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मानव विकास को प्रभावित करने वाले वातावरण

मानव विकास को प्रभावित करने वाले वातावरण
मानव विकास को प्रभावित करने वाले वातावरण

मानव विकास को प्रभावित करने में वंशानुक्रम तथा पर्यावरण की पारस्परिक महत्ता का वर्णन कीजिए।

वातावरण ( Environment) – मानव का पहला वातावरण परिवार होता है। बालक के विकास में वातावरण का महत्वपूर्ण स्थान है। वातावरण वह है जो हमें घेरे रहता है। बालक के वृद्धि एवं विकास को प्रभावित करने वाले वातावरण को हम निम्न प्रकार से वर्गीकृत कर सकते हैं-

1. पारिवारिक वातावरण (Family Environment)-

मानव के विकास पर परिवार के वातवरण का अत्यधिक प्रभाव पड़ता है। बालक के पारिवारिक वातावरण में उसके माता-पिता, भाई-बहन, बालक का जन्म क्रम, परिवार का सामाजिक-आर्थिक स्तर, शिक्षा का स्तर, माता-पिता के आपसी सम्बन्ध आदि अनेक तत्व शामिल हैं। ये सभी तत्व अपने-अपने ढंग से बालक के विकास को प्रभावित करते हैं।

मानव पर उसके माता-पिता के स्वभाव, आपसी सम्बन्धों का बहुत प्रभाव पड़ता है। यदि परिवार का आन्तरिक वातावरण अच्छा होता है। माता-पिता के आपसी सम्बन्ध मधुर होते हैं। बालक का पालन-पोषण उचित ढंग से किया जाता है, सीखने के उचित अवसर प्रदान किए जाते हैं, सभी बालकों के साथ समान व्यवहार किया जाता है। बालक-बालिका में अन्तर नहीं समझा जाता है वहाँ बालकों का विकास सभी क्षेत्रों मे सामान्य ढंग से होता है। माता-पिता उनकी समस्त आवश्यकताओं को पूरा करते हैं। इसके विपरीत जहाँ बच्चों को उपेक्षा मिलती है वहाँ उसका व्यक्तित्व दब जाता है।

जिस परिवार में माँ-बाप के अतिरिक्त भाई-बहनों में भी आपसी प्यार रहता है उस परिवार के बच्चों को परिवार के सदस्यों से नैतिक, सामाजिक गुण सीखने को मिलते हैं जो उसके व्यक्तित्व विकास में सहायक होते हैं।

जहाँ केवल एक बच्चे तक परिवार सीमित होता है वहाँ अधिक लाड़-प्यार के कारण जिद्दी हो जाता है। वह हर जगह अपना प्रभाव दिखाना चाहता है जो आगे चलकर उसके व्यक्तित्व में बाधक होता है। इसी प्रकार बहुत बड़ा परिवार होने पर बालक की मूल आवश्यकतायें पूर्ण नहीं हो पाती हैं तो यह अभाव व्यक्तित्व विकास में बाधक होता है। बड़े परिवार में सबको सन्तुलित भोजन न मिलने के कारण भी शारीरिक विकास प्रभावित होता है।

2. समाज तथा विद्यालय का वातावरण (Social and School Environment)-

परिवार के पश्चात् बालक अपने जीवन का महत्वपूर्ण समय विद्यालय पास-पड़ोस तथा समाज में व्यतीत करता है। बालक अपने पास पड़ोस से कई बातें सीखता है जो उसके विकास को प्रभावित करती हैं। यदि पास-पड़ोस अच्छा है, खेल के साथी और मित्र अच्छे हैं तो बालक में अच्छी सामाजिकता का विकास होता है। जैसे-पड़ोसी का परिवार सुसंस्कृत है तो बालक भी उस संस्कारों को ग्रहण कर लेता है। पड़ोस का प्रभाव घर के प्रभाव के बराबर ही बालक के व्यक्तित्व पर पड़ता हैं। इसके विपरीत पास-पड़ोस खराब होने से बुरी संगत में पड़कर बाल अपराधी बन जाते हैं।

विद्यालय का वातावरण बालक पर महत्वपूर्ण प्रभाव डालता है। प्रायः पाँच वर्ष की आयु से सभी बालक स्कूल जाते हैं। विद्यालय के द्वारा बालक को सीखने के अवसर प्राप्त होते हैं। जैसे- विद्यालय का भौतिक वातावरण, शिक्षकों का बालकों के प्रति व्यवहार। शिक्षकों का व्यक्तित्व, खेलकूद, पाठ्यक्रम, अनुशासन तथा नैतिक मूल्य आदि बालक की वृद्धि एवं विकास को अत्यधिक प्रभावित करते हैं।

यदि स्कूल का वातावरण शिक्षक, दोस्त, अच्छे मिलते हैं तो व्यक्तित्व का विकास सही दिशा में होता है। पुस्तकें भी उसके विकास में सहायक होती हैं। बालक विद्यालय में अलग-अलग वातावरण से आये बच्चों से मिलता है। उनकी आदतों-विचारों से प्रभावित उनकी कुछ आदतों को अपनाता है जो उसके व्यक्तित्व विकास में सहायक होते हैं। वे बच्चे जो अपने आप को शिक्षा की दृष्टि से अच्छा समझते हैं उनकी शिक्षा सम्बन्धी उपलब्धियाँ दूसरे बच्चों की अपेक्षा अच्छी होती हैं।

यदि पास-पड़ोस, समाज व विद्यालय का वातावरण उपयुक्त है तो बालक पर इसका अनुकूल प्रभाव पड़ेगा, किन्तु यदि अनुपयुक्त है तो इसका विपरीत ही प्रभाव डालेगा।

3. सांस्कृतिक वातावरण (Cultural Environment)-

प्रत्येक देश और समाज की अपनी एक संस्कृति होती है। संस्कृति समाज का दर्पण है। सामाजिक रीतियों, प्रथायें, संस्थायें, विश्वास बच्चों को प्रभावित करते हैं जिसके अनुरूप प्रत्येक परिवार अपने बालकों का पालन-पोषण करता है। बच्चा जिस संस्कृति में पलता है उसका विकास भी उसी संस्कृति के अनुरूप ही होता है। उदाहरण के लिए भारतीय और पाश्चात्य संस्कृति में काफी अन्तर पाया जाता है। भारतीय संस्कृति में पला बच्चा अपने वृद्ध माता-पिता का पोषण करता है, अपने कर्त्तव्यों को समझता है तथा किशोरावस्था तक भी अपने स्वतंत्र निर्णय नहीं ले सकता विपरीत पाश्चात्य संस्कृति में पला बच्चा ऐसा कुछ भी नहीं करता क्योंकि वहाँ की संस्कृति में यह । इसके नहीं सिखाया जाता है। बालक प्रारम्भ से ही मुक्त चिन्तन का आदी हो जाता है। संस्कृति का बालक के शारीरिक तथा मानसिक विकास पर गहरा प्रभाव पड़ता है।

मीड़, लिंटम तथा रूथ बेनेडिक्ट –

आदि मानवशास्त्रियों ने बालक के विकास पर संस्कृति का अध्ययन किया और यह निष्कर्ष निकाला की भिन्न-भिन्न संस्कृतियों में पले हुए बच्चों को शारीरिक व मानसिक विकास भी भिन्न-भिन्न होता है। कई समाजों में उनकी संस्कृति के अनुसार कुछ ऐसी रूढ़ियाँ, प्रथायें तथा रीति-रिवाज पाये जाते हैं, जो बालकों की मूल प्रवृत्तियों, इच्छाओं तथा रूढ़ियों का दमन करते हैं, ऐसे समाजों में बालकों को व्यक्तित्व विकास उचित दिशा में नहीं हो पाता है। कुछ समाजों में भौतिकवादी संस्कृति तो कही आध्यात्मिक संस्कृति को अपनाया गया है। समाज द्वारा अपनाई गई संस्कृति का गहरा प्रभाव समाज में पड़ने वाले बालकों पर पड़ता है।

वंशानुक्रम (Heredity) – जेम्स ड्रेवर के अनुसार- “Heredity is the transmission of physical and mental characteristics from parents to off springs.” अर्थात् “वंशानुक्रम का अर्थ माता-पिता से बच्चों तक शारीरिक तथा मानसिक लक्षणों का संक्रमण।”

पीटरसन के अनुसार- “Heredity may be defined as what one gets from his ancestral stock through his parents.” अर्थात् ” व्यक्ति को उसके माता-पिता द्वारा उसके पूर्वजों से जो संग्रहित प्रभाव प्राप्त होता है वह उसका वंशानुक्रम है।”

जीवशास्त्री यह कहते हैं कि “निषेचित अण्डाणु में सम्भवतः उपस्थित विशेष गुणों का योग ही वंशानुक्रम है।”

यदि हम सामान्य भाषा में वंशानुक्रम को समझना चाहें तो ये कह सकते हैं कि माता-पिता के जनन कोशिकाओं के मेल से बच्चे को प्राप्त शारीरिक, मानसिक विशेषतायें, योग्यतायें ही वंशानुक्रम है। माता-पिता की जनन कोशिकायें (अण्डाणु तथा शुक्राणु) ही माँ-बाप की विशेषतायें, बुराइयों बच्चे तक पहुँचाती हैं।

बालक की वृद्धि तथा विकास को वातावरण के साथ-साथ वंशानुक्रम भी प्रभावित करता है। वंशानुक्रम का अर्थ है माता-पिता से सन्तानों को प्राप्त होने वाले गुण अनेक शारीरिक गुण, जैसे लम्बाई, मोटाई, रूप-रंग, स्वास्थ्य रोग, विकृतियाँ इत्यादि बालकों को बहुत हद तक अपने माता-पिता से प्राप्त होते हैं। इसी प्रकार ‘बुद्धि’ वंशानुक्रम से प्राप्त होने वाला गुण है। ऐसा माना जाता है कि बुद्धिमान माता-पिता की सन्तान भी बुद्धिमान होती है। बुद्धि के निर्धारण में वंशानुक्रम का सर्वाधिक योग होता है। कभी-कभी बालक में भाषा दोष भी वंशानुक्रम से आ जाता है।

वंशानुक्रम के वाहक- स्त्री की अण्डाणु पुरुष शुक्राणु द्वारा निषेचित होता है और नया कोष जिसे डिम्ब कहते हैं, के केन्द्रक में क्रोमोसोम होते हैं और इन 23 जोड़े क्रोमोसोम में असंख्य गुणवाहक (जीन्स) पाये जाते हैं। यह गुणात्मक बालक को भौतिक तथा मानसिक गुण प्रदान करते हैं। पुरुष के शुक्राणु में 23 जोड़े अर्थात् 46 क्रोमोसोम्स होते हैं। 23 माँ से प्राप्त 23 पिता से प्राप्त ।

गर्भाधान क्रिया के समय ही बालक का लिंग निर्धारण हो जाता है। स्त्री के अण्डाणु में 23 जोड़े क्रोमोसोम्स होते हैं। पुरुष के शुक्राणु में 22 जोड़े क्रोमासोम्स एक से होते हैं। 23वाँ जोड़ा बेमेल होता है जिन्हें x y का नाम दिया जाता है। इन्हें सेक्स क्रोमोसोम्स कहते हैं क्योंकि लिंग निर्धारण यही करते हैं। X क्रोमोसोम्स का आकार बड़ा तथा y क्रोमोसोम्स का आकार छोटा होता है।

अब यदि xx क्रोमोसोम्स मिलेंगे तो लिंग लड़की और x y मिलेंगे तो लड़का होगा। माता-पिता के क्रोमोसोम्स के जीन्स में से जिनके जीन्स अधिक शक्तिशाली होते हैं उसी के गुण बच्चे को मिलते हैं। गर्भाधारण के समय ही बच्चे का लिंग, बच्चा एक है या जुड़वाँ तथा वंशानुक्रम विशेषतायें तय हो जाती हैं।

स्त्री के अण्डाणु को पुरुष को एक शुक्राणु निषेचित करता है किन्तु कोष विभाजन की क्रिया में भ्रूण दो बराबर भागों में बंट जाता है। यह बच्चे एक ही शुक्राणु अण्डाणु से होते हैं। अतः इन दोनों बच्चों को लिंग वंशानुक्रम विशेषतायें एक सी होंगी। यह गर्भनाल से भोजन प्राप्त करते हैं। एक ही सुरक्षितृ थैली में रहते हैं। ये जुड़वाँ समरूपी जुड़वा कहलाते हैं। कभी-कभी स्त्री के दो अण्डाणु परिपक्व हो जाते हैं। दोनों को निषेचन पुरुष के अलग-अलग शुक्राणु द्वारा होता है। अतः इस दानों बच्चों का लिंग एक हो भी सकता है और दोनों अलग-अलग लिंग के भी हो सकते हैं। इनकी वंशानुक्रम विशेषतायें अलग-अलग होती हैं। यह समरूपी जुड़वाँ कहलाते हैं। यदि एक । साथ दो या दो से अधिक अण्डाणु उपलब्ध हो जाते हैं और उन्हें अलग- अलग शुक्राणु निषेचित करता है तो विषम जोड़े (Fraternal Twins) उत्पन्न होते हैं।

जन्मक्रम (Birth Order)- बालक के विकास की उस बालक का जन्मक्रम अत्यधिक प्रभावित करता है। जैसे बालक की कुछ योग्यतायें विशेषकर बुद्धि तथा निष्पत्ति सम्बन्धी योग्यता पर बालक के जन्मक्रम का प्रभाव पड़ता है। अर्थात् बालक का जन्मक्रम उसके व्यक्तित्व का निर्धारण करता है।

जन्म का प्रभाव (Effect of Birth)- बालक के जन्म लेने की प्रक्रिया का प्रभाव उसकी वृद्धि तथा विकास पर पड़ता है। यदि बालक का जन्म सामान्य रूप से नहीं हुआ है अर्थात् जन्म के समय बेहोश करने वाली तथा दर्द कम करने वाली दवाइयों का प्रयोग किया जाता है तो इसका नवजात शिशु पर विपरीत प्रभाव पड़ता है तथा वे शिशु की संवेदना एवं गत्यात्मक क्रियाओं को चार सप्ताह तक प्रभावित करती है। एक वयस्क माता के लिए दवा की खुराक पर्याप्त हो सकती है, किन्तु एक सात पौंड के शिशु पर यह गहरा प्रभाव डाल सकती है।

अपरिपक्व जन्म (Premature Birth)- बालक के विकास को प्रभावित करने वाले कारकों में शिशु का जन्म के समय पूर्ण परिपक्व है अथवा अपरिपक्व इस बात का बहुत प्रभाव पड़ता है। यदि शिशु अपरिपक्व है तो उसका विकास बुरी तरह प्रभावित होता है। अर्थात् शिशु विकास के हर क्षेत्र में प्रारम्भ में पिछड़ जाता है। बालक की प्रवृत्ति (Temperament of Child) – बालक की वृद्धि तथा विकास के लिए बालक की प्रकृति एक महत्वपूर्ण कारक है।

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Anjali Yadav

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