्तिरस का प्रभूत सञ्चय किया, कबीर और सूर आदि की वाग्धारा ने उसका सञ्चार जनता के बीच किया। साथ ही कुतबन, जायसी आदि मुसलमान कवियों ने अपनी प्रबन्ध-रचना द्वारा प्रेम-पथ की मनोहरता दिखाकर लोगों को लुभाया। इस भक्ति और प्रेम के रंग में देश ने अपना दुःख भुलाया, उसका मन बहला।”
तुलसीदास सगुणोपासक रामभक्त थे। उन्होंने युग धर्म को पहचाना और युग की आवश्यकता के अनुसार रामभक्ति का आदर्श प्रस्तुत किया। वे व्यक्तिगत मोक्ष के साथ ही लोक-कल्याण के भी अभिलाषी थे। उन्होंने अनुभव किया कि लोक-संग्रह के लिए निर्विशेष निर्गुण ब्रह्म निरर्थक है। विश्व को ऐसे ईश्वर की आवश्यकता है जो दीन-दुःखियों की पुकार सुन सके, अधर्म का नाश करके धर्म की प्रतिष्ठा कर सके। अतएव उन्होंने पुरुषोत्तम राम की दास्यभक्ति का गौरवगान किया।
भक्ति का स्वरूप भक्ति की तीन विशेषताएँ
शाण्डिल्य आदि आचार्यों ने भगवान् के प्रति परम प्रेम को भक्ति कहा है। गोस्वामी जी भी भक्ति को प्रेमस्वरूप मानते हैं, राम के प्रति प्रीति ही भक्ति है। इसमें निर्मल, निश्छल मन से भगवान् के प्रति समर्पित होना आवश्यक है-
प्रीति राम सॉ नित पथ, चलिय रागरस जीति।
तुलसी सन्तन के मते, इहै भगति की रीति।।
चातक आदि उपमानों द्वारा भी उन्होंने भक्ति की निष्कामता तथा अनन्य शरणागति का निदर्शन किया है।
उनकी भक्ति की तीन विशेषताएँ हैं- (1) यह राम-भक्ति का मार्ग है, (2) वेद-शास्वसम्मत है, (3) ज्ञान-वैराग्ययुक्त है। वह लिखते हैं-
स्रुति सम्मत हरि भगति पथ, संजुत विरति बिबेक।
तेहिं न चलहिं नर मोह बस, कल्पर्हि पन्थ अनेक।।
भक्ति के प्रकार : उपासना की सहजता के लिए सगुण भक्ति
स्वरूप भेद के अनुसार भक्ति दो प्रकार की मानी गयी है-निर्गुण भक्ति और सगुण भक्ति। निर्गुण भक्ति में निराधार मन ‘चकृत धावा’ रहता है, अव्यक्त की सत्ता, महत्त्व के प्रकाश का आभास होता है, पर सगुण भक्ति में साकार भगवान् के नाम, रूप, लीला, धाम आदि हैं। गोस्वामी जी सगुण और निर्गुण दोनों में कोई भेद नहीं मानते—’सगुनहिं अगुनहिं नहिं कछु भेदा।’ फिर भी उपासना में सहजता की दृष्टि से सगुण को ही उन्होंने श्रेष्ठ माना है-
सगुन उपासक परहित निरत नीति दृढ़ नेम।
ते नर प्रान समान मम जिन्ह के द्विजपद प्रेम ॥
सगुण भक्ति के भी दो भेद होते हैं-साधनरूपा भक्ति और साध्य भक्ति साधनरूपा के भी दो भेद होते हैं-नाम-साधना और बीज-साधना नाम-साधना भक्ति में भगवान् की महिमा का गान होता है। नाम के साथ भगवान् के स्वरूप का भी सम्बन्ध है। नाम जपते जपते साधक का चित्त उत्तरोत्तर शुद्ध होता जाता है और उसमें भाव शरीर का विकास होने लगता है। गुरु द्वारा दिया हुआ मन्त्र या भगवन्नाम जागृत होकर बीज बन जाता है। बीज साधना से भाव-देह जागृत हो जाती है। भाव-देह प्राप्त करने के पश्चात् भक्त को फिर किसी बाह्य शिक्षा की आवश्यकता नहीं रह जातीं। उसकी चित्तवृत्ति स्वतः विजय-विलास से विरक्त हो जाती है, मन में तब भगवच्चरणों में अनुराग उत्पन्न होता है। मानस में गोस्वामी जी ने कहा भी हैं—
जानिअ तब कि जीव जग जागा जब सब विषय बिलास बिरागा।
होइ विवेक मोह भ्रम भागा। तब रघुनाथ चरन अनुरागा॥
भक्ति की तीन कोटि
भक्ति हृदय का पवित्रतम भाव है। यह सर्वप्रथम श्रद्धा के रूप में अंकुरित होता है। श्रद्धा तीन प्रकार की होती है- सात्त्विकी, राजसी तथा तामसी श्रद्धा के इन रूपों के आधार पर भक्ति की भी तीन कोटियाँ होती हैं—(1) सात्त्विकी भक्ति (2) राजसी भक्ति और (3) तामसी भक्ति गोस्वामी जी ने रामचरितमानस तथा विनय पत्रिका दोनों ग्रन्थों में इन तीनों प्रकार की भक्तियों की विशद् चर्चा की है। रावण राजस और तामस भक्त था, पर गोस्वामी जी को सात्त्विकी भक्ति प्रिय थी। गोस्वामी जी इसी भक्ति के इच्छुक हैं। उन्हें तो केवल राम के चरणों में रति अभीष्ट है-स्वर्ग, मोक्ष, सम्पत्ति, ऋद्धि-सिद्धि सभी उन्हें व्यर्थ प्रतीत होते हैं-
चहौं न सुगति सुमति सम्पति, कछु ऋधि-सिधि विपुल बड़ाई।
हेतु रहित अनुराग राम-पद, अनुदिन बढ़ अधिकाई ॥
हेतुरहित निष्काम भाव से अपने इष्टदेव राम के चरणों में दिन-प्रतिदिन बढ़नेवाला अनुराग ही गोस्वामी जी को अभीष्ट है।
नवधा भक्ति
भक्ति के जितने भी वर्गीकरण शास्त्रों में किये गये हैं इनमें भागवत की नवधा भक्ति सबसे अधिक लोकप्रिय है। वह इस प्रकार निरूपित हुई है-
श्रवणं कीर्त्तनं विष्णोः स्मरणं पादसेवनम्।
अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम् ॥
तुलसी ने इस नवधा भक्ति के विविध अंगों की विभिन्न स्थलों पर प्रसंगानुसार चर्चा की है-
श्रवण- सगुण अथवा निर्गुण भगवान् के प्रतिपादक शब्द का कान द्वारा ग्रहण और बोध ‘श्रवण’ कहलाता है। तुलसी का कथन है कि जो कान भगवान् का गुणगान नहीं सुनते वे साँपों के बिल के समान हैं।
जिन्ह हरि कथा सुनी नहिं काना। श्रवनरंध अहिभवन समाना॥
कीर्त्तन– भगवान् के नाम, गुण, लीला आदि का गान करना कीर्तन है। जो राम की लीला का गान नहीं करता वह जीभ सर्पिणी है और शरीर बिल है। यथा-
रसना साँपिन बदन बिल, जे न जपहिं हरि नाम।
राम का भजन करना राज-डगर के समान है-
गुरु कह्यो राम भजन नीको मोहि लगत राम डगरो सो।
स्मरण – भगवान् की लीला, गुण, रूप आदि का जाप स्मृति ही स्मरण है। राम नाम का स्मरण करने से ही भवसागर से पार उतरा जा सकता है-
सुमिरत श्री रघुवीर की बाँहें।
होत सुगम भव उदधि अति, कोउ लाँघत कोठ उतरत काहें।
पाद- सेवन- भगवान् और उनके भक्तों की सेवा पाद-सेवन है-
कर नित करहिं रामपद पूजा राम भरोस हृदय नहीं दूजा ॥
अर्चन- भगवान् की विधिवत् पूजा करना अर्चन है। गोस्वामी जी की कृतियों में अनेक स्थल ऐसे हैं जिनमें पूजन की चर्चा है-
लिंग थापि विधिवत करि पूजा सिव समान प्रिय मोहि न दूजा ॥
सीता जी भी पार्वती जी की पूजा करती हैं-
तुलसी भवानिहिं पूजि पुनि पुनि मुदित-मन-मन्दिर चलीं।
वन्दन- भगवान् की वन्दना-स्तुति वन्दन भक्ति है। विनय पत्रिका और रामचरितमानस की स्तुतियों तथा वन्दनाओं में इसी भक्ति को महत्व दिया गया है-
बन्द राम लखन बैदेही। जे तुलसी के परम सनेही ॥
दास्य- भगवान् को सर्व समर्थ एवं स्वामी समझना तथा अपनी लघुता का आभास करके दास समझना ही दास्य भाव है-
जानकी जीवन की बलि जहीं।
यह घर भार ताहिं तुलसी जाको दास कहैहौं॥
तुलसी सदैव यही कामना करते हैं-
अस अभिमान जाइ जनि भोरे मैं सेवक रघुपति पति मोरे।।
संख्य- इस भक्ति में आराध्य के प्रति बन्धुभाव की प्रधानता होती है। गोस्वामी जी दास्य-भाव को सर्वश्रेष्ठ मानते थे, अतः उनके काव्य में संख्य-भक्ति का निरूपण नगण्य है, फिर भी जिन पदों से उन्होंने राम को खरी-खोटी सुनाया है, वे पद ‘विश्वास संख्या के उदाहरण माने जा सकते हैं।
आत्म-निवेदन- सर्वरूपेण आराध्य के प्रति आत्म-समर्पण करना ही आत्मनिवेदन है। इस भक्ति से भक्त चिन्ता मुक्त हो जाता है। गोस्वामी जी की समस्त ‘विनय पत्रिका’ ही इसका उदाहरण है। उन्होंने विभिन्न प्रकार से आत्मनिवेदन किया है।
तुलसी के लिए भक्ति ही सर्वस्व— विशिष्टाद्वैतवाद में भक्ति मुक्ति की एकमात्र साधिका है। इसके विपरीत तुलसीदास के लिए भक्ति ही सर्वस्व है। वह साधन एवं साध्य दोनों ही है। सिद्धिस्वरूप होने के कारण भक्ति के साथ सांसारिक सुख एवं समृद्धि स्वयमेव एकत्र होने लगती है। यद्यपि भक्त को उसकी कामना नहीं होती है। भक्त के लिए यह सब कुछ साधन स्वरूप है।
जनम-जनम रतिराम पद – तुलसीदास जी जीवन के चार पुरुषार्थों के अतिरिक्त भक्ति को पाँचवें पुरुषार्थ के रूप में प्रतिष्ठित करते हैं-
अरथ न धरम न काम रुचि, गति न चहउँ
निरवान।
जनम-जनम रति रामपद, यह वरदान न आन।।
भक्ति-भावना में अनन्यता— तुलसी ने राम के प्रति अपनी अनन्यता को चातक के प्रतीकस्वरूप बड़े ही काव्यमय ढंग से प्रस्तुत किया है।
एक भरोसो एक बल एक आस बिस्वास।
एक राम घनस्याम हित चातक तुलसीदास ॥
राम के अनुकूलता की उन्हें चिन्ता नहीं। उनकी निष्ठा अविचल थी।
तुलसी लोकदर्शी थे। उन्होंने व्यक्ति-कल्याण के साथ लोक-कल्याण करनेवाले भक्ति मार्ग का उपस्थापन किया। उन्होंने लोक-धर्म विरोधी भक्ति-पद्धतियों का खारेपन के साथ विरोध किया। ‘रामचरितमानस’ आदि ग्रन्थों के रूप में उन्होंने भक्ति-रस का वह साहित्य निर्मित किया, जिसने देश, काल की सीमा को पार करके करोड़ों नर-नारियों की जीवनधारा को राममय बना दिया।
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