पी. जे. प्रूदों के अराजकतावाद एवं क्रॉपॉटकिन का अहिंसात्मक अराजकतावाद या परस्पर सहायता का सिद्धान्त की विवेचना कीजिए।
पी.जे. प्रूदों के अराजकतावाद- पियरे-जोसेफे प्रूदों (1809-65) उन्नीसवीं शताब्दी का फ्रांसीसी विचारक था जिसने सोच समझकर पहले-पहल ‘अराजकतावादी’ कहलाना पसंद किया। उसने तर्क दिया कि ‘मनुष्य द्वारा मनुष्य के शोषण का अंत और सरकार का अंत एक ही बात है।” सम्पत्ति की स्थिति प्रर्दों ने अपनी विख्यात कृति ‘हवाट इज़ प्रॉपर्टी’ (संपत्ति क्या है?) (1840) के अन्तर्गत यह प्रसिद्ध सूक्ति प्रस्तुत की : ‘सम्पत्ति चोरी है। ‘कार्ल मार्क्स ने प्रूदों की इस कृति की प्रशंसा करते हुए इसे ‘महान् वैज्ञानिक उपलब्धि’ बताया जिसने राजनीतिक अर्थशास्त्र के यथार्थ विज्ञान’ की नींव रखी। प्रूदों ने सम्पत्ति के ऐसे बहुत सारे अधिकारों पर प्रहार किया जो उन्नीसवीं शताब्दी के फ्रांस में प्रचलित थे। उसने विशेष रूप से सम्पत्ति के उन अधिकारों की आलोचना की जो सम्पत्ति के स्वामी को अन्य मनुष्यों पर अपना प्रभावशाली नियंत्रण स्थापित करने में सहायता देते थे। परन्तु साथ ही उसने साम्यवाद का भी खंडन किया, और व्यक्ति के लिए • स्वाधीनता के अधिकार का समर्थन करते हुए यह तर्क दिया कि निजी सम्पत्ति की एक निश्चित मात्रा इसके लिए आवश्यक है। प्रूदों का कहना था कि प्रत्येक मनुष्य को अपने आवास तथा अपने कार्य के लिए आवश्यक भूमि और उपकरणों पर स्वामित्व प्राप्त होना चाहिए। इनके अलावा, उसे अपने परिवार के निर्वाह के लिए बुनियादी आवश्यकता की वस्तुएँ और थोड़ी-बहुत विलासिता की वस्तुएँ भी प्राप्त होनी चाहिए। इसका अर्थ यह हुआ कि इस निश्चित मात्रा से अधिक सम्पत्ति रखना ‘चोरी’ की तरह समाज-विरोधी कार्य या अपराध है।
प्रूदों के अनुसार साम्यवाद निजी सम्पत्ति से जुड़े हुए सम्बन्ध की प्रणाली का अंत करके सारी सम्पत्ति पर सारे समाज का साझा अधिकार स्थापित करना चाहता है। परन्तु इस व्यवस्था को लागू करने के लिए सत्ता और नियंत्रण जरूरी हो जाते हैं। फलस्वरूप मनुष्य की स्वाधीनता छिन जाती है अत: वह उपयुक्त नहीं है। ‘सम्पत्ति’ और साम्यवाद’ परस्पर विरोधी सिद्धान्त हैं। इनके परस्पर विरोध को एक नए सिद्धान्त- ‘अराजकतावाद’ के अंतर्गत दूर किया जा सकता है। इस तर्क के अंतर्गत प्रूदों ने जी. डब्ल्यू.एफ. हेगेल (1770-1831) की द्वंद्वात्मक पद्धति का अनुसरण किया है। यहाँ सम्पत्ति और साम्यवाद क्रमश: पक्ष और प्रतिपक्ष प्रस्तुत करते हैं। अराजकतावाद इनके टकराव से पैदा होने वाला संपक्ष है।
‘परस्परवाद का सिद्धान्त’
प्रूर्दो ने ‘द प्रिंसिपल ऑफ फेडरेशन’ (संघ-व्यवस्था का सिद्धान्त) (1863) के अंतर्गत लिखा है कि कामगारों को अपनी मुक्ति के लिए राजनीतिक साधनों का सहारा नहीं लेना चाहिए, बल्कि आर्थिक साधनों का सहारा लेना चाहिए। इसके लिए उन्हें अपने ऐच्छिक संगठन बनाने चाहिए। उसने राज्य के उन्मूलन का समर्थन करते हुए एक नई व्यवस्था की रूपरेखा प्रस्तुत की जिसमें स्वशासी उत्पादक आपस में साम्यमूलक विनिमय के आधार पर लेन-देन करेंगे। वे व्यक्तिगत रूप से या साहचर्यों के रूप में संगठित होंगे। इस सिद्धान्त को उसने ‘परस्परवाद’ की संज्ञा दी। इस मूलत: विक्रेन्द्रीकृत और बहुलवादी समाज-व्यवस्था की इकाइयां सभी स्तरों पर संघीय सिद्धान्त के अंतर्गत आपस में जुड़ी होंगी। यह एक विश्वव्यापक व्यवस्था होगी। इसमें उत्पादन के लिए अपेक्षित वस्तुएं ऐसी शर्तों पर उपलब्ध कराई जाएँगी जो परस्पर लाभ को बढ़ावा देंगी, परन्तु किसी को निजी लाभ प्राप्त नहीं होगा। इसमें जमीदारों या उद्योगपतियों के अस्तित्व की कोई गुंजाइश नहीं है। इसमें राष्ट्रवाद के लिए भी कोई स्थान नहीं है।
प्रूदों ने बाजार व्यवस्था को इस आधार पर अस्वीकार कर दिया कि वह शोषणमूलक और बल-प्रयोगमूलक व्यवस्था है, और सबसे बढ़कर वह कानून और सरकार पर आश्रित है। उसने सौदेबाजी की प्रक्रिया को वरीयता देते हुए यह तर्क दिया कि ‘परस्परवाद’ के अंतर्गत व्यक्ति और समूह अपनी-अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए सीधे एक-दूसरे से बातचीत करेंगे ताकि वे परस्पर स्वीकार्य शर्तों पर पहुँच सकें। प्रूदों ने माननीय सम्बन्धों के निर्वाह में अनुबंध को विशेष महत्व दिया हैं सौदेबाजी की प्रक्रिया में कहीं कमजोर पक्ष असुरक्षा का शिकार न हो जाएं-इसके लिए प्रूदों ने यह सुझाव दिया है कि सभी पक्षों की शक्ति करीब-करीब बराबर होनी चाहिए; और वे इतने आत्मनिर्भर होने चाहिए कि बराबरी के आधार पर लेन-देन कर सकें। परस्परवादी समाज में कोई पक्ष दूसरों पर हावी न हो जाए-यह निशचित करने के लिए प्रूदों ने कोई प्रोत्साहन नहीं सुझाए हैं बल्कि नैतिक सिद्धान्तों का सहारा लिया है। वह सब पक्षों से ‘योग्यतानुसार न्याय’ के प्रति प्रतिबद्धता की मांग करता है। इसके अनुसार प्रत्येक पक्ष समतुल्य विनिमय के लिए बाध्य होगा। इस तरह परस्परवादी समाज के सदस्य अपने हित के विचार के अलावा कर्तव्य भावना से प्रेरित होकर भी उपयुक्त व्यवहार करेंगे।
प्रूदों ने अपने परस्परवादी सिद्धान्त के अनुरूप’ न्याय’ की परिभाषा इन शब्दों में दी है : “यह मानवीय गरिमा के प्रति सम्मान है जो स्वतः अनुभव किया जाता है, और परस्परता के आधार पर प्रदान किया जाता हैं चाहे हम किसी भी व्यक्ति को किसी भी परिस्थिति में क्यों न देखें, उसके प्रति यह सम्मान अवश्य अनुभव करते हैं, और इसकी रक्षा के लिए हम कोई भी जोखिम उठाने को तैयार रहते हैं।” न्याय का सार तत्व समानता का सिद्धान्त है। सम्पत्ति की विषमता का निवारण न्याय की आवश्यक शर्त है।
क्रॉपॉटकिन का अहिंसात्मक अराजकतावाद- क्रॉपॉटकिन (1842-1921) रूसी क्रांतिकारी विचारक था। इसने साम्यवादी अराजकतावाद के सिद्धान्तों का प्रभावशाली विवेचन प्रस्तुत किया। उसे अपनी क्रांतिकारी गतिविधियों के कारण दो बार कारावास जाना पड़ा। इसके बाद वह करीब तीस वर्ष तक इंग्लैंड में रहा। बोल्शेविक क्रांति के अवसर पर वह रूस लौटा, परन्तु लेनिनवाद से उसका मोहभंग हुआ, और उसकी मृत्यु एक हताश व्यक्ति के रूप में हुई।
क्रांपॉटकिन ने अपनी प्रसिद्ध कृति म्यूचुअल एड’ (परस्पर सहायता, 1897) के अंतर्गत डार्विन के विकास-सिद्धान्त को आलोचना की है। उसने लिखा है कि मनुष्यों तथा अन्य प्राणियों के निरीक्षण से यह पता चलता है कि व्यक्ति और समाज के विकास का नियम ‘अस्तित्व का संघर्ष’ और ‘योग्यतम की विजय’ का सिद्धान्त है। जीवन के संघर्ष में सामाजिकता का गुण सभी परिस्थितियों में अत्यंत लाभदायक सिद्ध अतः यह समस्त विकासशील प्राणियों की स्वाभाविक प्रवृत्ति है। क्रॉपॉटकिन ने तर्क दिया है कि विकास की प्रक्रिया में ऐसे समूह सबसे सफल रहे हैं जिनमें प्रत्येक सदस्य दूसरे जरूरतमंद सदस्य की सहायता के लिए तैयार रहा। अत: सहयोग की प्रवृत्ति प्रतिस्पर्धा की प्रवृत्ति से अधिक सार्थक है। यदि राज्य और कानून मनुष्य के स्वाभाविक विकास को अवरुद्ध न करते तो वे सहज समैक्स के ऐसे बंधन विकसित कर लेते कि कानून और सरकार की कोई जरूरत ही न रहती।
क्रॉपॉटकिन ने लिखा है कि मनुष्यों ने अपना जीवन सहयोगशील प्राणियों के बड़े-बड़े समों के रूप में शुरू किया, एक-दूसरे से कटे हुए परिवारों के रूप में नहीं। उदाहरण के लिए, आदिवासी समूहों में सामुदायिक विवाह अक्सर होते रहते थे। सभ्यता के इतिहास का उल्लेख करते हुए उसने लिखा कि मध्ययुगीन नगर मानवीय समैक्य की शानदार मिसाल थे। ये ऐसे स्त्री-पुरुषों के संघ थे जो मुक्त सहयोग की भावना से कार्य करते थे। इन्हें राज्य और कानून के तंत्र की कोई जरूरत नहीं थी। आधुनिक राज्य ने इस संस्था को नष्ट कर दिया, परन्तु आधुनिक समाज में भी मजदूर संघ और रैड क्रॉस जैसे संगठन ‘परस्पर सहायता’ के सिद्धान्त को व्यावहारिक रूप देने के प्रयत्न हैं।
क्रॉपॉटकिन के अनुसार, आधुनिक राजनीतिक जीवन की मुख्य विशेषता है- आधुनिक व्यक्तिवाद का विकास, और सामाजिक दायित्व का अभाव। आधुनिक राज्य के उदय से पहले मनुष्यों के दायित्व खुले मैदान की तरह एक धरातल पर एक-दूसरे से जुड़े थे। आधुनिक राज्य ने उन्हें स्तम्भ की तरह ऊपर-नीचे की दिशा में जोड़ दिया है। दूसरे शब्दों में, अधिकारितंत्र की कानूनी और निर्वैयक्तिक प्रणाली ने अच्छे नागरिक का यह प्रतिरूप स्थापित कर दिया है कि वह ईमानदारी से अपने कर चुकाकर निश्चित हो जाए, और फिर अपने सहचरों के प्रति कोई दायित्व अनुभव न करे।
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