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सामाजिक विकास का अर्थ
सामाजिक विकास (Social Development ) जन्म के समय बालक न तो सामाजिक (Social) होता है और न ही असामाजिक (Antisocial), बल्कि वह ‘समाज निर्पेक्ष’ होता है। जन्म के समय बालक निःसहाय तथा पराश्रित होता है।
सामाजिक विकास का तात्पर्य बालक के जन्म से प्रारम्भ होने वाली प्रक्रिया से है, जिसमें वह अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए सामाजिक वातावरण के साथ प्रतिक्रिया कर, सामाजिक गुणों को सीखता है। व्यक्ति का सामाजिक विकास जीवन पर्यन्त चलता रहता है।
दूसरे शब्दों में, जन्म के समय से अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए सामाजिक वातावरण से प्रभावित होकर बालक के क्रमशः सामाजिक गुणों को सीखने की प्रक्रिया को सामाजिक विकास या सामाजीकरण कहते हैं। सामाजिक विकास की परिभाषायें विभिन्न मनोवैज्ञानिकों ने निम्न प्रकार की है-
सामाजिक विकास की परिभाषाएँ
(1) चाइल्ड के अनुसार, “सामाजिक विकास वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा व्यक्ति में उसके समूह मानकों के अनुसार, वास्तविक व्यवहार का विकास होता है।”
(2) हरलॉक के अनुसार, “सामाजिक विकास का अर्थ उस योग्यता को अर्जित करना है जिसके द्वारा सामाजिक अपेक्षाओं के अनुसार व्यवहार किया जा सके।”
(3) क्रो तथा क्रो के अनुसार, “जन्म के समय शिशु न तो सामाजिक प्राणी होता हैं और न ही असामाजिक, परन्तु इस स्थिति में वह अधिक समय नहीं रहता है।”
(4) आगर्बन और निमकाफ के अनुसार, “समाजीकरण व प्रक्रिया है, जिसके द्वारा व्यक्ति मानव बनता है।”
(5) एफ पावर्स के अनुसार, “सामाजिक विरासत को ध्यान में रखकर व्यक्ति के कृतकार्यों द्वारा उत्तरोत्तर विकास और उन सामाजिक परिस्थितियों के अनुरूप व्यवस्थिति चरित्र को विकसित करना सामाजिक विकास है।”
(6) बोगार्डस के अनुसार, “एक साथ मिलकर कार्य करने, सामूहिक उत्तरदायित्व की भावना विकसित करने तथा अन्य व्यक्तियों के कल्याण सम्बन्धी आवश्यकताओं को समक्ष रखकर कार्य करने की प्रक्रिया को समाजीकरण की प्रक्रिया कहते हैं। “
सामाजिक विकास की विशेषताएँ
सामाजिक विकास में निम्नलिखित विशेषताएँ पाई जाती है—
(1) प्रारम्भिक सामाजिक अनुक्रियायें – शैशवावस्था में बालक का सामाजिक सम्पर्क माता तथा उसके आसपास के वातावरण से होता है, जिसको शिशु की आँखें देखती हैं और माँ के चेहरे को देखकर वह मुस्कराता है और यही उसका सामाजिक सम्पर्क होता है। समय के साथ उसका सामाजिक सम्पर्क बढ़ता रहता है और उसी की तरह अनुक्रियायें भी करता है। वह अपने पराये में अन्तर करने लगता है और यहीं अन्तर करना उसके सामाजिक विकास का पहला चरण होता है। वह अपने से बड़ों के प्रति अपनी सहज क्षमता के अनुसार अनुक्रियायें करने लगता है।
( 2 ) अन्य बालकों के साथ अनुक्रियायें- सामाजिक विकास एकांकी तथा एक तरफी अनुक्रिया नहीं है। बालक, अन्य बालकों के व्यवहार के प्रति अनुक्रिया करता है। इससे उसके सुखद दुखद अनुभव में वृद्धि होती है। मौद्री एवं नेकुला (Maudry and Nekula) के अध्ययन के अनुसार नौ महीने की आयु तक के बच्चे अनुक्रिया के प्रति प्रतिक्रिया नहीं करते। चौदह महीने के बच्चे अपने वातावरण को पहचानने लगते हैं। दो वर्ष की आयु के बच्चे लेने-देने (Give and take) की अनुक्रिया करने लगते हैं।
( 3 ) सामूहिक क्रियायें – तीन वर्ष की आयु के बाद बालक के सामाजिक विकास में वृद्धि होने लगती है और वह सामूहिक क्रियाओं में भाग लेना आरम्भ कर देता है। यह बात अलग हैं कि ऐसे बालकों का समूह दो बालकों का हो या पाँच बालकों का । छः वर्ष की आयु में बालक की सामूहिक क्रियाओं में वृद्धि होती है।
(4) प्रतिरोधी व्यवहार –सामाजिक व्यवहार के विकास के साथ-साथ बालकों प्रतिरोधी अथवा नकारात्मक व्यवहार उत्पन्न होने लगता है। यह व्यवहार प्रायः तभी उत्पन्न होता जबकि बालक अस्वस्थ होता है। यह व्यवहार कभी-कभी तर्क का रूप भी धारण कर लेता है बच्चे किसी काम को करने से पूर्व तर्क करने लगते हैं।
( 5 ) सहानुभूति – सामाजिक विकास में सहानुभूति की विशेष भूमिका होती है। बच्चे सहानुभूति का विकास आरम्भ से ही होने लगता है। बालक में यह प्रवृत्ति सहानुभूति की परिस्थितियों में ही विकसित होती है। सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार में भी आयु तथा परिपक्वता के साथ-साथ भिन्नता पाई जाती है।
(6) प्रतिस्पर्धा – बालक में प्रतिस्पर्धा का विकास सामाजिक विकास के कारण होता है अपने को आगे बढ़ाने में व्यक्ति सदा ही लगा रहता है। उसे अपने प्रतिद्वन्द्वियों से स्पर्धा कर पड़ती है। स्कूली जीवन में अच्छे अंक प्राप्त कर कक्षा में स्थान बनाने के लिये यह गुण बहुत काम आता है।
(7) सहयोग — सहयोग सामाजिक विकास तथा समायोजन का मूल्य है। सहयोग की भावना के विकास से ही व्यक्ति में भिन्न-शत्रु भाव उत्पन्न होता है। मित्र भाव से अस्तित्व, शत्रु भाव से सुरक्षा दोनों ही बालक के सामाजिक पक्ष को विकसित करने में योग देती है।
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