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शैशवावस्था में संवेगात्मक विकास का अर्थ एंव विशेषताएँ

शैशवावस्था में संवेगात्मक विकास का अर्थ एंव विशेषताएँ
शैशवावस्था में संवेगात्मक विकास का अर्थ एंव विशेषताएँ

शैशवावस्था में संवेगात्मक विकास का क्या अभिप्राय है?

शैशवावस्था में संवेगात्मक का अर्थ- संवेग शरीर को हिलाने अथवा उत्तेजित करने वाली प्रक्रिया है। इससे स्पष्ट होता है कि संवेग एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें मानसिक एवं शारीरिक दोनों प्रकार की प्रक्रियाएँ सम्मिलित हैं। इस आधार को सामने रखते हुए मनोवैज्ञानिकों ने विभिन्न प्रकार की परिभाषाएँ प्रस्तुत की हैं। कुछ मनोवैज्ञानिकों का कथन है कि संवेग एक चेतन अनुभव है जिसमें विभिन्न प्रकार की शारीरिक क्रियाएँ सम्मिलित रहती हैं। कुछ मनोवैज्ञानिकों का विचार है कि शारीरिक क्रियाओं को चेतन अनुभूति को संवेग कहते हैं। वुडवर्थ ने लिखा है- “संवेग प्राणी की उत्तेजित अथवा तीव्र अवस्था है।” (“Emotion is a moved or started up state of organism.”) संवेग के समय प्राणी की यह उत्तेजित या तीव्र अवस्था उसको कार्य करने के लिए, प्ररेति करती है। कार्यशीलता के कारण विभिन्न प्रकार के शारीरिक परिवर्तन होते हैं। संवेग की स्थिति में व्यक्ति में बेचैनी आ जाती है। वह कुछ भी असामान्य व्यवहार प्रकट कर सकता है, हृदय की धड़कन बढ़ सकती है, आँखों से आँसू बह सकते हैं, चेहरे पर मलिनता छा सकती है, अचेतन में व्याप्त अनेक सुप्त व्यवहार जाग्रत हो जाते है। पी. टी. यंग ने संवेगों की परिभाषा इस प्रकार दी है “यह सम्पूर्ण व्यक्ति में तीव्र विघ्न उत्पन्न करने वाली दृष्टि का उद्भव मनोवैज्ञानिक है तथा जिसमें व्यवहार तथा चेतना, अनुभव और अन्तरावयव की क्रियाएँ शामिल रहती हैं।”

किसी भी व्यक्ति का व्यवहार किसी परिस्थिति विशेष में स्नेह, ममता, सुख-दुःख, भय, क्रोध, ईर्ष्या आदि आन्तरिक वृत्तियों द्वारा प्रभावित होता है। इन्हीं आन्तरिक वृत्तियों को संवेग का नाम दिया जाता है। श्री आर्थर जरसील्ड ने संवेग का इस प्रकार परिभाषित किया है-“संवेग शब्द किसी भी प्रकार से आवेश में आने, भड़क उठने अथवा उत्तेजित होने की दशा को सूचित करता है।”

जेम्स ड्रेवर के अनुसार, “संवेग शरीर की जटिल अवस्था है जिसमें श्वास लेने, नाड़ी ग्रन्थियों, मानसिक दशा, उत्तेजना, अवरोध आदि का अनुभूति पर प्रभाव पड़ता है और माँसपेशियाँ निर्धारित व्यवहार करने लगती हैं।”

पी. टी. यंग के अनुसार, “संवेग सम्पूर्ण जीव का वह मूलत: मनोवैज्ञानिक तीव्र उद्वेग है जिसमें कि चेतन अनुभूति, व्यवहार एवं जाठरिक क्रियाएँ सन्निहित रहती हैं। “

क्रो एवं क्रो के अनुसार, “संवेग को प्राणी की उद्वेलित अवस्था के रूप में परिभाषित किया जा सकता है। संवेगात्मक अवस्था में अनुभूति के लहजे के साथ-साथ शारीरिक परिवर्तन भी होते हैं।”

बोरिंग, लैंगफील्ड एवं बील्ड के अनुसार, “संवेग प्रभावशाली अनुक्रिया के समान होता है। यदि शरीर की सामान्य एवं शारीरिक प्रतिक्रियाओं के रूप में व्यक्त करता है।”

संवेग की उत्पत्ति के लिए मनौवैज्ञानिक परिस्थिति का उपस्थिति होना आवश्यक है। इसका तात्पर्य ये है कि ऐसी उत्तेजना उपस्थिति हो जिसके प्रति व्यक्ति प्रक्रिया करने लगता है जैसे मार्ग में जाते हुए व्यक्ति पर कोई जानवर आक्रमण करता है तो वह व्यक्ति किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाता है एवं उसे भय का अनुभव होने लगता है। उसमें आन्तरिक तथा बाह्य शारीरिक परिवर्तन होते हैं। उसके हृदय की गति तीव्र हो जाती है उसका सम्पूर्ण शरीर काँपने लगता है। ऐसी स्थिति में वह संवेगात्मक व्यवहार करने लगता है अर्थात् कहीं छिप जाता है। इस प्रकार ये कहा जा सकता है कि, “संवेग का तात्पर्य उस मनः शारीरिक प्रक्रिया से है जिसमें व्यक्ति किसी मनोवैज्ञानिक या संवेगात्मक परिस्थिति का प्रत्यक्षीकरण कर उत्तेजित हो उठता है और उस उत्तेजित अवस्था का चेतन अनुभव करते ही उसमें आन्तरिक और बाह्य शारीरिक परिवर्तन होने लगते हैं और वह संवेगात्मक व्यवहार करने लगता है।” संवेग का विश्लेषण करने पर उसमें निम्नलिखित तत्व क्रमशः प्राप्त होते हैं-

  1. संवेगात्मक परिस्थिति का उपस्थित होना।
  2. व्यक्ति द्वारा उसका प्रत्यक्षीकरण करना ।
  3. व्यक्ति का उत्तेजित होना ।
  4. उत्तेजित अवस्था का चेतन अनुभव करना।
  5. व्यक्ति में आन्तरिक और बाह्य शारीरिक परिवर्तन होना।
  6. व्यक्ति का संवेगात्मक व्यवहार होने लगना ।

संवेग की विशेषताएँ

 संवेग मानव व्यवहार का असामान्य अंग है जब भी संवेगात्मक व्यवहार प्रकट होता है कुछ न कुछ विशेषताएँ प्रकट होती हैं। संवेग की विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-

  1. संवेग पूर्णत: वैयक्तिक होता है अर्थात् एक का संवेग दूसरे के संवेग से भिन्न होता है।
  2. संवेग व्यापक होता है अर्थात् ये प्रत्येक प्राणी में पाये जाते हैं।
  3. संवेग अचानक उत्पन्न हो जाते हैं जिनका आधार मनोवैज्ञानिक होता है ।
  4. संवेग बाह्य अथवा आन्तरिक उद्दीपक के परिणामस्वरूप होता है।
  5. संवेग का मूल प्रवृत्तियों से सम्बन्ध होता है।
  6. संवेगों का स्थानान्तरण होता है। क्रोधित व्यक्ति समझाने वाले पर भी क्रोध कर सकता है।
  7. संवेगात्मक सम्बन्ध का होना आवश्यक है। यह दो व्यक्तियों, या वस्तुओं अथवा वस्तु के प्रति होता है।
  8. संवेग शरीर में बाधाएँ उत्पन्न करते हैं। संवेग की उपस्थिति से शारीरिक क्रियाओं में व्यावहारिक परिवर्तन होते हैं।
  9. संवेग में सुख अथवा दुःख की अभिव्यक्ति होती है अर्थात् संवेग में सुख या दुःख का भाव निहित रहता है।
  10. संवेगों की अनुभूति के समय क्रियात्मक अनुभूति होती है अर्थात् व्यक्ति कुछ करना चाहता है।
  11. संवेगात्मक व्यवहार में दृढ़ता रहती है काफी समय तक संवेग रहता है।

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Anjali Yadav

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