नवजात शिशु या नियोनेट की ज्ञानात्मक क्षमताओं का वर्णन कीजिए।
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नवजात शिशु के संवेग
नवजात शिशु में संवेग पाये जाते हैं तो वे बहुत ही अविकसित होते है। इन संवेगों की अभिव्यक्ति कुछ क्रियाओं तक सीमित रहती हैं तो वे बहुत ही अविकसित होते हैं। इन संवेगों की अभिव्यक्ति कुछ क्रियाओं तक सीमित होती है। वाटसन ने अपने अध्ययनों के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला कि नवजात शिशु में निम्नलिखित तीन संवेग पाये जाते हैं-
1. क्रोध- जब शिशु की ‘स्वाभाविक क्रिया’ या ‘शारीरिक प्रचलन में अवबोधन’ होता है तब उसमें क्रोध उत्पन्न होता है। अतः क्रोध की अभिव्यक्ति वह क्रन्दन, हाथ-पैर फेंकने, – शरीर से कपड़े उतारने आदि के रूप में करता है।
2. भय- नवजात शिशु में तीव्र ध्वनि तथा आश्रयाभाव की स्थिति में भय उत्पन्न होता है। इसकी अभिव्यक्ति वह हाथ-पैर पटकने तथा साँस रोकने के रूप में करता है।
3. प्रेम- थपथपाने, सहलाने, गुदगुदाने आदि से नवजात शिशु में प्रेम संवेग की उत्पत्ति होती है। इसकी अभिव्यक्ति वह मुस्कराने, शान्त होने और गलगलाने के रूप में करता है।
वाटसन द्वारा बताये हुए उपयुक्त संवेगों को मूल संवेगों के रूप में बहुत समय तक मान्यता मिलती रही। किन्तु इस समय मान्य नहीं है। प्रॉट नेलसन एवं सन आदि विद्वानों ने अपने अध्ययनों के आधार पर वाटसन के मत का खण्डन किया। इविन का अपने अध्ययन के आधार पर यह विचार है कि जन्म से 10 दिन तक शिशु में भय संवेग नहीं बल्कि ‘सामान्यित सामूहिक क्रिया’ पाई जाती है। ब्रिजिज ने अपने अध्ययनों के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला कि नवजात शिशु में मूल संवेग नहीं बल्कि विभेदित तीव्र उत्तेजना पाई जाती है। इस प्रकार हम इस निष्र्कष पर पहुँचते हैं कि नवजात शिशु में संवेगात्मक प्रतिक्रियायें नहीं पाई जाती है बल्कि तीव्र उत्तेजना की प्रतिक्रिया पाई जाती है।
नवजात शिशु चेतना
नवजात शिशु की अवस्था नवीन पर्यावरण के साथ ‘ समायोजना की अवस्था’ होती है। इस आधार पर बहुत से विद्वानों ने नवजात शिशु की चेतना का अध्ययन करने का प्रयास किया है। किन्तु इस समय शिशु की विभिन्न क्षमताओं अविकसित रहती हैं और वह अपनी अनुभूतियों को व्यक्त करने में असमर्थ होता है। ऐसी दशा में उसकी संवेगात्मक एवं क्रियात्मक क्षमताओं के आधार पर उसकी चेतना का अनुमान मात्र करना ही सम्भव है, किन्तु इस सम्बन्ध में निश्चित रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता है। जेम्स अपने अध्ययन के आधार पर इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि नवजात शिशु को बाह्य- विश्व की चेतना नहीं रहती है। जब शिशु जन्म लेता है तो वह अपने को ‘वृहत्स्फुरण स्वजन संभ्रांति’ की स्थिति में पाता है। स्टर्न के अनुसार शिशु में सुख तथा दुःख की अनुभूतियाँ तथा उनकी ‘अभिव्यक्तियाँ’ होती हैं। उनकी विभिन्न मुद्राओं तथा ‘मुखाकृतियों’ से उसकी चेतना पर प्रकाश पड़ता है। अत: नवजात शिशुओं में चेतना को बिल्कुल अस्वीकार नहीं किया जा सकता है। किन्तु वयस्कों की अपेक्षा नवजात शिशुओं की चेतना बहुत कम स्पष्ट होती है।
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