हिन्दी काव्य

तुलसी लोकमंगल के कवि हैं। प्रमाणित कीजिए।

तुलसी लोकमंगल के कवि हैं। प्रमाणित कीजिए।

अथवा

“तुलसी का काव्य लोक-मंगल का आदर्श है।” सिद्ध कीजिए।

अथवा

“तुलसी लोक-हृदय के सच्चे पारखी थे।” इस कथन की तर्क सहित पुष्टि कीजिए।

अथवा

सिद्ध कीजिए कि वर्णाश्रम की पूर्ण प्रतिष्ठा करना ही गोस्वामी जी का सामाजिक आदर्श है।

 

भूमिका- इसमें सन्देह नहीं कि तुलसी ने काम, क्रोध, मद और लोभ से संघर्ष किया है और उनकी कविताओं में जिस संघर्ष का वर्णन मिलता है, उसका एक भाग आन्तरिक है, परन्तु उसका एक दूसरा भाग भी है, जिसका सम्बन्ध लोक या साधारण जनता से है। इस लोक संघर्ष का मतलब है-साधारण जनता का संघर्ष, एक सुखी-समृद्ध जीवन के लिए उसका संघर्ष। यह संघर्ष भी गोस्वामी तुलसीदास की रचनाओं में मिलता है। गोस्वामी जी वर्णाश्रम की पूर्ण प्रतिष्ठा को ही समाज का आदर्श मानते हैं। इसलिए, उनका विचार है कि यदि समाज के सभी वर्णों के व्यक्ति अपने-अपने कर्त्तव्यों का पालन करें तो समाज सुखी हो सकता है।

(1) रामराज्य में वर्णाश्रम धर्म का पालन- उस समय ऊँच-नीच, छोटा-बड़ा होने पर भी प्रजा वर्णाश्रम धर्म का पालन करती थी-

बरनाश्रम निज निज धरम, निरत बेद पथ लोग।

चलहिं सदा पावहिं सुख, नहिं भय सोक न रोग।।

ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र आदि में ईर्ष्या, द्वेष न होने का कारण यह था कि उस समय ब्राह्मण वैयक्तिक सुखों की कामना नहीं करते थे, क्षत्रिय प्रजा की भलाई में प्राण तक न्योछावर करने के लिए युद्ध-भूमि में कटिबद्ध रहते थे। इससे स्पष्ट है कि उच्च वर्ग के अधिकार जहाँ अधिक थे वहीं कठिन कर्त्तव्य भी थे किन्तु निम्न वर्गों में कम सुख के साथ अधिक अवस्थाओं में आराम की योजना रहती थी। इसीलिए रामराज्य में सभी अपनी स्थिति के अनुसार प्रसन्न थे-

नहिं दरिद्र कोउ दुखी न दीना। नहिं कोउ अबुध न लच्छन हीना॥

उस समय राजाओं में यह आत्मविश्वास था कि

जासु राज प्रिय प्रजा दुखारी। सो नृप अवसि नरक अधिकारी ॥

इसीलिए आवश्यक है कि राजा अपनी सम्पूर्ण प्रजा की भलाई के लिए कार्य करे। जो कार्य प्रजा के एक वर्ग की भलाई के लिए होगा वह लोकमंगलकारी न होगा। इसी प्रकार कलिकाल का जो चित्र तुलसीदास ने उपस्थित किया है उसमें सामान्य और विशेष दोनों प्रकार के धर्मों का ह्रास हो गया है।

(2) मर्यादा के पोषक- गोस्वामी जी कट्टर मर्यादावादी थे। मर्यादा भंग होना वे लोक के लिए मंगलकारी नहीं मानते थे। लोकमर्यादा की दृष्टि से उनका कहना था कि निम्न वर्ग के लोगों को चाहिए कि वे उच्च वर्गवालों के प्रति श्रद्धा का भाव रखें। यदि वे नहीं रख सकते हैं तो कभी-कभी इस भाव को प्रकट ही करते रहें, क्योंकि यही इसका धर्म है। इसीलिए वे कहते हैं-

पूजिय बिप्र सील गुन हीना। सूद्र न गुन गन ग्यान प्रबीना ॥

इस उपर्युक्त कथन को उनका जातीय पक्षपात नहीं कहा जा सकता, क्योंकि उस विरक्त महात्मा का जाति-पाँति से क्या लेना-देना? उनकी मान्यता थी-

लोग कहँ पोच सोच न संकोच मेरे।

ब्याह न बरेखी जाति-पाँति न चहत हौं ॥

(3) लोकमत और साधुमत में सामञ्जस्य- तुलसी ने अपनी धर्म-भावना के भीतर लोकमत और साधुमत में सामन्जस्य स्थापित कर दिखाया है। उनके राम भी लोकतन्त्र के वशीभूत हैं। वे स्वेच्छाचारी शासक नहीं

लोक एक भाँति को, त्रिलोकनाथ लोकबस।

आपनो न सोच स्वामी, आपही सुखात हौं॥

इतना ही नहीं वे पग-पग पर व्यक्ति का विरोध करते हैं—’मारग सोइ जा कहँ जो भावा’ या ‘स्वास्थ सहित सनेह सब, रुचि अनुहरत अचार ।’

उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि तुलसी लोकवाद के समर्थक हैं, किन्तु उनके इस लोकवाद की भी मर्यादा है। वे मानव स्वतन्त्रता के अपहरण के हिमायती नहीं। उनकी मान्यता है कि मानव पर उतना ही प्रतिबन्ध हो जिससे कि दूसरों के जीवन मार्ग में बाधा न उत्पन्न हो और साथ-ही-साथ हृदय की उदान वृत्तियों के साथ लौकिक सम्बन्ध का सामन्जस्य बना रहे।

(4) स्त्रियों का स्थान- तुलसी मर्यादावादी थे। इसलिए घर-गृहस्थी का कार्य सँभालना ही स्त्रियों के लिए बहुत समझते थे। घर के बाहर उनका निकलना वे बुरा मानते थे, किन्तु तब भी उसे भक्ति की अधिकारिणी माना है। उनको वे मीरों की भाँति घर से बाहर निकलने की आज्ञा देते हैं जो भक्ति मार्ग में रमी हो, सबको नहीं। इससे स्पष्ट है कि ‘जिमि स्वतन्त्र होइ बिगरहि नारी’ से उनका आशय सभी नारियों के लिए नहीं था।

(5) शूद्रों के प्रति दृष्टिकोण- इसी प्रकार शूद्रों के विषय में उनकी मान्यता है कि हर युग में, समाज में ऊंची और नीची श्रेणियाँ थीं और बराबर रहेंगी भी, इसलिए इन दोनों के कार्यों में सामञ्जस्य होना आवश्यक है। यदि उच्चवर्गीय लोग निम्नवर्गीय लोगों के साथ कोमलता का व्यवहार नहीं करेंगे और निम्नवर्गीय लोग उच्चस्तरीय लोगों का अपमान करेंगे तो आदर्श समाज की स्थापना असम्भव है। शूद्र शब्द नीची श्रेणी के मनुष्य का द्योतक है, जो कुल, शील, विद्या और बुद्धि आदि की दृष्टि से न्यून होता है। इन न्यूनताओं को अलग-अलग न दिखाकर तुलसीदास ने वर्ण विभाग के आधार पर उन सभी न्यूनताओं के लिए एक ही शब्द का व्यवहार किया है। आधुनिक लेखकों ने अनुसन्धान करके यह माना है कि वन्य और असभ्य जातियाँ उसी का सम्मान करती हैं जो उन्हें भयभीत कर सके। तुलसी ने भी यहाँ लिखा है।

ढोल गँवार सूद्र पसु नारी। ये सब ताड़न के अधिकारी॥

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Anjali Yadav

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