प्राकृतिक विधि का सिद्धान्त
प्राकृतिक अधिकारों का सिद्धान्त आधुनिक मानवीय अधिकारों से निकट रूप से सम्बद्ध है इसके मुख्य प्रवर्तक जान लॉक (Lock) थे। उनके अनुसार, जब मनुष्य प्राकृतिक दशा में था जहाँ महिलाएँ एवं पुरुष स्वतंत्र स्थिति में थे तथा अपने कृत्यों को निर्धारित करने के लिये योग्य थे तथा वे समानता की दशा में थे। लॉक ने यह भी कल्पना की कि ऐसी प्राकृतिक दशा में कोई भी किसी अन्य की इच्छा या प्राधिकार के अधीन नहीं था। तत्पश्चात् प्राकृतिक दशा के कुछ जोखिमों एवं असुविधाओं से बचने के लिये उन्होंने एक सामाजिक संविदा की जिसके द्वारा उन्होंने पारस्परिक रूप से तय किया कि वह एक समुदाय तथा राजनीतिक निकाय स्थापित करेंगे। परन्तु उन्होंने कुछ प्राकृतिक अधिकार जैसे जीवन का अधिकार, स्वतंत्रता का अधिकार तथा सम्पत्ति का अधिकार अपने पास रखा। यह सरकार का कर्तव्य था कि वह अपने नागरिकों के प्राकृतिक अधिकारों का सम्मान एवं संरक्षण करे। वह सरकार जो इसमें असफल रही या जिसने अपने कर्त्तव्य में उपेक्षा बरती अपने पद या कार्यालय की वैधता खो देगी।
प्राकृतिक विधि का जन्म ग्रीक में हुआ तथा उसका विकास रोम में हुआ जिसे बाद में ‘जस नेचुरली’ (Jus Naturale) कहा गया है परन्तु विधि मानव आचरण के सिद्धान्तों को प्रतिपादित करती है। नैसर्गिक विधि उस बात की अभिव्यक्ति है जो सही है उसके विरुद्ध जो केवल समीचीन या कालौचित्य एवं विशिष्ट या स्वाभाविक है उसके विरुद्ध जो सुविधाजनक है, तथा जो सामाजिक अच्छाई या भलाई के लिये है उसके विरुद्ध जो व्यक्तिगत इच्छानुसार है। अतः प्राकृतिक या नैसर्गिक विधि मनुष्य को प्रकृति की तार्किक एवं युक्तियुक्त आवश्यकताओं पर आधारित थी। रोमन लोगों के अनुसार नैसर्गिक विधि में न्याय के प्रारम्भिक सिद्धांत थे जो उचित तर्क का अधिदेश था। दूसरे शब्दों में, उक्त सिद्धांत प्रकृति के अनुसार थे तथा वे अपरिवर्तनीय तथा शाश्वत थे।
मानव अधिकारों के संरक्षण के प्रमाण प्राचीन काल की बेबीलोनिया विधि (Babylonian Laws) असीरिया विधि (Assyrian Laws) हित्ती विधि (Hitti Laws) तथा भारत में वैदिककालीन धर्म में पाये जा सकते हैं। विश्व के सभी प्रमुख धर्मों का आधार मानवतावादी है जो अन्तर्वस्तु में भेद होने के बावजूद मानव अधिकारों का समर्थन करते हैं। मानव अधिकारों की जड़ें प्राचीन विचार तथा “प्राकृतिक विधि” और “प्राकृतिक अधिकारों” की दार्शनिक अवधारणाओं में पायी जाती है। कुछ यूनानी तथा रोमन दार्शनिकों ने प्राकृतिक अधिकारों के विचार को मान्यता प्रदान की थी। प्लेटो उन सर्वप्रथम लेखकों में से एक थे जिन्होंने नैतिक आचरण के सार्वभौमिक मानक की वकालत की थी। इसका अभिप्राय यह था कि विदेशियों से उसी प्रकार संव्यवहार किये जाने की अपेक्षा की जाती है जिस प्रकार से कोई राज्य अपने देशवासियों से संव्यवहार करता है। इसमें सभ्य ढंग से युद्धों के संचालन की भी विवक्षा होती थी। रिपब्लिक ने सार्वभौमिक सत्यों के विचार का प्रस्ताव रखा जिसे सभी को मान्यता देनी चाहिए। व्यक्तियों को सार्वजनिक कल्याण के लिए कार्य करना चाहिये। अरिस्टाटेल ने राजनीति में लिखा कि न्याय, सहूण (Virtue) तथा अधिकार भिन्न प्रकार के संविधानों तथा परिस्थितियों के अनुसार परिवर्तित होते रहते हैं। सिसरो जो एक रोमन राजनेता थे, ने अपनी कृति दि लॉज (The Laws) में प्राकृतिक विधि तथा मानव अधिकारों की नींव रखी। सिसरो का यह विश्वास था कि ऐसी सार्वभौमिक मानव अधिकार विधियाँ होनी चाहिये जो रूढ़िगत तथा सिविल विधियों से श्रेष्ठ हों। स्टोयक ने विधि के उच्चतर व्यवस्था को निर्दिष्ट करने के लिये प्राकृतिक विधि की ऐसी नैतिक अवधारणा का प्रयोग किया जो प्रकृति के समरूप थी तथा जो सभ्य समाज एवं सरकार की विधियों के मानक के रूप में प्रयोग की जानी थी। बाद में, ईसाई धर्म, विशेषकर सेंट थॉमस एक्वीनास (1225-1274) ने इस प्राकृतिक विधि की जड़ें उस ईश्वरीय विधि (Divine Law) में खोजी जो ईश्वर-प्रदत्त अधिकार के माध्यम से मनुष्य द्वारा अंशतः पता लगाये जाने योग्य थी, मनुष्य को दैवी ढंग से प्रकाशित हुयी। यूनान के सिटी-स्टेट में नागरिकों को वाक् की स्वतंत्रता, मताधिकार, लोकपद पर निर्वाचित होने का अधिकार, व्यापार करने का अधिकार तथा न्याय प्राप्त करने का अधिकार प्रदान किया गया। इसी प्रकार के अधिकार रोमन विधि के जस सिविल (Jus civil) द्वारा रोमवासियों को सुनिश्चित कराये गये। इस प्रकार मानव अधिकारों की अवधारणा की उत्पत्ति सामान्यतया ग्रीक-रोमन (Greco- Roman) प्राकृतक विधि के स्टोयसिज्म (Stoicism) के सिद्धान्तों में पाया जाना माना जाता है जिसमें यह पाया गया कि एक सार्वभौमिक शक्ति सभी जीवों पर व्याप्त है और इसीलिये मानव आचरण प्राकृतिक विधि के अनुसार होना चाहिये।
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