भारत में मानवाधिकारों के संरक्षण एवं प्रवर्तन के सम्बन्ध में उच्चतम न्यायालय के योगदान की विवेचना कीजिए।
भारतीय संविधान के भाग 3 द्वारा भारतीय नागरिकों एवं व्यक्तियों को अनेक मानवाधिकार प्रदान किये गये हैं जिन्हें संविधान में मौलिक अधिकार कहा गया है। भाग 3 में वर्णित मौलिक अधिकारों अर्थात् मानवाधिकारों के अलावा समय-समय पर उच्चतम न्यायालय ने भी अपने अनेक निर्णयों से मानवाधिकारों के संरक्षण एवं प्रवर्तन में योगदान दिया है। जिसके कारण इस क्षेत्र में उच्चतम न्यायालय का महत्व बहुत बढ़ जाता है। उच्चतम न्यायालय का इस बारे में पथ प्रदर्शक नागरिक एवं राजनीतिक अधिकारों की प्रसंविदा रही है।
नागरिक और राजनीतिक अधिकार और भारतीय संविधान
नागरिक और राजनीतिक अधिकार प्रसंविदा में शामिल किये गये हैं कई अधिकारों को संविधान के अधीन मूल-अधिकारों की मान्यता दी गयी है। इस प्रकार, प्रसंविदा में प्रावधानित संचरण की स्वतन्त्रता का अधिकार’ अपने निवास स्थान को चुनने की स्वतन्त्रता’ विचार धारण करने का अधिकार’ दूसरे के साथ सहयुक्त होने की स्वतन्त्रता का अधिकार को संविधान के अनुच्छेद 19 के विभिन्न खण्डों में व्यक्तियों को प्रत्याभूत किया गया है। पुनः, ‘बलात् या अनिवार्य श्रम का प्रतिषेध’ का प्रावधान संविधान के अनुच्छेद 23 के अधीन किया गया है। ‘प्राण और दैहिक सुरक्षा का अधिकार’ और न्यायालयों तथा अधिकारणों के समक्ष समान बने रहने के व्यक्ति के अधिकार को क्रमश: संविधान के अनुच्छेद 21 तथा 14 के अधीन प्रत्याभूत किया गया है। जो व्यक्ति गिरफ्तार किया जाता है, उसे गिरफ्तार के समय सूचित किये जाने का अधिकार होगा, इसके लिए अनुच्छेद 22 के अधीन प्रावधान किया गया है। विधि के सामने समता, धर्म, मूलवंश, जाति तथा लिंग के आधार पर विभेद का निषेध और लोक नियोजन के विषय में अवसर की समता को क्रमश: 14, 15 तथा 16 (1) के अधीन प्रत्याभूत किया गया है। एक बार से अधिक उसी अपराध के लिए अभियोजित किये जाने तथा दण्डित किये जाने से स्वतन्त्रता का प्रावधान अनुच्छेद 20 (2) के अधीन किया गया हैं। किसी अपराध के लिए अभियुक्त किसी व्यक्ति द्वारा स्वयं अपने विरुद्ध साक्षी होने के लिए बाध्य नहीं किया जायेगा, इसे अनुच्छेद 20 के खण्ड 3 के अधीन प्रत्याभूत किया गया है। इन सभी अधिकारों के सम्बन्ध में नागरिक अधिकार प्रसंविदा में प्रावधान किया गया है।
इनके अतिरिक्त प्रसंविदा में कुछ अन्य अधिकार हैं, जिनका उल्लेख संविधान के भाग 3 में नहीं है। लेकिन उच्चतम न्यायालय ने संविधान के भाग 3 में उल्लेक्षित मूल अधिकारों के अर्थ तथा क्षेत्र को विस्तृत करके कुछ अन्य अधिकारों को मूल अधिकार की मान्यता दिया है। यद्यपि ए० डी०एम०जबलपूर बनाम एस० शुक्ला (1976) के वाद में उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया था कि भारत का संविधान, संविधान से अभिव्यक्त रूप से प्रदत्त अधिकारों के अतिरिक्त किसी प्राकृतिक या सामान्य विधिक अधिकारों को मान्यता नहीं देता, लेकिन उच्चतम न्यायालय ने 1978 के बाद इस प्रवृत्ति को बदल दिया। कई ऐसे अधिकारों को मान्यता दी गयी, है जिनका उल्लेख संविधान में नहीं है। ऐसे अधिकार निम्नलिखित हैं-
(1) विदेश जाने का अधिकार- सतवन्त सिंह बनाम एसिस्टेन्ट पासपोर्ट आफिसर, नई दिल्ली के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने निर्णय दिया था कि किसी व्यक्ति को विदेश जाने का अधिकार उसकी दैहिक स्वतन्त्रता का भाग है।
(2) एकान्तता का अधिकार- खड़क सिंह बनाम स्टेट ऑफ यू०पी में उच्चतम न्यायालय द्वारा यह अवधारित किया गया था कि अधिवासीय निरीक्षण (domiciallary visits ) एकान्तता के अधिकार का उल्लंघन है और नागरिक के दैहिक स्वतन्त्रता के मूल अधिकार का उल्लंघन है।
(3) एकान्त करावास के विरुद्ध अधिकार- उच्चतम न्यायालय ने सुनील बतरा बनाम दिल्ली एडमिनीस्ट्रेशन (संख्या 1) में यह अधिनिर्णय दिया था कि यदि सह-कैदियों के साथ घूमने, मिलने, बातचीत करने, साथ रहने की कैदी की स्वतन्त्रता को बिना किसी विधिक आधार के उसे एकान्त परिरोध में रखकर मूल रूप से कम किया जाता है तो यह अनुच्छेद 21 का उल्लंघन होगा।
(4) हथकड़ी-बेड़ी के विरुद्ध अधिकार- चार्ल्स शोभराज बनाम अधीक्षक कारागार, तिहाड़, नई दिल्ली में उच्चतम न्यायालय ने अवधारित किया था कि असामान्य लम्बी अवधि तक कैदियों को हथकड़ी बेड़ी में रखना केवल उन मामलों तक निर्बन्धित हैं, जहाँ इनकी आत्यन्तिक आवश्यकता
(5) कैदियों के साथ मानवीय व्यवहार किये जाने का अधिकार – फ्रांसिस कोरैली मुल्सिन बनाम प्रशासक, दिल्ली संघ राज्यक्षेत्र में उच्चतम न्यायालय द्वारा यह निर्णय दिया गया था कि निरुद्ध (detenue) को मानवीय गरिमा के साथ जीने का अधिकार है। न्यायमूर्ति भगवती ने यह संपरीक्षण किया था कि निरुद्ध को सप्ताह में कम से कम दो बार उसके सम्बन्धिों तथा मित्रों से बातचीत करने की अनुमति दी जानी चाहिए। विद्वान न्यायाधीश ने यह भी अवधारित किया था कि निरुद्ध को अपनी इच्छा के विधिक सलाहकार से वार्तालाप करने का अधिकार है। शीला बारसें बनाम महाराष्ट्र राज्य में यह निर्णय दिया गया था कि गिरफ्तार किये गये व्यक्ति को पुलिस अभिरक्षा में यातना नहीं दी जानी चाहिए या उसके साथ दुर्व्यवहार नहीं किया जाना चाहिए और यदि उसने पुलिस अभिरक्षा में किसी यातना या दुर्व्यवाहार का परिवाद किया है, तो उसको चिकित्सीय परीक्षण का अधिकार है।
(6) विधिक सहायता का अधिकार- एम०एच० होस्काट बनाम महाराष्ट्र राज्य में उच्चतम न्यायालय द्वारा यह अवधारित किया गया था कि अभियुक्त कैदी को निःशुल्क विधिक सहायता प्राप्त करने का अधिकार है और यह संविधान के अनुच्छेद 21 में विवक्षित है।
(7) त्वरित परीक्षण का अधिकार- हसैनारा खातून बनाम गृह सचिव, बिहार राज्य (संख्या) में उच्चतम न्यायालय द्वारा अवधारित किया गया है कि त्वरित परीक्षण अनुच्छेद 21 में परिकल्पित प्राण एवं दैहिक स्वतन्त्रता के मूल अधिकार का अभिन्न और आवश्यक भाग है।
(9) सार्वजनिक फांसी के विरुद्ध अधिकार- ए०जी० ऑफ इण्डिया बनाम लछवी देवी उच्चतम न्यायालय द्वारा अवधारित किया गया था कि सार्वजनिक फांसी द्वारा मृत्यु दण्ड का निष्पादन पाशविक अभ्यास है और संविधान के अनुच्छेद 21 का उल्लंघन है।
(10) चिकित्सक की सहायता का अधिकार- परमानन्द कटारा बनाम संघ उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया है कि संविधान का अनुच्छेद 21 राज्य पर प्राण को संरक्षित करने की बाध्यता अधिरोपित करती है और इसको संरक्षित रखने की बाध्यता को पूरी करने के लिए सरकारी अस्पताल में तैनात द्वारा चिकित्सीय सहायता प्रदान करने के लिए कर्त्तव्य से आबद्ध है।
(11) विलम्बित फांसी के विरुद्ध अधिकार- टी०वी० वाथीश्वरन बनाम तमिलनाडू राज्य में उच्चतम न्यायालय द्वारा निर्णय दिया गया था कि मृत्यु दण्ड के निष्पादन की प्रतीक्षा करने के लिए दीर्घीकृत निरोध अन्यान्योचित, अनुचित और अयुक्तियुक्त प्रक्रिया है और गलती को सुधारने का एक ढंग मृत्यु दण्ड को विखण्डित करना है। मृत्यु दण्ड के निष्पादन के विरुद्ध अनुच्छेद 21 के अधीन संवैधानिक संरक्षण को लागू करने के लिए किसी दीर्घीकृत विलम्ब माना जाय, यह महत्वपूर्ण प्रश्न है। फिर भी न्यायालय ने अवधारित किया कि मृत्यु के निष्पादन में दो वर्ष से अधिक के विलम्ब को मृत्यु दण्ड से दण्डित व्यक्ति को अनुच्छेद 21 की सहायता लेने तथा मृत्यु दण्ड को विखण्डित करने की माँग करने के लिए हकदार बनाने के लिए पर्याप्त समझा जाना चाहिए।
उक्त अधिकारों को इस वजह से मूल अधिकार या मानवाधिकार माना गया क्योंकि सर्वोच्च न्यायालय ने उन अधिकारों का साहसिक निर्वचन किया है, जो संविधान में विनिर्दिष्ट रूप से उपबन्धित है। यह उचित ही है कि जो अधिकार नागरिक एवं राजनीतिक अधिकारों की प्रसंविदा में वर्णित है परन्तु भारत में लोगों को नहीं प्राप्त है उनको या तो संवैधानिक संशोधनों द्वारा अथवा सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय द्वारा लोगों को उपलब्ध कराया जाए।
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