बिहारी रीतिकाल के प्रतिनिधि कवि हैं। प्रस्तुत कथन का तर्कपूर्ण विवेचन कीजिए।
अथवा
“बिहारी के काव्य में सम्पूर्ण रीतिकालीन प्रवृत्तियों का समावेश हुआ है।” समीक्षा कीजिए।
अथवा
“बिहारी रीतिकाल के प्रतिनिधि कवि हैं।” प्रमाणित कीजिए।
हिन्दी-साहित्य के इतिहास में भक्तिकाल ‘स्वर्ण काल’ कहलाता है, क्योंकि भक्तिकाल में हिन्दी काव्य का बहुमुखी विकास हुआ था और भक्तिकाल के भक्त एवं सन्त कवियों ने अपनी रचनाओं में मानव-हृदय को स्पर्श करनेवाली एवं मानवमात्र से सहानुभूति रखनेवाली ऐसी उदार भावनाएँ अंकित की थी, जिनसे सामाजिक संकीर्णता दूर हुई, जनता मानवता की ओर उन्मुख हुई और शक्ति, शील एवं सौन्दर्य से सम्पन्न उस अलौकिक सत्ता की ओर आकर्षण उत्पन्न हुआ। इसके ठीक विपरीत रीतिकाल में आकर कवि-दृष्टि पूर्णतया बदल गयी। इस समय कविजन मानवता की ओर उन्मुख न होकर किसी राजा अथवा व्यक्ति विशेष की ओर उन्मुख होने लगे, अलौकिक सत्ता के सौन्दर्य का चित्रण रूप-गुण सम्पन्न नारी की कामोद्दीपक चेष्टाओं, क्रीड़ाओं आदि के सौन्दर्य का निरूपण करने लगे, आध्यात्मिकता से पराङ्मुख होकर सांसारिकता एवं विलासिता के गीत गाने लगे, ईश्वरीय विभूति का विवेचन न करके मानवीव ऐश्वर्य एवं वैभव का गुणगान करने लगे तथा दैवी कार्यों का चित्रण न करके काम-क्रीड़ाओं में रत नायक-नायिकाओं के व्यापारों का चित्रण करने लगे। इतना अवश्य है कि इस युग में आकर कला का अत्यधिक विकास हुआ। मुगल शासकों की कलापूर्ण रुचि के कारण स्थापत्य, मूर्ति, संगीत आदि ललित कलाओं के साथ-साथ काव्य-कला भी अपने चरमोत्कर्ष पर पहुँच गयी और काव्यात्मक अभिव्यक्ति में पहले से कहीं अधिक सूक्ष्मता, गहनता, प्राञ्जलता एवं चमत्कारप्रियता के दर्शन होने लगे। इस युग की सहज प्रवृत्तियाँ रीतिकालीन सभी कवियों में थोड़ी-बहुत मात्रा में विद्यमान हैं, किन्तु बिहारी में इनका चरमोत्कर्ष दिखायी देता है। अतएव अब रीतिकालीन सामान्य प्रवृत्तियों का निरूपण करते हुए बिहारी के काव्य में उनके चरम विकास को दिखाने की चेष्टा की जायगी सामान्यतः रीतिकाल की प्रवृत्तियाँ इस प्रकार हैं-
नायिका भेद- नायिका-भेद वर्णन रीति काव्य की एक बहुत बड़ी विशेषता है। बिहारी ने नायिका भेद को लेकर किसी लक्षण-ग्रन्थ की रचना नहीं की है, किन्तु उनकी सतसई नायिका-भेद के उदाहरणों की दृष्टि से बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। इसमें प्रायः सभी प्रकार की नायिकाओं के उदाहरण देखे जा सकते हैं।
नायिकाएँ मुख्यतः तीन प्रकार की होती हैं—स्वकीया, परकीया और सामान्या परकीया के दो भेद कन्या और प्रौढ़ा हैं। स्वकीया के तीन भेद होते हैं-मुग्धा, मध्या और प्रौढ़ा। मुग्धा नायिका के चार भेद-अज्ञात यौवना, ज्ञात यौवना, नवोढ़ा और विश्रब्ध नवोढ़ा होते हैं। मध्या और प्रौढ़ा के भी तीन-तीन भेद होते हैं-धीरा, धीराधीरा, अधीरा। इनके भी ज्येष्ठा, कनिष्ठा तथा उत्तमा, मध्यमा और अधमा भेद किये गये हैं। बिहारी सतसई में नायिकाओं के सभी रूप देखे जा सकते हैं। कुछ उदाहरण प्रस्तुत है-
मुग्धा नायिका-
छपि-छपि देखति कुचनि तनु, कर सौ अँगिया टारि।
नैननि मैं निरखति रहै, भई अनोखी नारि॥
मध्या नायिका- मुग्धा के बाद नायिका मध्या बनती है। पूर्ण विकसित यौवना को मध्या नायिका कहते हैं। बिहारी ने इसके सौन्दर्य का वर्णन करते हुए लिखा है-
झीवें पर मैं झुलमुली झलकत ओप अपार ।
सुरतरु की मनु सिन्धु मैं, लसति सपल्लव डार।
प्रौढ़ा नायिका— यह काम-वासना से अन्धी हो जाती है। रात-दिन उसे चैन नहीं रहता-
तजी संक सकुचति न चित, बोलत वाकु-कुवाकु
दिन छिनदा छाकी रहति छुटतु न छिन छवि-छाकु॥
परकीया-
भौहनि त्रासति, मुँह नटति, आँखिन सों लपटाति।
ऐचि छुड़ावति कर इंची, आगे आवतु-जाति ॥
आचार्यों ने अवस्था-भेद से नायिकाओं के आठ भेद किये हैं; यथा-
स्वाधीन पतिका, खण्डिता, अभिसारिका, कलहान्तरिता, विप्रलब्धा, प्रोषित्-पतिका, वासकसज्जा और विरहोत्कण्ठिता। बिहारी ने इन सभी का अतीव सुन्दर वर्णन किया है। इसके साथ ही नायिका भेद की भाँति सतसई में नायक-भेद का भी वर्णन उपलब्ध होता है।
नख-शिख वर्णन— बिहारी सतसई में रीतिबद्ध कवियों की भाँति नख-शिख वर्णन भी प्राप्त होता है। बिहारी ने अंगों का वर्णन दो रूपों में किया है आभूषणयुक्त और आभूषणरहित।
चरण वर्णन – चरण वर्णन में अधिकतर चरणों की लालिमा और कोमलता का वर्णन करने की परम्परा है। बिहारी ने पैर की उँगली, एड़ी तथा सम्पूर्ण पैर-तीनों की लाली तथा कोमलता का वर्णन किया है। सम्पूर्ण पैर का वर्णन द्रष्टव्य है—
पग-पग मग आगमन परत, अरुण चरण दुलि झूलि।
ठौर-ठौर लखियत उठे, दुपहरिया से फूलि॥
इसी प्रकार उँगली, स्तन, हस्त, ग्रीवा, चिबुक, अधर, कपोल, नासिका, नेत्र, भृकुटी, मस्तक, सम्पूर्ण मुख तथा केश आदि का वर्णन भी सतसई में प्राप्त होता है।
षट्ऋतु वर्णन— पट्ऋतु वर्णन भी रीतिकालीन काव्य की एक प्रमुख विशेषता है। बिहारी के काव्य में भी प्रकृति का विशद् चित्रण हुआ है। इनका वर्णन मुख्य रूप से उद्दीपन रूप में है। शरद् का वर्णन देखिए-
अरुन सरोरुह कर चरन, दृग खंजन मुख चन्द |
समै आय सुन्दरि सरद, काहि न करहि अनन्द ॥
इसी प्रकार अन्य ऋतुओं के भी वर्णन सतसई में देखे जा सकते हैं।
रीतिसिद्ध कवि बिहारी- प्रस्तुत विवेचन से यह स्पष्ट है कि बिहारी रीतिकाल के प्रतिनिधि कवि हैं। यद्यपि उन्होंने लक्षण ग्रन्थों की रचना नहीं की है तथापि उनकी सतसई रीतिकालीन काव्य-प्रवृत्तियों का सफल प्रतिनिधित्व करती है। वे न तो पूर्ण रूप से रीतिबद्ध हैं और न ही रीतिविरुद्ध अथवा रीतिमुक्त। उनकी सतसई में नख-शिख, नायिका भेद, शृंगार रस, षट्-ऋतु, अलंकार आदि सभी विषयों का वर्णन किया गया है। ये सभी रीति की बँधी परिपाटी के अनुकूल हैं। यही कारण है कि उन्हें घनानन्द, बोधा, ठाकुर आदि स्वच्छन्द कवियों के साथ नहीं रखा जा सकता।
निष्कर्ष- उक्त विवेचन से यह निष्कर्ष निकलता है कि बिहारी ने यद्यपि लक्षण-ग्रन्थ के रूप में ‘सतसई’ की रचना नहीं की, फिर भी उसमें रीति परम्परा की पूरी झलक है। निश्चय ही महाकवि बिहारी रीतिकाल के प्रतिनिधि रीतिसिद्ध कवि हैं।
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