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भारत के संविधान की विशेषताएँ (Features of Indian Constitution)
भारत के संविधान की विशेषताएँ- भारत का संविधान विश्व का विशालतम संविधान है। इस संविधान में भारत की परिस्थितियों व देश, काल के अनुरूप विभिन्न प्रकार के प्रावधान किये गये हैं। भारतीय संविधान की विशिष्टताएँ इसके विविध प्रावधानों में निहित हैं।
भारतीय संविधान की विशेषताओं का संक्षेप में निम्नवत् उल्लेख किया जा सकता है-
(1) लोकप्रिय प्रभुसत्ता पर आधारित संविधान
भारत का संविधान जनता द्वारा निर्मित होने के कारण लोकप्रिय सम्प्रभुता पर आधारित है।
संविधान की प्रस्तावना में कहा गया है, “हम भारत के लोग…… दृढ़ संकल्प होकर अपनी इस संविधान सभा में आज दिनांक 26 नवम्बर, 1949 ई. को एतद् द्वारा इस संविधान को अंगीकृत अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं।”
(2) निर्मित, लिखित और सर्वाधिक व्यापक संविधान
भारतीय संविधान संसार के सबसे बड़े संविधानों में से एक ही नहीं अपितु विशालतम है। डॉ. आइबर जैनिंग्स के शब्दों में, “भारतीय संविधान विश्व का सर्वाधिक व्यापक संविधान है।” भारत के संविधान में 397 अनुच्छेद, 10 अनुसूची और 4 परिशिष्ट हैं, जबकि अमेरिका के संविधान में केवल 7, कनाडा के संविधान में 147, आस्ट्रेलिया के संविधान में 128 और दक्षिण अफ्रीका के संविधान में 253 अनुच्छेद ही हैं। 42वें संशोधन से तो भारतीय संविधान की व्यापकता में और वृद्धि हो गयी है।
(3) सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न लोकतान्त्रिक गणराज्य
संविधान की प्रस्तावना में स्पष्ट उल्लेख किया गया है कि भारत सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न लोकतन्त्रात्मक गणराज्य है। इसकी निम्न विशेषताएँ इस प्रकार हैं-
(अ) सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न- सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न का अर्थ यह है कि आन्तरिक या बाहरी दृष्टि से भारत पर किसी विदेशी सत्ता का अधिकार नहीं है। भारत अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में अपनी इच्छानुसार आचरण कर सकता है और वह किसी भी अन्तर्राष्ट्रीय समझौते या सन्धि को मानने के लिए बाध्य नहीं है।
(ब) लोकतन्त्रात्मक राज्य- भारत एक लोकतन्त्रात्मक राज्य है अर्थात् भारत में राजसत्ता जनता में निहित है। जनता को अपने प्रतिनिधि निर्वाचित करने का अधिकार होगा जो जनता के स्वामी न होकर सेवक होंगे।
(स) भारत एक गणराज्य है- ब्रिटेन जैसे विश्व के कुछ ऐसे लोकतन्त्रात्मक राज्य हैं जहाँ राज्य का प्रधान वंशानुगत राजा होता है लेकिन भारत एक लोकतन्त्रात्मक राज्य होने के साथ-साथ एक गणराज्य है। भारतीय राज्य का गणतन्त्रात्मक स्वरूप इससे स्पष्ट हो जाता है कि भारत राज्य का सर्वोच्च अधिकारी वंश क्रमानुगत राजा न होकार भारतीय जनता द्वारा अप्रत्यक्ष रूप से निर्वाचित राष्ट्रपति है।
(4) समाजवादी राज्य
42वें संवैधानिक संशोधन द्वारा प्रस्तावना में भारत को ‘समाजवादी राज्य’ घोषित किया गया है। सन् 1977 के राजनीतिक परिवर्तन के बाद भी प्रस्तावना में ‘समाजवादी’ शब्द को बनाये रखा गया।
(5) पंथ निरपेक्ष राज्य
भारतीय संविधान में भारत को एक पंथ निरपेक्ष राज्य बनाने हेतु हमारे संविधान में महत्त्वपूर्ण प्रावधान किये गये हैं। भारतीय संविधान के धर्म, स्वतन्त्रता सम्बन्धी उपबन्ध धर्म निरपेक्ष अथवा असाम्प्रदायिक राज्य की आधारशिला हैं। 42वें संविधान संशोधन द्वारा प्रस्तावना में भारत को अब स्पष्ट रूप से ‘धर्म निरपेक्ष राज्य’ घोषित किया गया है।
श्री वेंकट रमन के शब्दों में, “धर्म-निरपेक्ष राज्य न धार्मिक है और न अधार्मिक और न धर्म-विरोधी परन्तु धार्मिक कार्यों और सिद्धान्तों से सर्वथा पृथक् है और इस प्रकार धार्मिक मामलों में पूर्णतया तटस्थ है।” धर्म-निरपेक्ष राज्य, धर्म-विरोधी नहीं होता और न ही धर्म के प्रति उदासीन ही रहता है, वरन् उसके द्वारा धार्मिक मामलों में तटस्थता की नीति को अपनाया जाता है।
(6) नागरिकों के मौलिक अधिकार
भारतीय संविधान की महत्त्वपूर्ण विशेषता यह है कि उसमें मूल अधिकारों की महत्त्वपूर्ण घोषणा की गई है। यह अमेरिका के ‘अधिकार पत्र (Bill of Rights) के आधार पर है। इन अधिकारों का प्रयोग भारतीय गणतन्त्र के समस्त नागरिक करते हैं। ये अधिकार ही राष्ट्रीय संगठन के आधार हैं।
(7) मूल कर्त्तव्यों की व्यवस्था
मूल संविधान में तो केवल मौलिक अधिकारों की ही व्यवस्था की गयी थी; लेकिन 42वें संवैधानिक संशोधन, 1976 के द्वारा मूल संविधान में एक नया भाग ‘चार (अ)’ जोड़ा गया है और इसमें नागरिकों के मूल कर्त्तव्यों का उल्लेख किया गया है। इस संवैधानिक संशोधन द्वारा नागरिकों के 10 मूल कर्त्तव्य निश्चित किये गये हैं।
(8) नीति निर्देशक सिद्धान्त
भारतीय संविधान के चौथे अध्याय में शासन संचालन के लिए मूलभूत सिद्धान्तों का वर्णन किया गया है और इन्हें ही राज्य के नीति निर्देशक तत्व अर्थात् नीति निश्चित करने वाले तत्त्व कहा गया है। भारतीय संविधान में नीति निर्देशक तत्व का विचार आयरलैण्ड के संविधान से लिया गया है और इस तत्व की पद्धति के सम्बन्ध में संविधान के 37वें अनुच्छेद में कहा गया है कि
“नीति निर्देशक तत्वों को किसी भी न्यायालय द्वारा बाध्यता नहीं दी जा सकेगी, परन्तु फिर भी वे देश के शासन का मूलभूत आधार होंगे और उनका पालन करना राज्यों का नैतिक कर्त्तव्य होगा।”
(9) एकात्मक तथा संघात्मक तत्वों का सम्मिश्रण
भारत में यद्यपि संघात्मक शासन की व्यवस्था की गयी है तथापि भारतीय संविधान में अनेक ऐसे तत्व भी हैं जो एकात्मक शासन के प्रति; जैसे-एकल नागरिकता, एकीकृत न्यायपालिका, अखिल भारतीय सेवाएँ, राष्ट्रपति द्वारा राज्यपालों की नियुक्ति, राष्ट्रपति के संकटकालीन अधिकार, विशेष परिस्थितियों में राज्य सूत्रों के विषयों पर संघ द्वारा कानून बनाने का अधिकार आदि। इसलिए दुर्गादास बसु ने कहा है कि, “भारतीय संविधान न तो पूर्ण संघात्मक है और न एकात्मक अपितु यह दोनों का सम्मिश्रण है, यह नवीन प्रकार का संघ है।”
भारतीय संविधान की धारा (1) के अनुसार-
“इण्डिया अर्थात् भारत राज्यों का एक संघ होगा।”
इस प्रकार भारत के संविधान में केन्द्र तथा राज्यों के मध्य शक्तियों का वितरण करते हुए संघीय शासन की व्यवस्था भी की गयी है।
(10) वयस्क मताधिकार
श्रीनिवासन का कहना है कि “वयस्क मताधिकार की स्थापना तथा साम्प्रदायिक चुनाव पद्धति की सम्प्राप्ति भारतीय संविधान की महान् तथा क्रान्तिकारी विशेषताएँ हैं।” संविधान निर्माताओं ने प्रजातन्त्रवाद में जनता का विश्वास उत्पन्न करने के उद्देश्य से वयस्क मताधिकार के सिद्धान्त को अपनाया था। भारत में वर्तमान में प्रत्येक स्त्री-पुरुष को जो 18 वर्ष से अधिक आयु का है मत देने का अधिकार है। परन्तु जो अपराध, भ्रष्टाचार, मानसिक रोग के कारण मत देने के लिए अयोग्य प्रमाणित हो चुके हैं, वह मत देने के अधिकारी नहीं हैं।
(11) अल्पसंख्यक वर्गों के हितों की रक्षा
संविधान में देश की पिछड़ी हुई जातियों के लिए, जो शिक्षा के अभाव तथा अन्य असमर्थताओं के कारण देश के वर्तमान प्रजातन्त्रात्मक शासन में उचित भाग नहीं ले सकती हैं, विशेष व्यवस्था की गई है कि उन्हें अपनी भाषा, लिपि व संस्कृति को कायम रखने का, अपनी रुचि के अनुसार शिक्षा संस्थाएं स्थापित करने का व धर्म के अनुसरण करने का अधिकार प्राप्त है।
(12) अस्पृश्यता का अन्त
संविधान के 17वें अनुच्छेद के अनुसार, अस्पृश्यता का अन्त कर दिया गया है। संविधान के अनुसार-जाति, वंश आदि के आधार पर सब नागरिक समान हैं। अस्पृश्यता का अन्त कर हमारे संविधान ने नागरिकों को पूर्ण रूप से सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक और व्यक्तिगत स्वतन्त्रता प्रदान की है। इस प्रकार संविधान निर्माताओं ने महात्मा गाँधी के विचार को कार्य रूप में परिणत किया है।
(13) कठोरता व लचीलेपन का सम्मिश्रण
भारतीय संविधान न तो ब्रिटिश संविधान की भाँति लचीला है और न अमेरिकी संविधान की भाँति अत्यधिक कठोर। इस सम्बन्ध में भारतीय संविधान में मध्य मार्ग को अपनाया गया है।
(14) संसदात्मक शासन प्रणाली
भारत के संविधान की एक अन्य विशेषता है। संसदीय शासन प्रणाली संविधान सभा के समक्ष यह विचाराधीन प्रश्न था कि भारतीय लोकतन्त्र के लिए कौन-सी पद्धति उपयुक्त है— अध्यक्षात्मक अथवा संसदात्मक प्रणाली, क्योंकि भारतीय जनता ने ब्रिटिश काल में सन् 1919 तथा सन् 1935 के भारतीय शासन के अधिनियमों के अन्तर्गत संसदीय प्रणाली का अनुभव प्राप्त किया था, अतः यह निर्णय लिया गया कि भारतीय परिस्थितियों के अनुरूप ब्रिटिश मॉडल पर आधारित संसदीय शासन प्रणाली ही सर्वथा उपयुक्त है।
(15) स्वतन्त्र न्यायपालिका
भारतीय संविधान के अनुसार, न्यायपालिका को स्वतन्त्र रखा गया है। भारत का सर्वोच्च न्यायालय संविधान के संरक्षक के रूप में कार्य करता है। संविधान के उपबन्धों की अन्तिम व्याख्या सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा होती है। परन्तु अमेरिका की भाँति हमारे सर्वोच्च न्यायालय को केन्द्र तथा राज्यों की व्यवस्थापिकाओं द्वारा निर्मित प्रत्येक अधिनियम को अवैध घोषित करने का अधिकार नहीं है परन्तु फिर भी हमारा सर्वोच्च न्यायालय हमारे संविधान व नागरिकों के मौलिक अधिकारों का संरक्षक है। विभिन्न राज्यों के न्यायालय इसके अधीन हैं।
(16) पिछड़े वर्गों के हितों की रक्षा
संविधान में देश की पिछड़ी हुई जातियों के लिए जो शिक्षा के अभाव तथा अन्य असमर्थताओं के कारण देश के शासन में उचित भाग नहीं ले सकती हैं, विशेष व्यवस्था की गई है। उनके लिए संसद में कुछ स्थान सुरक्षित रखे गये हैं। उनकी शिक्षा आदि की ओर भी विशेष ध्यान दिया गया है। सरकारी नौकरियों में भी उनके लिए स्थान सुरक्षित रखे गये हैं।
(17) इकहरी नागरिकता
भारतीय संविधान के अन्तर्गत संघीय व्यवस्था को अवश्य अपनाया गया है तथापि अमेरिका की भाँति दोहरी नागरिकता की व्यवस्था नहीं की गई है। हमारे संविधान के अन्तर्गत प्रत्येक भारतीय नागरिक को एक ही नागरिकता प्राप्त है। इसका उद्देश्य भावात्मक एकता को सुदृढ़ करना है।
(18) लोक-कल्याणकारी राज्य की स्थापना
हमारे संविधान में यद्यपि स्पष्ट रूप से तो यह घोषणा नहीं की गयी है कि भारत एक लोक-कल्याणकारी राज्य होगा, परन्तु संविधान की प्रस्तावना में सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक न्याय का लक्ष्य यह बताता है कि हमारे संविधान निर्माताओं का लक्ष्य लोक-कल्याणकारी राज्य की स्थापना था। संविधान में नीति निर्देशक तत्वों को सम्मिलित करना भी उनके इसी उद्देश्य को प्रकट करता है।
(19) एक राष्ट्रभाषा की व्यवस्था
राष्ट्रीय एकता को सुदृढ़ करने के लिए हमारे संविधान में हिन्दी को देवनागरी लिपि में भारत की राष्ट्रभाषा घोषित किया गया है। इसके साथ ही संघीय सरकार के सभी कार्यालयों में संविधान लागू होने के 15 वर्ष बाद तक अंग्रेजी के प्रयोग की आज्ञा दे दी गयी। संविधान में यह भी कहा गया है कि संसद के द्वारा 15 वर्ष बाद है भी आज्ञा जारी कर अंग्रेजी के प्रयोग की अनुमति दी जा सकती है। सन् 1965 में ‘सहभाषा विधेयक’ पास कर हिन्दी के साथ अंग्रेजी को जारी रखने की अनुमति दी गयी है।
(20) विश्व शान्ति का समर्थक
‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ भारतीय जीवन और संस्कृति का आदर्श रहा है और हमारे संविधान निर्माता भी इस आदर्श के प्रति सचेष्ट थे। इसी कारण संविधान के नीति निर्देशक तत्वों में कहा गया है कि राज्य अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति तथा सुरक्षा की उन्नति का और राष्ट्रों के बीच न्याय तथा सम्मानपूर्ण सम्बन्धों को बनाये रखने का प्रबन्ध करेगा। व्यवहार के अन्तर्गत भी भारत राज्य द्वारा विश्व शान्ति बनाये रखने की प्रत्येक सम्भव चेष्टा की गयी है और युद्ध केवल उसी समय किये गये हैं, जबकि आत्म-रक्षा में ऐसा करना आवश्यक हो गया हो।
निष्कर्ष- संविधान की यद्यपि अनेक तर्कों के आधार पर कटु आलोचना की जाती है। इसे भानुमती का पिटारा, वकीलों का स्वर्ग तथा कैंची और गोंद का खिलवाड़ आदि की संज्ञा प्रदान की जाती है किन्तु भारतीय संविधान के अनेक प्रावधान इसके स्वरूप को विशिष्टता प्रदान करने वाले हैं।
भारतीय संविधान के सम्बन्ध में प्रसिद्ध विद्वान् डॉ. सुभाष कश्यप का विचार है कि “हमारा संविधान एक बड़ा उत्कृष्ट प्रलेख है। वह बहुत लचीला है, उसे भिन्न परिस्थितियों के अनुरूप ढाला जा सकता है। यह संविधान संघात्मक और एकात्मक, राष्ट्रपतीय और संसदीय सभी कुछ है क्योंकि इसमें सभी प्रणालियों के सर्वश्रेष्ठ गुणों का समावेश और उनके द्वन्द्वों का समन्वय किया गया है।” निःसन्देह भारतीय संविधान विश्व का एक प्रमुख संविधान है तथा अन्य संविधानों पर इसका प्रभाव पड़ा है। राष्ट्र की प्रगति तथा विकास में इसका समुचित योगदान रहा है।
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