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विकास का अधिकार एवं पर्यावरण | Right to Development and Environment in Hindi

विकास का अधिकार एवं पर्यावरण | Right to Development and Environment in Hindi
विकास का अधिकार एवं पर्यावरण | Right to Development and Environment in Hindi

विकास का अधिकार एवं पर्यावरण | Right to Development and Environment 

विकास का अधिकार एवं पर्यावरण- आर्थिक विकास के पर्यावरणीय परिणाम तथा हवा, पानी एवं भूमि, जिन पर हमारा जीवन निर्भर है, का प्रदूषण महंगी कीमत है जो मनुष्य व को आर्थिक विकास के लिये देनी पड़ी। जहाँ एक ओर विकसित देशों में पर्यावरणीय समस्यायें औद्योगीकरण एवं तकनीकी विकास के परिणामस्वरूप हैं, गरीब देशों में यह समस्यायें अल्प विकास के कारण हैं। चूंकि विकसित देशों के सम्मुख पर्यावरणीय संकट है, वह यह तर्क करते हैं कि विकासशील देशों को भी उसी संकट का सामना करना पड़ेगा, यदि वह विकास करते हैं। दूसरी ओर गरीब देश यह महसूस करते हैं कि प्रदूषण का सबसे बड़ा स्रोत गरीबी है। स्टाकहोम में मानवीय पर्यावरण के संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन के समक्ष बोलते हुए भूतपूर्व एवं स्वर्गीय प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने कहा था कि समृद्धिशाली देश चाहे विकास को पर्यावरण के विनाश का कारण समझें, हमारे लिये यह रहन-सहन के पर्यावरण को सुधार करने, खाद्य सामग्री उपलब्ध कराने, पानी, स्वच्छता, आश्रय का प्रबन्ध करने तथा रेगिस्तानों को हरा करने एवं पहाड़ों को रहने योग्य करने का प्राथमिक साधन हैं।

विकास एवं पर्यावरण का पारस्परिक सम्बन्ध है। विकासशील देश भी विकास की प्रक्रिया के पर्यावरणीय परिणामों की अवहेलना नहीं कर सकते हैं। अतः आवश्यक एवं गम्भीर समस्या विकास एवं पर्यावरण में समन्वय स्थापित करना है। विकासशील देशों का भविष्य बहुत कुछ विकास के अधिकार के बेहतर अन्तर्राष्ट्रीय समझ पर निर्भर करता है क्योंकि यह अधिकार कई अन्य मानवीय अधिकारों पर निर्भर करता है। संयुक्त राष्ट्र चार्टर के अनुच्छेद 55 में राज्यों के मध्य शान्तिपूर्ण एवं मैत्री सम्बन्धों में दो आधार आर्थिक विकास एवं मानवीय अधिकारों के लिये समान बनाये गये हैं। अतः मानवीय अधिकारों एवं आर्थिक विकास के अधिकारों को दो विभिन्न कोटियों का नहीं समझा जाना चाहिये क्योंकि वह एक दूसरे के पूरक हैं। संयुक्त राष्ट्र चार्टर के अन्तर्गत मानवीय अधिकारों के संरक्षण एवं प्रोन्नति हेतु राज्यों द्वारा लिये गये संकल्प का प्रसार आर्थिक विकास के लिए भी किया जाना चाहिये।

यहाँ पर यह भी नोट करना आवश्यक है कि विकास के अधिकार के सम्बन्ध में बड़ा मतभेद है। इसकी उत्पत्ति, परिधि निरूपण (formulation), अस्तित्व एवं प्रकृति के सम्बन्ध में मतभेद है। यद्यपि यह मतभेद मुख्यतः अन्तर्राष्ट्रीय विधिशास्त्रयों के मध्य है, इसकी विवक्षा (implication) का गहरा प्रभाव संयुक्त राष्ट्र प्रणाली एवं मनुष्य जाति के ऊपर पड़ेगा।

विकास तथा पर्यावरण के संरक्षण में परस्पर नजदीकी सम्बन्ध है। इस सम्बन्ध को 1972 के स्टाकहोम सम्मेलन के मानवीय पर्यावरण की घोषणा में अभिस्वीकृत किया गया है। 1979 में संयुक्त राष्ट्र महासभा ने विकास के अधिकार का निरूपण करने हेतु अपने एक प्रस्ताव में कहा था कि विकास का अधिकार एक मानवीय अधिकार हैं तथा अवसर की समानता जितना परमाधिकार राष्ट्रों के भीतर व्यक्तियों का है उतनी ही राष्ट्रों का है।

1980 में अपने 11 वें सत्र (11th Session) में संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा अंगीकृत तृतीय संयुक्त राष्ट्र विकास दशक (1981-1990) के लिये अन्तर्राष्ट्रीय विकास रचना कौशल (International Development Strategy) में महासभा ने कहा था कि विकासशील देशों में तीव्र गति से विकास से पर्यावरण को सुधारने की उनकी क्षमता में वृद्धि होंगी। गरीबी तथा अल्प विकास के पर्यावरणीय लक्ष्यार्थ तथा विकार, पर्यावरण जनसंख्या एवं द्रव्यों का पारस्परिक सम्बन्ध ध्यान में रखा जाना चाहिये। यह सुनिश्चित करना आवश्यक है कि आर्थिक विकास प्रक्रिया ऐसी हो जो दीर्घकाल तक पर्यावरणीय पोषणीय (environmentally sustainable) हो। जंगलों की कटाई में रोक, भूमि का कटाव, भूमि परिभ्रष्ट करने तथा रेगिस्तान रोकने के प्रयास किये जाने चाहिये।

‘विकास’ की परिभाषा तथा ‘विकास एवं पर्यावरण के सम्बन्ध’ में मतभेद है। विकास के अधिकार के सम्बन्ध में सहमति का अभाव है। स्टार्क ने उचित मत व्यक्त किया है कि विकास की अन्तर्राष्ट्रीय विधि अभी इस अवस्था में नहीं पहुँची है कि यह कहा जा सके कि बाध्यकारी नियमों का एक सारवान समूह है जिससे विकासशील देशों को विनिर्दिष्ट अधिकार प्राप्त हो गये हों तथा विकसित देशों पर इस सम्बन्ध में दायित्व है। परन्तु इस बात से इन्कार किया जा सकता है कि ‘विकास के अधिकार’ का निरन्तर विकास हो रहा है।

यहाँ पर यह भी उल्लेखनीय है कि समस्या के संतोषजनक समाधान के लिये यह आवश्यक है कि सभी देश साम्यवादी एवं पूँजीवादी, समृद्ध तथा गरीब, सन्तुष्ट तथा असन्तुष्ट सहयोग करें अन्यथा पूर्ण मनुष्य जाति का अस्तित्व ही खतरे में पड़ जायगा। अन्तर्राष्ट्रीय विकास पर कमीशन (पियरसन कमीशन), जिसे विश्व बैंक दल ने स्थापित किया था, की 1969 की रिपोर्ट में यह विचार व्यक्त किया गया कि कौन अब यह कह सकता है कि कुछ दशकों में उसका देश कहाँ होगा बिना यह पूछे कि विश्व कहाँ होगा। यदि हम चाहते हैं कि विश्व सुरक्षित तथा समृद्धिशाली हो तो हमें लोगों की सामान्य समस्याओं पर ध्यान देना होगा। पियरसन कमीशन ने अपनी रिपोर्ट में दस उद्देश्य प्रस्तुत किए जो विकास के मनाक कहे जा सकते हैं। ये दस उद्देश्य निम्नलिखित हैं-

  1. स्वतन्त्रता तथा साम्यापूर्ण व्यापार का एक ढाँचा उत्पन्न किया जाय जिससे विकसित देश तथा विकासशील देश ऐसे प्राथमिक माल पर आयात शुल्क एवं अत्यधिक कर समाप्त करें जिसका उत्पाद वे स्वयं नहीं करते हैं।
  2. निजी विदेशी निवेश (investment) की प्रोन्नति तथा निवेशकों के विशेष जोखिम की समाप्ति।
  3. विकासशील देशों की सहायता इस उद्देश्य से की जानी चाहिये कि वे स्वतः पोषणीय विकास के मार्ग पर पहुँच सकें।
  4. सहायता में वृद्धि करके उसे विकसित देश के राष्ट्रीय उत्पाद के एक प्रतिशत तक पहुँचाया जाय ।
  5. ऋण अनुतोष सहायता का वैध रूप होना चाहिये।
  6. प्रक्रिया सम्बन्धी बाधाओं को पहचान कर दूर किया जाना चाहिये।
  7. तकीनीकी सहायता के संस्थागत आधार को मजबूत किया जाना चाहिये।
  8. जनसंख्या की वृद्धि पर नियन्त्रण किया जाना चाहिये।
  9. शिक्षा एवं शोध के ऊपर अधिक खर्च किये जाने चाहिये।
  10. विकास सहायता की बहुराष्ट्रीयकृत वृद्धि किया जाना चाहिये।

1970 में महासभा ने तृतीय विकास दशक (1971-1980) के लिए अन्तर्राष्ट्रीय विकास रचना कौशल की नीति सम्बन्धित दस्तावेज स्वीकार किया तथा इसमें उपयुक्त दस उद्देश्यों को भी रखा। इसमें कहा भी गया कि 1972 तक आर्थिक रूप से विकसित देश अपने राष्ट्रीय उत्पाद के एक प्रतिशत तक सहायता विकासशील देशों को दें। अगस्त-सितम्बर, 1980 में इसी प्रकार तृतीय विकास दशक घोषित किया गया। विकास की वर्तमान विधि संस्थागत ढाँचे पर आधारित है। संयुक्त राष्ट्र व्यापार एवं विकास पर सम्मेलन (UNCTAD), संयुक्त राष्ट्र विकल्प प्रोग्राम (UNDP), विश्व बैंक, संयुक्त राष्ट्र औद्योगिक विकास आर्थिक समुदाय आदि संस्थाएं इस समय महत्वपूर्ण योगदान दे रही हैं। मार्च 1988 को 1990-1995 के लिये पर्यावरणीय रचना कौशल को संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण प्रोग्राम (UNEP) ने स्वीकार किया। इसमें यह तय किया गया कि भविष्य में संयुक्त राष्ट्र राष्ट्रों को ऐसे विकास में सहायता देगा जो पोषणीय या सहनीय हो अर्थात् विकास ऐसा हो जो पर्यावरण पर बुरा प्रभाव न डाले। यह तय किया गया कि वर्ष 2000 तक इसी बात पर बल दिया जायेगा। गैर-सरकारी पर्यावरण एवं विकास पर विश्व कमीशन ने इसी बात पर बल दिया। अतः संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण दर्शन का आधार पोषणीय विकास है तथा यह विश्व पर्यावरण कार्यवाही का भाग बन गया है।

22 दिसम्बर 1990 को संयुक्त राष्ट्र महासभा ने चौथा विकास दशक (1991 2000) घोषित किया तथा विकासशील (विशेषकर अल्प विकसित देशों के तीव्रगति से विकास के लिय व्यापक राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय उपाय अपनाने को कहा। महासभा ने यह स्वीकार किया कि तृतीय विकास दशक अधिकतर उद्देश्यों की प्राप्ति में असफल रहा। महासभा ने विकसित देशों से कहा कि निरस्त्रीकरण से मुक्त धन को विकासशील देशों कमी औपचारिक विकास की दर 8 प्रतिशत से बढ़कर 10 प्रतिशत होनी चाहिए।

विकास के सच्चे अर्थों में लाभ तभी उठाया जा सकेगा जब उससे पर्यावरण पर विपरीत प्रभाव नहीं पड़े। दुर्भाग्य की बात है कि चौथे विकास दशक के प्रारम्भिक वर्ष (1991) में ही खाड़ी युद्ध ने पर्यावरण की सम्सयाओं को और भी गम्भीर बना दिया। खाड़ी युद्ध (1991) में अमेरिका तथा उसके सहयोगी राष्ट्रों द्वारा प्रयोग किये गये विस्फोटक एवं हानिकारक पदार्थ, समुद्र में पेट्रोल से अप्रत्याशित प्रदूषण, कुवैत में सैकड़ों पेट्रोल के कुएँ एक साथ जलने आदि ने पर्यावरणीय समस्याओं को और भी गम्भीर बनया दिया तथा यह स्पष्ट हो गया कि यदि अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय युद्ध स्तर पर तथा आपस के भेदभाव भूलकर पर्यावरण को बचाने एवं सुधारने हेतु अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग नहीं करते तो पूर्ण मनुष्य जाति को इसके बड़े गम्भीर एवं खतरनाक परिणाम भुगतने होंगे। निःसन्देह विश्व विकास के कगार पर खड़ा है। इस गम्भीर समस्या से निपटने के लिए विकास के अधिकार में मनुष्य जाति को बचाने हेतु उसे अच्छी दशा में बनाये रखने का अधिकार भी सम्मिलित किया जाना चाहिए।

सहायता में लगाये। औद्योगिक विकास पर बबल देते हुए महासभा ने कहा कि औद्योगीकरण के विकास तथा पर्यावरण का नजदीकी सम्बन्ध अब सामान्यतः स्वीकार किया जाता है। मानवीय पर्यावरण पर 1972 में स्टाकहोम सम्मेलन में इस बात पर ध्यान नहीं दिया गया था। परन्तु तब से अब तक बहुत अन्तर आ गया है। यह इसी बात से स्पष्ट है कि 3 जून 1992 से रिओडि जेनिरो (ब्राजील) से आरम्भ होने वाले पृथ्वी शिखर सम्मेलन का औपचारिक नाम पर्यावरण एवं विकास पर संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन है।

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Anjali Yadav

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