प्राथमिक शिक्षा में अपव्यय तथा अवरोधन से आप क्या समझते हैं ? इनके क्या कारण हैं ? उन्हें दूर करने के उपाय दीजिए।
संविधान की धारा 45 में प्राथमिक शिक्षा को अनिवार्य व निःशुल्क बनाने का संकल्प किया। इसमें कहा गया है कि “संविधान लागू होने के 10 वर्ष के अन्दर राज्य अपने क्षेत्र के सभी 14 वर्ष की आयु के बालकों को निःशुल्क व अनिवार्य शिक्षा प्रदान करने का प्रयास करेगा।”
इस संवैधानिक उत्तरदायित्व को पूरा करने के लिए अनेक राज्यों में प्राथमिक शिक्षा अधिनियम बनाए, जिसमें प्राथमिक शिक्षा को अनिवार्य व निःशुल्क बनाने के कार्यक्रम व नीति निर्धारित की गई, परन्तु संवैधानिक निर्देश तथा राज्यों द्वारा पारित अधिनियमों के बावजूद भी प्राथमिक शिक्षा को अनिवार्य व निःशुल्क बनाने का प्रयास पूरा नहीं हो सका है। कोठारी आयोग ने इस कार्य को पूरा न हो पाने के लिए आवश्यक साधनों की अनुपलब्धता, अभिभावक की निरक्षरता व शिक्षा के प्रति उदासीन दृष्टिकोण का होना, लड़कियों की शिक्षा का विरोध, निर्धनता तथा जनसंख्या में विशाल वृद्धि को जिम्मेदार ठहराया है।
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शिक्षा में अपव्यय तथा अवरोधन की समस्या
आज शैक्षिक क्षेत्र में अनेक समस्यायें विद्यमान हैं, जैसे—अनुशासनहीनता की समस्या, भाषा की समस्या, अपव्यय तथा अवरोधन की समस्या आदि। ये सभी समस्यायें शैक्षिक प्रगति में बाधक सिद्ध हो रही हैं।
अपव्यय का अर्थ- अपव्यय का अर्थ है- राज्य तथा अभिभावकों द्वारा शिक्षा पर व्यय किये जाने वाले धन का पूरी तरह से लाभ न उठा पाना। जब कोई छात्र किसी कारणवश अपनी शिक्षा समाप्त होने से पहले ही बीच में छोड़ देता है तो उसे अपव्यय में सम्मिलित किया जाता है। हर्टाग समिति के अनुसार-
“अपव्यय से हमारा तात्पर्य किसी भी स्थिति में शिक्षा पूरी किये बिना ही, बालक को विद्यालय से हटा लेने से है।
अपव्यय के कारण- अपव्यय के निम्नलिखित कारण हैं-
1. निर्धनता- भारत अन्य देशों की तुलना में अत्यन्त निर्धन है। आज अत्यधिक महँगाई के कारण अधिकतर लोग अपने बच्चों का पालन-पोषण ठीक तरह से नहीं कर पाते हैं। ऐसी स्थिति में बालक धन कमाने के लिए पढ़ाई बीच में ही छोड़ देते हैं।
2. अभिभावकों का अशिक्षित होना- अभिभावक अशिक्षित होने के कारण शिक्षा के महत्व को नहीं जानते हैं तथा शिक्षा की जीवन में क्या उपयोगिता है, वे इसके बारे में कुछ नहीं जानते हैं। इसलिए वे अपने बच्चों को बिना किसी कक्षा अथवा स्तर की शिक्षा पूर्ण कराये विद्यालय से हटा लेते हैं।
3. पाठ्यक्रम का उपयुक्त न होना- प्राथमिक विद्यालयों के पाठ्यक्रम में व्यावहारिकता के गुण का अभाव है। प्राथमिक शिक्षा का पाठ्यक्रम छात्रों की रुचियों और आवश्यकताओं के अनुरूप नहीं है तथा इस स्तर का पाठ्यक्रम छात्रों के जीवन से सम्बन्धित नहीं है। अतः वह बालकों को अपनी ओर आकर्षित नहीं कर पाता है और न ही बालक उसमें रुचि लेते हैं। फलस्वरूप अधिकांश बालक पाठ्यक्रम से ऊब जाते हैं तथा पढ़ाई बीच में ही छोड़ देते हैं।
4. प्रशासनिक कारण विद्यालय प्रशासन- का मुख्य उत्तरदायित्व शिक्षा व्यवस्था पर नियन्त्रण रखना है; परन्तु आज विद्यालयी प्रशासन के अधिकारियों को अपने कर्तव्य तथा अधिकारों की कोई परवाह नहीं है, वे पथभ्रष्ट हो रहे हैं। आज विद्यालयों को मिलने वाले अनुदानों का गलत उपयोग हो रहा है तथा परीक्षा, प्रवेश आयु से सम्बन्धित निर्धारित नियमों की अवहेलना की जा रही है, जिससे अपव्यय की समस्या बढ़ रही है।
5. कक्षाओं में बालकों की संख्या अधिक होना- आज कक्षा में छात्रों की संख्या अधिक होने के कारण अधिक समय तक कक्षा में रुक पाना असम्भव है। इसलिए बैठने के लिए स्थान के अभाव में अनेक बालक बीच में ही पढ़ाई छोड़ देते हैं।
6. विद्यालयों में शैक्षिक साधनों का अभाव- भारत में ऐसे अनेक विद्यालय हैं, जिनमें शैक्षिक साधनों का अभाव है। शैक्षिक साधनों के अभाव में बालकों को समुचित शिक्षा प्रदान नहीं की जाती है। इसलिए आज बालकों की पढ़ाई में कोई रुचि नहीं है और वे बीच में ही पढ़ाई छोड़ देते हैं।
7. योग्य शिक्षकों का अभाव- आज भारत में ऐसे असंख्य विद्यालय हैं, जिनमें योग्य शिक्षकों का अभाव है। अयोग्य तथा अप्रशिक्षित शिक्षक पाठ याद न करने पर अथवा थोड़ी-सी उदण्डता करने पर भी बालकों को कठोर दण्ड देते हैं, जिससे बालकों की शिक्षा में कोई रुचि नहीं रहती है और वे कोई भी छोटी समस्या उत्पन्न होने पर पढ़ाई बीच में ही छोड़ देते हैं।
8. विद्यालयों में स्थान का अभाव होना- आज भी भारत में ऐसे अनेक विद्यालय हैं, जिनमें कक्षों तथा खेल के मैदानों का अभाव है। ऐसे विद्यालयों में बालकों को बैठने के लिए तथा खेलने के लिए स्थान नहीं मिल पाता है। फलस्वरूप अनेक बालक पढ़ाई बीच में ही छोड़ देते हैं।
9. सामाजिक तथा आर्थिक रचना- भारत में सामाजिक तथा आर्थिक रचना इस प्रकार की है कि लोग अपने बच्चों को साधारण शिक्षा दिलवाने में विश्वास रखते हैं। गाँवों में आज भी यह धारणा बनी हुई है कि बालक को उतना ही पढ़ाना चाहिए, जिससे उसको पढ़ना-लिखना आ जाए।
अवरोधन का अर्थ – जब कोई बालक एक ही कक्षा में एक से अधिक बार अनुत्तीर्ण हो जाता है या एक ही कक्षा में एक वर्ष से अधिक रहता है तो उसे अवरोधन में सम्मिलित किया जाता है।
हर्टाग समिति के अनुसार- “अवरोधन से हमारा तात्पर्य छोटी कक्षाओं में बालक को एक वर्ष से अधिक रखने से अवरोधन से बालक की क्षमता, योग्यता का तो व्यय होता ही है, साथ ही राष्ट्र के धन का भी दुरुपयोग होता है।
अवरोधन के कारण
अवरोधन के मुख्य कारण निम्नलिखित हैं-
1. अनुपयुक्त विद्यालयी वातावरण प्राथमिक विद्यालयों का वातावरण दोषयुक्त होता है। प्राथमिक विद्यालयों में प्रवेश के समय बालकों की आयु स्तर की अवहेलना की जाती है। फलस्वरूप नया प्रवेश लेने वाले बालक एक ही कक्षा में अनेक बार अनुत्तीर्ण होने वाले छात्रों की कुसंगति से प्रभावित होते हैं, जिससे उनमें भी शिक्षा के प्रति कोई रुचि नहीं रहती है।
2. उपस्थिति के नियमों की उपेक्षा- प्राथमिक स्तर पर सबसे पहले बालकों में नियमितता का अभ्यास डालना चाहिए, जिससे उन्हें कक्षा में बैठने की आदत पड़ जाए, परन्तु इस बारे में शिक्षक तथा अभिभावक दोनों की उदासीन मनोवृत्ति दिखलाई पड़ती है। परिणामस्वरूप बालकों में विद्यालय से भागकर अन्य स्थानों पर घूमने-फिरने और विद्यालय में न जाने की आदत हो जाती है।
3. कक्षा में बालकों की संख्या अधिक होना- कक्षा में बालकों की संख्या अधिक होने से कक्षा में बैठने तथा पाठ को समझने में कठिनाई होती है। कक्षा में संख्या अधिक होने के कारण शिक्षक भी बालकों पर वैयक्तिक रूप से ध्यान नहीं दे पाते हैं। फलस्वरूप प्रतिवर्ष कक्षा में अनुत्तीर्ण छात्रों की संख्या में वृद्धि होती रहती हैं।
4. कम आयु में बालकों को पढ़ाना- कुछ अभिभावक अपने बालकों को 2 या 3 वर्ष की अवस्था में ही पढ़ने बैठा देते हैं, परन्तु इस आयु में बालकों की बुद्धि अपरिपक्व होती है। फलस्वरूप वे प्राथमिक स्तर पर कठिन विषयों को नही समझ पाते हैं और वे कक्षा में अनुत्तीर्ण हो जाते हैं।
5. दोषयुक्त शिक्षा प्रणाली- प्राथमिक विद्यालयों में शिक्षक, वैयक्तिक भिन्नताओं पर ध्यान दिए बिना ही शिक्षा प्रदान करते हैं। कक्षा में प्रतिभासम्पन्न मन्दबुद्धि सभी प्रकार के बालक होते हैं। सभी को एक प्रकार की ही शिक्षा प्रदान की जाती है। फलस्वरूप, मन्द बुद्धि बालक पिछड़ जाते हैं तथा वे कक्षा में अनुत्तीर्ण होते जाते हैं।
6. पाठ्यक्रम का कठिन होना–प्राथमिक स्तर का पाठ्यक्रम अत्यधिक कठिन है। परिणामस्वरूप, बालक विषयों को भली-भाँति समझ नहीं पाते हैं और अनुत्तीर्ण हो जाते हैं।
7. अनुपयुक्त शैक्षिक व्यवस्था प्राथमिक स्तर पर नियुक्त शिक्षक अनुभवहीन तथा अप्रशिक्षित होते हैं। उन्हें मनोवैज्ञानिक विधियों का ज्ञान नहीं होता है, जिससे बालकों का न तो समुचित विकास होता है और न ही बालकों की पढ़ने में रुचि उत्पन्न हो पाती है।
8. सामाजिक तथा धार्मिक कारण- आज भी हमारे समाज में छुआछूत, रूढ़िवादिता आदि कुरीतियाँ व्याप्त हैं। इसीलिए अनुसूचित जातियों तथा जनजातियों के बालकों का विद्यालयों में निरादर किया जाता है, जिससे इन बालकों में हीन भावना का विकास हो जाता है। परिणामस्वरूप, वे अपने उद्देश्य को प्राप्त नहीं कर पाते हैं और कक्षा में अनुत्तीर्ण होते जाते हैं।
अपव्यय तथा अवरोधन की समस्या को दूर करने का उपाय
- प्राथमिक स्तर पर बालकों को उनकी आयु स्तर के आधार पर ही प्रवेश दिया जाए।
- शिक्षा पद्धति में तत्काल सुधार किया जाए।
- प्राथमिक शिक्षा की स्थिति तथा प्रगति से सरकार को परिचित कराया जाए।
- प्राथमिक विद्यालयों में योग्य, प्रशिक्षित तथा अनुभवी शिक्षकों को नियुक्त किया जाए।
- उपस्थिति सम्बन्धी नियमों का कठोरता से पालन किया जाए।
- प्राथमिक विद्यालयों में बालकों के शारीरिक विकास के लिए खेलकूद की व्यवस्था की जाए।
- प्रत्येक गाँव में जनसंख्या के अनुपात को ध्यान में रखकर प्राथमिक विद्यालयों की स्थापना की जाए।
- बालकों के मनोरंजन के लिए विभिन्न सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन किया जाए।
- प्राथमिक शिक्षा को अनिवार्य तथा निःशुल्क बनाया जाए।
- कक्षा में बालकों की संख्या कम की जाए।
- बालकों के स्वास्थ्य का परीक्षण किया जाए।
- प्रौढ़ शिक्षा को प्रोत्साहन दिया जाए।
- प्रशासनिक स्तर पर ईमानदार तथा कर्त्तव्यनिष्ठ अधिकारियों को नियुक्त किया जाए।
- प्राथमिक विद्यालयों में कक्ष-कक्षाओं, खेल के मैदान आदि की समुचित व्यवस्था की जाए।
- पाठ्यक्रम को व्यावहारिक तथा जीवन सम्बन्धी बनाया जाए।
- विद्यालय के वातावरण को आकर्षक, स्वच्छ तथा रुचिपूर्ण बनाया जाए।
- आवश्यक शैक्षिक साधनों को उपलब्ध कराया जाए।
- प्राथमिक स्तर पर शिक्षण के लिए सरल मनोवैज्ञानिक विधियों का उपयोग किया जाए।
कोठारी कमीशन ने अपव्यय तथा अवरोधन की समस्या को दूर करने के लिए निम्नलिखित सुझाव प्रस्तुत-
- सभी राज्यों में प्राथमिक शिक्षा को समरूपता प्रदान की जाए।
- प्राथमिक स्तर पर मूल्यांकन तथा की सुविधायें सुलभ करायी जाएँ ।
- प्रथम कक्षा की पढ़ाई समाप्त होने पर आयोजित की जाने वाली परीक्षा को समाप्त किया जाए।
- 11 से 14 वर्ष तक की आयु के बालकों के लिए साक्षरता कक्षायें प्रारम्भ की जाएँ।
- समाज में प्रौढ़ शिक्षा का प्रसार किया जाए।
- प्रथम कक्षा को खेल विधि द्वारा पढ़ाया जाए।
- प्राथमिक शिक्षा पर होने वाले व्यय की पूर्ति करने के लिए स्थानीय कर लगाया जाए।
- प्राथमिक स्तर पर शिक्षकों की न्यूनतम योग्यता हाईस्कूल अथवा उसके समकक्ष हो तथा उसने दो वर्ष का प्रशिक्षण प्राप्त किया हो।
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