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प्रौढ़ावस्था क्या है?
मनोवैज्ञानिकों ने प्रौढ़ावस्था को कानून के अनुसार इक्कीस वर्ष की आयु से लेकर जीवन के अन्त तक की अवस्था माना है। इतनी लम्बी विकास की अवस्था में निश्चित समय पर व्यक्ति में कुछ शारीरिक और मानसिक परिवर्तन होते हैं। अतः इन परिवर्तनों के प्रकार के अनुसार प्रौढ़ावस्था को कुछ उप-अवस्थाओं में बाँटा गया है जिनमें प्रत्येक के अलग-अलग शारीरिक और मानसिक लक्षण होते हैं तथा सांस्कृतिक दबाव व अपेक्षाओं से पैदा होने वाली अलग-अलग समायोजन से सम्बन्धित समस्याएँ होती है। अतः इस आधार पर प्रौढ़ावस्था को निम्नलिखित भागों में बाँटा जा सकता है।
1. पूर्व-प्रौढ़ावस्था (Pre- Adulthood) – परिपक्वता की कानूनी आयु से लगभग जीवन के चालीसवें वर्ष तक की अवस्था ।
2. मध्य प्रौढ़ावस्था (Middle Adulthood) — जीवन के चालीसवें वर्ष से साठ वर्ष तक की अवस्था ।
3. वृद्धावस्था (Old age) — जीवन के साठ वर्ष से लेकर व्यक्ति की मृत्युपर्यन्त तक की अवस्था। एडल्ट शब्द की उत्पत्ति लैटिन क्रिया एडल्टस से हुई है जिसका अर्थ सम्पूर्ण शक्ति एवं आकार में बढ़ा होना है। इस प्रकार परिपक्व अर्थात प्रौढ़ वह व्यक्ति है जिसने अपनी वृद्धि पूर्ण कर ली है एवं समाज के अन्य प्रौढ़ों के समान वह उस स्तर को प्राप्त करने के लिए तैयार है।
प्रौढ़ावस्था की पहचान व्यक्ति में होने वाले शारीरिक एवं मानसिक लक्षणों के आधार पर की जाती है जैसा कि तरुणावस्था लैगिकता से अलैंगिकता की मानी जाती है। परिणामस्वरूप प्रौढ़ावस्था जीवन की एक लम्बी अवधि होते हुए भी उसे जीवन की दूसरी अवस्थाओं से बहुत अच्छे तरीके से अलग करना मुश्किल है।
प्रौढ़ावस्था की विशेषतायें
हरलॉक के अनुसार 21 से 40 वर्ष की अवस्था प्रौढ़ावस्था कहलाती है। इस अवस्था की प्रमुख विशेषतायें निम्नलिखित हैं।
1. बहुमुखी उत्तरदायित्वों की अवस्था- प्रौढ़ावस्था नये-नये कर्तव्यों और उत्तरदायित्वों के निर्वाह की अवस्था होती है। इस अवस्था में व्यक्ति विवाह कर नये परिवार की स्थापना करता है जिससे व्यक्ति को अपने वैवाहिक जीवन, परिवार के सदस्यों सम्बन्धियों तथा व्यवसाय के अनेक उत्तरदायित्वों का निर्वाह करना पड़ता है। अपने परिवार के भरण-पोषण तथा सन्तानों की शिक्षा-दीक्षा का दायित्व प्रमुख होता है। समाज का सदस्य होने के नाते सामाजिक दायित्व भी इस अवस्था में बढ़ जाते हैं। धनोपार्जन के लिये आर्थिक दायित्वों को भी ‘पूरा करना पड़ता है। इस प्रकार प्रौढ़ावस्था ‘बहुमुखी दायित्वों की अवस्था है।’
2. आत्मनिर्भरता की अवस्था- इस अवस्था में प्राणी नये परिवार की स्थापना करता है। अतः बहुमुखी दायित्वों के निर्वाह के लिये उसका आत्मनिर्भर होना आवश्यक होता है। इस अवस्था में स्त्री और पुरुष स्वयं परिवार के संरक्षक होते हैं। अतः संरक्षक का दायित्व तभी पूरा हो पाता है जब व्यक्ति शारीरिक व आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर हो। जब तक व्यक्ति आत्मनिर्भर नहीं होता वह दायित्वों का निर्वाह नहीं कर सकता है। जिन बच्चों को अपने माता- पिता का अधिक संरक्षण प्राप्त होता है। वह इस आयु में आत्मनिर्भर नहीं हो पाते हैं। परिणामस्वरूप उन्हें अनेक समस्याओं का सामना करना पड़ता है।
3. समायोजन की अवस्था- प्रौढ़ावस्था में जीवन को सुचारू रूप से चलाने के लिये कई प्रकार का समायोजन करना पड़ता है। सबसे पहले तो वैवाहिक जीवन के साथ समायोजन करना पड़ता है। क्योंकि दो अलग परिवार से आये हुये पति और पत्नी की रुचियाँ, महत्वाकांक्षायें तथा मूल्य समान नहीं होते हैं। वैवाहिक समायोजन के लिये पति और पत्नी दोनों को एक-दूसरे की भावनाओं का आदर करना होता है। वैवाहिक समायोजन न होने पर परिवार विघटित हो जाते हैं और तलाक जैसी समस्यायें उत्पन्न होती है।
वैवाहिक समायोजन के अलावा पारिवारिक सदस्यों तथा व्यवसाय के साथ भी समायोजन करना पड़ता है। परिवार के सभी सदस्यों के साथ परस्पर अच्छे सम्बन्धों का विकास करना पड़ता है और धनोपार्जन के लिये व्यावसायिक क्षेत्र में भी समायोजन करना पड़ता है। अतः यह अवस्था ‘समायोजन की अवस्था’ है। जब व्यक्ति विभिन्न परिस्थितियों में समायोजन करने में सफल होता है तो उसका प्रौढ़ जीवन स्वस्थ व्यतीत होता है।
4. उपलब्धियों की अवस्था – इस आयु में व्यक्ति बहुत महत्वाकांक्षी होता है। वह अपने पारिवारिक सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक क्षेत्र में बड़ी-बड़ी उपलब्धियों की कामना रखता है और इस हेतु वह निरन्तर प्रयत्नशील भी रहता है। जो व्यक्ति अपने इन प्रयासों में सफल हो जाता है। उसका विभिन्न क्षेत्रों में विकास होता है। वह अपने पारिवारिक, सामाजिक, आर्थिक तथा राजनैतिक जीवन में प्रगति की ओर अग्रसर होता है।
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