भारत में मानवाधिकारों के संरक्षण एवं उन्नयन में ‘जनहितवाद’ की भूमिका को समझाइए।
विधि का सामान्य नियम है कि विधिक उपचार प्राप्त करने के लिए नियमित वाद दायर किया जाए लेकिन जनहितवाद इसका अपवाद है। जनहित वाद वह वाद है जिसमें किसी व्यक्ति या संस्था द्वारा किसी व्यापक रूप से विहित मामले को न्यायालय (उच्च न्यायालय तथा सर्वोच्च न्यायालय) में उठाया जाता है।
न्यायालय द्वारा विधि के उपरोक्त सामान्य नियम को अब शिथिल करके जनहित वाद द्वारा अपना द्वार निर्धन एवं असहाय लोगों के लिए खोल दिया है तथा सुनवाई के नियमित प्रक्रिया के नियम को तोड़ दिया है। कार्य में रुचि रखने वाले नागरिक या सामाजिक संगठन को ऐसे व्यक्ति या व्यक्तियों के समूह के जो अपनी निर्धनता या अभावग्रस्त स्थिति के कारण स्वयं न्यायालय के द्वार पर नहीं पहुंच सकते हैं, संविधानिक और अन्य विधिक अधिकारों को प्रवृत्त कराने की अनुमति देता है। लोकहित वाद (जिसे सामाजिक हित वाद भी कहते हैं) के लिए द्वार खुल जाने से एशियाई खेल के कर्मकारों को अपनी मजदूरी मिली। बंधुआ मजदूरों को स्वतंत्रता प्राप्त हुई। स्त्रिों और बालकों को विशेष व्यवहार और संरक्षण मिला, पटरी पर रहने वालों को आश्रय मिला, फेरी वालों को व्यापार का अधिकार मिला। मसूरी और अलवर को खतरनाक खनन उद्योग से संरक्षण मिला और जेल में रहने वाले बंदियों को भी यह अधिकार मिला कि उनके साथ मनुष्य जैसा व्यवहार किया जाए।
यह स्पष्ट रूप से और दृढ़ता से स्थापित हो चुका है कि जनता का कोई भी सदस्य जिसका पर्याप्त हित हो अन्य व्यक्तियों के अधिकार के प्रवर्तन के लिए और सामान्य व्यथा के परितोष के लिए न्यायालय मे जा सकता है।
लोकहित वाद में जो उदार दृष्टिकोण अपनाया गया है उसका यह अर्थ नहीं है कि सुनवाई का अधिकार नष्ट हो गया है और उसे दफना दिया गया है। न्यायालय ऐसे व्यक्ति को विधिक प्रक्रिया का दुरुपयोग नहीं करने देते जो जनता की सेवा करने का ढोंग करता है। न्यायालय कार्यवाही की समीक्षा करके यह देखता है कि क्या उससे लोक प्रयोजन सिद्ध होगा। एक संसद सदस्य कृष्णा स्वामी ने उच्चतम न्यायालय के समक्ष एक याचिका प्रस्तुत की जिसमें यह प्रार्थना की गई कि न्या. वी. रामास्वामी को हटाने के लिए जिस प्रस्ताव को 108 संसद सदस्यों ने समर्थन दिया था उसे विखंडित कर दिया जाए। न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि याची को याचिका प्रस्तुत करने का कोई अधिकार नहीं था। याचिका फाइल करने में कोई लोक प्रयोजन नहीं था।
जब जनरल वैद्य की हत्या के लिए दो व्यक्तियों को दोषी ठहराया गया तब एक राजनीतिक दल के अध्यक्ष सुरजीत सिंह मान ने उनकी दोषसिद्धि और दंड आदेश को चुनौती देते हुए याचिका फाइल की। न्यायालय इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि याची को सुनवाई का अधिकार नहीं था। अभियोजन के लिए वह परव्यक्ति था और उसे दोषसिद्ध व्यक्तियों ने कोई प्राधिकार नहीं दिया था।
लोकहित वाद की भूमिका (Role of PIL)
उच्चतम न्यायालय ने उत्तरांचल राज्य बनाम बलवंत सिंह चौफाल, AIR 2010 S.C. में यह संप्रेक्षण किया कि भारत में लोकहितवाद न्यायपालिका की इस भावना से जन्मा है कि न्यायपालिका के समाज के निर्धन और वंचित वर्ग के प्रति कुछ कर्त्तव्य हैं। लोकहितवाद से सुने जाने का अधिकार विस्तारवान हो गया है। जो व्यक्ति या निकाय सामाजिक कर्त्तव्य की भावना से प्रेरित होकर कार्य करते हैं उनके लिए सुनवाई के नियम को शिथिल कर दिया गया है वे भी याचिका दे सकते हैं।
लोकहित वाद को 3 चरणों में बांटा जा सकता है।
पहला चरण- निर्धन, निरक्षर और वंचित वर्ग के अनु. 21 के अधीन अधिकारों के संरक्षण के लिए निर्देश दिए गए।
दूसरा चरण- पारिस्थितिकी, पर्यावरण, वन, वन्यजीव, जलजीव, पर्वत, नदी, ऐतिहासिक स्मारक आदि के परिरक्षण के लिए निर्देश दिए गए।
तीसरा चरण- लोक जीवन में भ्रष्टाचार, शासन में पारदर्शिता और ईमानदारी से संबंधित मामलों में निर्देश दिए गए।
प्रथम चरण- जसभाई मोतीभाई देसाई बनाम रोशकुमार, 1976 (1) SEC 671 इस निर्णय में व्यथित व्यक्ति का निर्वचन करते हुए यह अभिनिर्धारित किया कि पारंपरिक नियम (सुनवाई का) सुनम्य है। इसमें वे व्यक्ति भी आते हैं जिनका कोई सांपत्तिक हित नहीं है किन्तु जिनका विषयवस्तु में पर्याप्त और वास्तविक हित है।
बार काउंसिल ऑफ महाराष्ट्र बनाम एम. वी. डाभोलकर, 1976 SCR 306 में न्यायालय ने यह संप्रेक्षण किया कि पारंपरिक प्रतिपक्षी प्रणाली में यह खोजते थे कि व्यथित व्यक्ति कौन है। किंतु इस नए वर्ग के वादों में समाज का एक वर्ग या. संपूर्ण समाज अंतर्वलित होता है। न्याय के मार्ग में प्रक्रिया अवरोध नहीं बन सकती।
सुनिल बत्रा बनाम दिल्ली प्रशासन AIR 1981 S.C. में न्यायालय ने एक बंदी को यह अनुमति दी कि वह अपने साथी कैदी को यातना दिए जाने का विरोध करे।
फर्टिलाइजर कारपोरेशन कामगार यूनियन बनाम भारत संघ, AIR 1981 S.C. में न्यायालय ने यह कहा कि कारखाने के कर्मकारों को कारखाने के विक्रय की वैधता पर प्रश्न उठाने का अधिकार है।
एस. पी. गुप्ता बनाम भारत के राष्ट्रपति, AIR 1982 SC में न्यायालय ने सुने जाने के अधिकार के स्थान पर एक उदार नियम प्रतिस्थापित कर दिया। न्यायालय ने कहा कि जहां निर्धनता, या सामाजिक या आर्थिक दृष्टि से प्रतिकूल परिस्थिति के कारण कोई व्यक्ति या वर्ग न्यायालय तक नहीं पहुंच सकता है तो जनता का कोई भी सदस्य उनकी ओर से न्यायालय में अभ्यावेदन कर सकता है। न्यायालय ने एक अधिवक्ता को आपात में न्यायाधीशों के स्थानांतरण ने को चुनौती देने की अनुमति दी।
अनिल यादव बनाम बिहार राज्य, AIR 1982 S.C. में भागलपुर में विचारणाधीन व्यक्तियों को अंधा बनाने के बारे में पिटीशन ग्रहण की गई।
परमजीत कौर बनाम पंजाब राज्य में उच्चतम न्यायालय के एक न्यायाधीश को भेजे गए तार को बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका के रूप में ग्रहण किया।
दूसरा चरण- रूरल लिटिगेशन बनाम उत्तर प्रदेश राज्य, AIR 1996 S.C. में यह आदेश दिया कि देहरादून की घाटी में चूना पत्थर की खदानें बंद कर दी जाएं क्योंकि पर्यावरण पर उनसे प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा था। एम. सी. मेहता बनाम भारत संघ, AIR 1988 में न्यायालय ने इस बात पर ध्यान दिया कि कानपुर में चमड़ा उद्योग द्वारा अपशिष्ट बहाए जाने से प्रदूषण फैल रहा है। न्यायालय ने उसके नियंत्रण के लिए आदेश पारित किए।
इसी प्रकार एम. सी. मेहता बनाम भारत संघ, AIR 1997 S.C. में न्यायालय ने ताजमहल के संरक्षण के लिए कोयले का उपयोग करने वाले 299 उद्योगों को स्थानान्तरित करने का आदेश दिया। उन्हें यह विकल्प दिया गया कि वे ईंधन के लिए सी.एन.जी. का उपयोग कर सकते हैं। एस. सी. मेहता बनाम कमलनाथ, AIR 2000 S.C. में न्यायालय ने यह संप्रेक्षण किया कि संविधान के अनु. 21 के प्रकाश में अनु. 48क और अनु. 51क(छ) पर विचार किया जाना चाहिये। वायु, जल और मृदा के विक्षोभ या गड़बड़ी से अनु. 21 के अर्थात ति जीवन परिसंकटमय हो जाएगा। पर्यावरण में छेड़छाड़ करने से अनु. 14 और 21 के अधीन अधिकारों का उल्लंघन होता है। न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि प्रदूषणकर्त्ता, प्रभावित व्यक्ति को प्रतिकर देगा और वही पर्यावरण को पुनः पूर्वस्थिति में लाने के लिए व्यय देगा।
ध्वनि प्रदूषण के मामले में AIR 2005 S.C. न्यायालय ने ध्वनि प्रदूषण (ध्वनि विस्तारक या लाउडस्पीकर के उपयोग द्वारा) के बारे में निर्देश दिए। एस. जगन्नाथ बनाम भारत संघ, AIR 1987 S.C. में न्यायालय ने यह निर्देश दिया कि आर्थिक दृष्टि से भंगुर समुद्री किनारे के क्षेत्रों में प्रौन मछली का सघन और अर्धसघन मत्स्य पालन रोक दिया जाए।
तीसरा चरण विनीत नारायण बनाम भारत संघ, AIR 1998 S.C. में एक पिटीशन फाइल की गई। याची पत्रकार था। इस याचिका में न्यायालय ने राजनीतिज्ञों और अधिकारियों के कुछ संव्यवहारों का अन्वेषण करने का आदेश दिया। ये संव्यवहार कुछ डायरियों में लिखे गए थे जिन्हें “जैन डायरी” का नाम दिया गया था। राजीव रंजन सिंह बनाम भारत संघ, AIR 2006 S.C. में लोकहितवाद बिहार राज्य में सरकारी खजाने में से 500 करोड़ रु. से अधिक के गबन के बारे में था। न्यायालय ने आदेश जारी किए जिससे दोषी व्यक्तियों का न्यायालय के समक्ष विचारण प्रारंभ हुआ। इसे बोलचाल में “चारा घोटाला” कहा जाता है।
एम. सी. मेहता बनाम भारत संघ, AIR 2007S.C. को ताज विरासत क्षेत्र परियोजना वाद कहा जाता है। इसमें योजना यह थी कि यमुना नदी की धारा आगरा किला और ताजमहल के बीच मोड़ दी जाएगी और खाने-पीने की दुकानें, बाजार आदि बनाए जाएं। न्यायालय ने मुख्यमंत्री और संबद्ध मंत्री की भूमिका पर भी प्रश्न चिह्न लगाया।
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