भारत में मौलिक आवश्यकता मूलक मानव अधिकारों के रूप में राज्य के नीति निर्देशक सिद्धान्तों की व्याख्या कीजिए।
भारतीय संविधान के भाग 4 में राज्य के नीति निर्देशक तत्वों का उल्लेख किया गया है। भाग 3 में वर्णित मूल अधिकार जहाँ मानव अधिकारों को संरक्षित करते हैं उसी प्रकार राज्य के नीति निर्देशक तत्व भी मानव अधिकारों को संरक्षित करते हैं। दोनों में अन्तर यह है कि जहाँ मूल अधिकार न्यायालय द्वारा प्रवर्तनीय हैं वहीं राज्य के नीति निर्देशक तत्व न्यायालय द्वारा प्रवर्तनीय हैं।
राज्य के नीति निर्देशक तत्वों में गणतंत्रात्मक संविधान के अन्तर्गत राज्य के विचार एवं उद्देश्य प्रतिपादित किए गए हैं जो कि सामाजिक आर्थिक और राजनैतिक न्याय सुनिश्चित करने के लिए आवश्यक समझे गये हैं। हमारा संविधान राज्य को कल्याणकारी एवं समाजवादी राज्य की स्थापना का प्रावधान करता है। राज्य के नीति निर्देशक तत्वों का लक्ष्य आर्थिक एवं सामाजिक लोकतंत्र स्थापित करना है जिसका संकल्प प्रस्तावना में दिया गया है। ये मानव अधिकार के प्रमाण हैं।
ये निर्देश विधिगत मान्यताएं (Jural postulates) हैं जो कि समय की देन हैं। इनका प्रादुर्भाव औद्योगीकरण का अपरिहार्य परिणाम था। इसीलिए स्वाभाविक रूप से बीसवीं शताब्दी में बनाए जाने वाले संविधान में इन्हें किसी न किसी रूप में समाहित किया जाने लगा। जर्मनी के वाइमर संविधान में, जो प्रथम महायुद्ध के पश्चात् लिखा गया था, इनमें से कई सिद्धान्तों को मूल अधिकारों के रूप में सम्मिलित किया गया था, परन्तु वाइमर संविधान में एक बड़ी दुर्बलता यह थी कि उसका कोई मूल अधिकार न्यायनिर्णेय नहीं था। सर्वप्रथम सन् 1937 में आयरलैण्ड के संविधान में न्यायालयों द्वारा प्रवर्तनीय मूल अधिकारों को नीति निर्देशन सम्बन्धी मूल अधिकारों से पृथक किया गया। नीति निर्देशक संबंधी मूल अधिकारों को आयरलैण्ड के संविधान में सामाजिक नीति के निर्देशक तत्व का नाम दिया गया है। हमारे संविधान में राज्य की नीति के निर्देशक तत्वों की परिकल्पना आयरलैण्ड के संविधान को ध्यान में रखते हुए की गई है। संविधान सभा में निर्देशक तत्वों का समर्थन करते हुए डाक्टर भीमराव अम्बेडकर ने इस प्रकार कहा था-
“मेरी विवेक बुद्धि से, निर्देशक तत्वों का बड़ा महत्व है, क्योंकि वे अभिकथित करते हैं कि हमारा आदर्श आर्थिक लोकतंत्र है। कारण यह है कि हम संविधान में उपबंधित विभिन्न प्रक्रियाओं के माध्यम से केवल संसदीय प्रणाली की सरकार का बिना किसी निर्देश के कि हमारा आर्थिक आदर्श कि हमारी सामाजिक व्यवस्था क्या होनी चाहिए स्थापित किया जाना नहीं चाहते हैं, इसलिए हम लोगों ने जानबूझकर निर्देशक तत्वों को संविधान में सम्मिलित कर दिया है।”
निर्देशों की उपयोगिता- निर्देशक तत्वों का क्रियान्वयन विधान बनाकर किया जा सकता है। निर्देशों में अभिकथित नीतियों को कार्यान्वित करने के लिए यदि कोई विधि नहीं है तो राज्य या कोई व्यक्ति विद्यमान विधि या विधिक अधिकार का उल्लंघन इस आधार पर नहीं कर सकता है कि वह निर्देश का पालन कर रहा है।
अनुच्छेद 39ङ, 41 और 43 (3) जैसे कुछ निर्देश गांधीवादी समाजवाद की स्थापना करने के लिए हैं।
निर्देशों में विधिक कमी के कारण एक संविधानवेत्ता ने संविधान में जो कि विधिक विलेख है, उनके समावेश किए जाने की उपयोगिता पर प्रश्न चिन्ह लगाया है। सर आइवर जेनिंग्स ने कहा है कि ये तो “पुण्यात्मा लोगों की महत्वाकांक्षा मात्र” है। उनके अनुसार अधिकांश निर्देशों के पीछे जो दर्शन है वह “फेवियन समाजवाद” है जिसमें से समावाद निकाल दिया गया है क्योंकि उत्पादन और वितरण के साधनों के राष्ट्रीयकरण का अभाव है। यह आलोचना सही नहीं है कि क्योंकि हमारे संविधान में किसी विशिष्ट वाद को स्वीकार नहीं किया गया है। इसमें मिश्रित आर्थिक-व्यवस्था को स्थान दिया गया है। व्यक्तिवाद और समाजवाद के बीच सामंजस्य स्थापित करने के लिए अनियंत्रित प्राइवेट उद्यम और हित के दुर्गुणों को सामाजिक नियंत्रण और कल्याणकारी उपायों द्वारा मिटाने का यथासम्भव प्रयास किया गया है। हमारी योजनाओं का उद्देश्य समाज का समाजवादी ढांचा घोषित किया गया है।
ग्रेनविल आस्टिन के विचार में निर्देशों का लक्ष्य “सामाजिक क्रांति के उद्देश्यों की प्राप्ति है। इस क्रान्ति के उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए आवश्यक परिस्थितियाँ उत्पन्न करने की क्रांति को आगे बढ़ाना है।” वे स्पष्ट करते हुए यह सम्प्रेषण करते हैं-
“राज्य की इन सकारात्मक बाध्यताओं की सर्जना करके, संविधान सभा ने भारत की भावी सरकारों को यह उत्तरदायित्व सौंपा है कि वे व्यक्ति-स्वातंत्र्य और लोक हित के बीच अथवा कुछ थोड़े से लोगों की संपत्ति और उनके विशेषाधिकार बनाये रखने के लिए और सामान्य हित के लिए सभी मनुष्यों को समान रूप से शक्ति देकर उन्हें स्वतंत्र करने के उद्देश्य से उन्हें कुछ फायदे देने के बीच मध्यम मार्ग खोजें।”
निर्देशों के पीछे अधिशास्ति- निर्देशक तत्वों को न्यायालय द्वारा प्रवर्तित नहीं करवाया जा सकता है और यदि तत्कालीन सरकार इनमें अन्तर्निहित सामाजिक-आर्थिक आदर्शों को पूरा नहीं करता है तो कोई न्यायालय उन्हें ऐसा करने के लिए बाध्य नहीं कर सकता है। फिर भी इन निर्देशों के संबंध में यह उपबंधित किया गया है कि वे “देश के शासन में मूलभूत हैं और विधि के बनाने में इन तत्वों को लागू करना राज्य का कर्त्तव्य होगा।”
व्यक्त इनके पीछे अधिशास्ति (Sanction) राजनीतिक है। इनकी प्रवर्तनीयता पर विचार करते हुए डाक्टर अम्बेडकर ने संविधान सभा में यह कहा था, “यदि कोई सरकार इनकी अवहेलना करेगी तो उसे निर्वाचन के समय मतदाताओं को उत्तर देना होगा।” यह विपक्ष के हाथों में एक सशक्त अस्त्र होगा जिससे वे सरकार के कार्यों की आलोचना इस आधार पर कर सकेंगे कि उसका अमुक कार्यपालक या विधायी कृत्य निर्देशक तत्वों के प्रतिकूल है। निर्देशों के प्रवर्तन के लिए इससे अधिक प्रभावी अधिशास्ति अनुच्छेद 355 में दिखाई पड़ती है। इसमें कहा गया है-
“संघ का यह कर्त्तव्य होगा कि वह प्रत्येक राज्य की सरकार का इस संविधान के उपबंधों के अनुसार चलाया जाना सुनिश्चित करे।”
यह बात निर्विवाद है कि निर्देशक तत्व संविधान के भाग हैं। यह सही है कि निर्देशों को न्यायालय द्वारा प्रवर्तित नहीं कराया जा सकता, परन्तु अनुच्छेद 37 में इनको कर्त्तव्य के रूप में निश्चित किया गया है कि “विधि बनाने में इन तत्वों को लागू करना राज्य का कर्त्तव्य होगा।” यदि राज्य संघ द्वारा दिए गए निर्देशों का अनुपालन करने से इनकार करते हैं तो अवज्ञा करने वाले राज्य के विरुद्ध अनुच्छेद 365 लागू किया जा सकता है।
निर्देशों की न्यायनिर्णेयता- निर्देशक तत्व भारत में विधानमंडलों को इस बात के लिए कतिपय निर्देश देते हैं कि उन्हें कैसे, किस प्रकार और किस प्रयोजन के लिए अपनी शक्ति का प्रयोग करना है। परन्तु जैसा कि अनुच्छेद 37 में कहा गया है, ये निर्देश न्यायालय में प्रवर्तनीय नहीं हैं। कारण यह है कि वे किसी व्यक्ति के पक्ष में कोई ऐसे अधिकारों का सृजन नहीं करते जिनका न्यायालय द्वारा निर्णय हो सके। निर्देशों की परिकल्पना इस धारणा पर की गई है कि इसका प्रवर्तन न्यायालय द्वारा नहीं बल्कि लोक मत द्वारा सुनिश्चित किया जाएगा। फिर भी संविधान में घोषणा की गई है कि ये निर्देश देश के शासन में मूलभूत हैं और विधि बनाने में उनको लागू करना राज्य की बाध्यता है।
जो आदेश अनुच्छेद 37 में दिया गया है वह विधान मंडल को संबोधित है। न्यायालय संविधान के या अधिनियमों के बीच जो स्थान छूटा हुआ है उसमें न्यायिक विधि का निर्माण कर सकते हैं। इसलिए यह आदेश न्यायालयों को भी लागू होता है।
अनुच्छेद 12 के साथ पठित अनुच्छेद 36 में यथा परिभाषित राज्य के अन्तर्गत न्यायालय भी आते हैं। अतएव ‘न्यायिक प्रक्रिया’ भी राज्य की कार्यवाही है। न्यायालयों का यह उत्तरदायित्व है कि वे संविधान और सामान्य अधिनियमों का इस प्रकार निर्वाचन करें जिससे निर्देशों का क्रियान्वयन सुनिश्चित हो सके और निर्देश तथा व्यक्तियों के पीछे जो सामाजिक उद्देश्य है उसकी पूर्ति हो सके, जैसे अनुच्छेद 14 या 304 का निर्वचन ।
न्यायालय किसी विधि को इस आधार पर अविधिमान्य नहीं ठहरा सकते कि वह निर्देशक तत्वों का अतिलंघन करती है लेकिन बहुत सी विधियों को इसलिए सांविधानिक घोषित किया गया है कि वे निर्देशक तत्वों को क्रियान्वित करती हैं। उदाहरण के लिए यदि किसी विधि पर आक्षेप इस आधार पर किया जाता है कि वह अनुच्छेद 14 या 19 में विनिर्दिष्ट अधिकार का अतिलंघन करती है तो ऐसी स्थिति में यदि विधि किसी निर्देशक तत्व को क्रियान्वित करने के लिए बनाई गई है तो न्यायालय उसकी विधिमान्रूता का समर्थन करेगा। वह यह अभिनिर्धारित करेगा कि यह अनुच्छेद 14 के प्रयोजन के लिए “युक्तियुक्त वर्गीकरण” है या अनुच्छेद 19 के अर्थान्तर्गत “युक्तियुक्त निर्बंधन ।”
यद्यपि कि निर्देशक तत्व न्यायालय द्वारा प्रवर्तनीय नहीं हैं तथापि हाल में उच्चतम न्यायालय ने उचित मामलों में निर्देश निकाल कर सरकार से यह अपेक्षा की है कि निर्देशों ने जो आदर्श सम्मुख रखे हैं उनको चरितार्थ करने के लिये वह अपना सकारात्मक कर्तव्य पूरा करे।
राज्य के ये निर्देशक तत्व पूर्णतया मानवाधिकारों को संरक्षित करते हैं। इन निर्देशकों में मानवाधिकारों को संरक्षित करने तथा उन्हें बढ़ाने के लिए निम्न तत्वों से परिलक्षित होता है-
- कल्याणकारी राज्य
- न्याय पर आधारित सामाजिक व्यवस्था
- समाजवादी एवं कल्याणकारी संरचना
- समान न्याय एवं निःशुल्क विधिक सहायता
- समतुल्य लोकतंत्र
- सामाजिक सेवाएं
- काम की दशाएं
- निर्वाह मजदूरी
- उद्योगों के प्रबंध में कर्मकारों का भाग लेना
- निःशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा का उपबंध
- दुर्बल वर्गों के शिक्षा एवं अर्थ संबंधी हितों की अभिवृद्धि
- जीवन स्तर को ऊँचा करना आदि।
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