स्वतन्त्रता के सम्बन्ध में मार्क्सवादी विचारों (दृष्टिकोण) को स्पष्ट कीजिए।
मार्क्सवादी विचारक साम्यवादी देशों को ‘समाजवादी लोकतन्त्र’ के नाम से पुकारते हैं। उनका मत है कि इंग्लैण्ड, अमेरिका, स्वीडन, डेनमार्क आदि देशों के नागरिक उतनी स्वतन्त्रता का उपभोग नहीं कर सकते जितनी स्वतन्त्रता साम्यवादी देशों के नागरिकों को प्राप्त हैं। साम्यवादी देशों में ने केवल आर्थिक स्वतन्त्रता के ही दर्शन होते हैं बल्कि नागरिकों को राजनीतिक व नागरिक अधिकार भी प्राप्त हैं। कम्पयुनिस्टों का मत हे कि वे एक नये युग के प्रवेशद्वार पर खड़े हैं और उनहें वहाँ से स्वार्णिम युग की ओर बढ़ना है। यहाँ हम स्वतन्त्रता के सम्बन्ध में मार्क्सवादी दृष्टिकोण का विवेचन करेंगे।
1. अलगाव और विरक्ति की स्थिति में ‘स्वतन्त्रता’ सम्भव है ही नहीं- कार्ल मार्क्स के मतानुसार आधुनिक पूँजीवादी यु में प्रत्येक व्यक्ति स्वनिर्मित वस्तुओं का उपभाग न कर सकने के कारण दूसरे से अलग-थलग होता जा रहा है। श्रमिक को इतना वेतन नहीं मिलता कि वह स्वनिर्मित वस्तुओं का उपयोग कर सके। जो लोग दूसरों के लिए मखमल बनाते हैं, उन्हें तन ढांपने के लिए मोटा और खुरदरा कपड़ा भी उपलब्ध नहीं होता। फलस्वरूप उनमें स्वनिर्मित वस्तुओं के प्रति उदासीनता का भाव उत्पन्न हो जाता है। श्रमिक लोग अपने संगी-सार्थियों से भी कट जाते हैं। जिन्हें काम मिल जाता है, वे बेरोजगारों को घृणा की दृष्टि से देखते हैं और जो बेरोजगार हैं, वे कार्यरत मजदूरों को अपना शत्रु मानने लगते हैं। सामान्य व्यक्ति की जीवन में से दिलचस्पी समाप्त होती जा रही है। जो लोग पूँजीपतियों द्वारा सताए जा रहे हैं, उनके लिए ‘कला’, ‘विज्ञान’ और ‘संस्कृति’ निरर्थक वस्तुएँ हैं। संक्षेप में, पूँजीवादी व्यवस्था और ‘स्वतन्त्रता ‘ ये दोनों परस्पर विरोधी बातें हैं। ‘स्वतन्त्रता’ का सही अर्थ है- “अलगात अथवा विरक्ति का अभाव।”
2. स्वतन्त्रता के लिए किस तरह की आर्थिक परिस्थितियाँ होनी चाहिए? मार्क्सवादी विचारकों और साम्यवादी नेताओं के मतानुसार स्वतन्त्रता का अर्थ यह है कि समाज में का कोई भी वर्ग दूसरे वर्ग का शोषण न कर सके। पूँजीवादी व्यवस्था में कुछ गिने-चुने जमींदार और उद्योगपति राष्ट्र की सम्पूर्ण सम्पत्ति को हड़प लेते हैं। थोड़े-से लोगों को तो सभी सुख-सुविधाएँ प्राप्त होती हैं किन्तु बहुसंख्यक श्रमिक और किसान भूखों मरते हैं। जब तक समाज वर्गों में बँटा रहेगा, तब तक वास्तविक स्वतन्त्रता सम्भव नहीं है। मार्क्स और ऐंजिल्स के शब्दों में, “व्यक्तिगत हित ‘सामुदायिक हित’ में समाविष्ट हैं समाज के कल्याण में ही व्यक्ति की स्वतन्त्रता सम्भव है।” अतः जब तक उत्पादन के साधन समूचे समाज की सम्पत्ति नहीं बन जाते, तब तक न्याय और स्वतन्ता की स्थापना असम्भव हैं साम्यवादी देशों में उत्पादन के साधनों पर राज्य का स्वामित्व होता है तथा धन का उत्पादन और उसका वितरण दोनों राज्यों की एजेंसियों द्वारा संचालित होते हैं। राष्ट्रीयकरण या समाजीकरण की इस प्रक्रिया को ही समाजवादी ‘स्वतन्त्रता’ का नाम देते हैं।
यह ठीक है कि साम्यवादी देशों के संविधानों में नागरिक स्वतन्ता का भी उल्लेख मिलता है किन्तु व्यवहार में उसका कोई मूल्य नहीं है किन्तु जहाँ तक आर्थिक अधिकारों का प्रश्न है, उनका न केवल उल्लेख ही किया गया है बल्कि उनको व्यवहारिक रूप भी दिया जा रहा है। साम्यवादी देशों के नागरिकों को काम करने का अधिकार प्राप्त है। इसके अतिरिक्त, उन्हें विश्राम व अवकाश के अधिकार भी प्राप्त हैं। नागरिकों को निःशुल्क या बहुत कम शुल्क देकर शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार मिला हुआ है तथा स्त्रियों को पुरुषों के ही समान अधिकार प्रदान किये गये हैं।
3. मार्क्सवादी में नेतृत्व की धारणा का महत्वपूर्ण स्थान है- जॉन हेजर्ड ने कहा है कि लेनिन और स्टालिन ने ऐंजिल्स के वर्ग-विहीन राज्य के सिद्धान्त को भले ही तिलांजलि दे दी हो किन्तु उन दोनों का यह विश्वाश था कि सर्वसाधारण लोगों में शासन की क्षमता नहीं होती। वे तो केवल बढ़िया भोजन, अच्छे कपड़े और अरामदायक मकान व सुविधाएँ चाहते हैं। मार्क्स की योजना को व्यावहारिक रूप देने के लिए समाज के बुद्धिजीवी वर्ग को आगे आना पड़ेगा और उन्हीं को शासन का भार सँभालना होगा। सामजवादी देशों में सम्पूर्ण सत्ता साम्यवादी दल के हाथों में होती है और वास्तव में दल में भी दो-चार व्यक्ति ही सर्वोच्च सत्ता से युक्त होते हैं। इसका आशय यह है कि ‘जनता की आजादी’ तथा अत्यन्त ‘सीमित वर्ग के हाथों में सम्पूर्ण सत्ता’ का होना, ये दो विरोधी बातें नहीं हैं।
4. राजनीतिक स्वतन्त्रताएँ समाजवाद के विरोधियों को उपलब्ध नहीं हैं- रूस, चीन तथा अन्य साम्यवादी देशों में नागरिकों को कुछ राजनीतिक व नागरिक स्वतन्त्रताएँ भी प्राप्त हैं, जैसे- मताधिकार, भाषण की स्वतन्त्रता, समाचार-पत्रों की स्वतन्त्रता, सभा व सम्मेलन की स्वतन्त्रता तथा परिवारिक स्वतन्त्रता आदि किन्तु इस विषय में इन देशों का संविधान यह कहता है कि इन स्वतन्त्रताओं का उपभोग इस प्रकार किया जा सकता है जिससे श्रमिकों के हितों को कोई नुकसान न पहुँचे। समाजवादी व्यवस्था का विरोध करने वालों को कठोर दण्ड दिया जाता है। ‘एमनेस्टी इण्टरनेशनल’ एक ऐसी संस्था है जो राजनीतिक कैदियों की रिहाई के लिए कार्य करती है। इस संस्था की नवीनतम रिपोर्ट के अनुसार रूस और विशेषकर चीन की साम्यवादी सरकार अपने विरोधियों के साथ नृशंस व्यवहार कर रही है। राज्य का विरोध करने वाला कोई भी व्यक्ति किसी भी समय पागल करार दिया जा सकता है। मानव अधिकारों की माँग करने वाले नागरिकों व लेखकों को देशद्रोही की संग दी गयी हैं यह ठीक है कि साम्यवादी देशों में नागरिकों को सार्वजनिक संस्थाओं की त्रुटियों व दोषों की ओर सरकार का ध्यान आकृष्ट करने की स्वतन्त्रता प्राप्त है। समाचार-पत्रों व पत्रिकाओं की त्रुटियों व दोषों की ओर सरकार का ध्यान आकृष्ट करने की स्वतन्त्रता प्राप्त हैं समाचार-पत्रों व पत्रिकाओं में सम्पादक के नाम पत्रों द्वारा वे अपने सुझाव भेजते रहते हैं। फिर भी यह तो मानना ही पड़ेगा कि सम्पादक के नाम पत्र उतना प्रभावशाली नहीं हो सकता जितना कि लेख व भाषण की स्वतन्त्रता हो सकती है।
5. कानून तथा स्वतन्त्रता का सम्बन्ध – साम्यवादी देशों में जीवन के सभी पक्षों पर राज्य का कठोर नियन्त्रण होता है। आर्थिक व्यवस्था, धर्म, पारिवारिक मामले, ट्रेड यूनियन, विचारों की अभिव्यक्ति, समाचार-पत्रों की स्वतन्त्रता आदि के सम्बन्ध में जो कानून बनाए गये हैं, उनको कड़ाई के साथ लागू किया जाता है। साम्यवादी देशों के नागरिकों का कर्त्तव्य है कि ये राज्य के आदेशों का पूरी निष्ठा के साथ पालन करें। संविधान और कानूनों का पालन किये बिना तो समाजवाद पुष्ट हो सकेगा और न देश की बाहरी शत्रुओं से रक्षा ही सम्भव हो सकेगी। संविधान व राज्य के कानून स्वतन्त्रता के विरोधी नहीं हैं वरन् उसे पुष्ट करने के साधन हैं।
6. न्यायापालिका की स्वतन्त्रता- पश्चिम के उदार लोकतन्त्रीय देशों में अदालतें पर्याप्त सीमा तक कार्यकारिणी के नियन्त्रण से मुक्त हैं किन्तु मार्क्सवादी देशों में नागरिक अधिकारों की सुरक्षा के लिए यह आवश्यक नहीं समझा गया कि अदालतों को कार्यपालिका या सत्तारूढ़ दल के नियन्त्रण से मुक्त रखा जाए। मार्क्सवादी विचारकों के मतानुसार न्यायालय भी कार्यपालिका का ही अंग है। उसका कर्त्तव्य है कि वह कानूनों की व्याख्या इस प्रकार करे जिससे समाजवाद पुष्ट हो तथा समाजवाद के शत्रुओं को कठोर दण्ड दिया जा सके। जॉन हेजर्ड ने पूर्व सोवित संघ की न्याय व्यवस्था के विषय में कहा था कि “सोवियत रूस का उच्चतम न्यायालय सदैव’ सुप्रीम सोवियत’ (संसद) की अधीनता में कार्य करता है। सुप्रीम सोवियत के लगभग अस्सी प्रतिशत सदस्य क्योंकि कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य होते हैं, इसलिए व दली अनुशासन से बँधे होते हैं।” इसका आशय यह है कि उच्चतम न्यायालय तथा देश के अन्य न्यायालय कम्युनिस्ट दल की अधीनता में कार्य करते हैं।
7. पूर्ण स्वतन्त्रता तो राज्य-विहीन स्थिति में हीं सम्भव है- ऐंजिल्स के मतानुसार समाजवादी राज्य धीरे-धीरे उस व्यवस्था की ओर बढ़ते जाएँगे जिसमें प्रत्येक व्यक्ति आर्थिक दृष्टि से सन्तुष्ट होगा तथा वह स्वार्थ से नहीं, पर- हित से प्रेरित होगा। उस व्यवस्था में न अपराधी होंगे और न एक मानव द्वारा दूसरे मानव के शोषण की कोई गुन्जाइश ही रहेगी। धीरे-धीरे पुलिस, सेना, अदालतों तथा अन्य दमनकारी शक्तियों की आवश्यकता भी नहीं रहेगी। प्रत्येक वस्तु का पर्याप्त उत्पादन `होगा, वितरण की न्यायोचित व्यवस्था होगी तथा सांस्कृतिक और वैज्ञानिक विकास के पूर्ण अवसर उपलब्ध होंगे। उस स्थिति में न तो वर्ग होंगे और राज्य का ही अस्तित्व होगा। दूसरे शब्दों में, पूर्ण स्वतन्ता का साम्राज्य होगा तथा हिंसा व दमनकारी सत्ता के लिए कोई स्थान नहीं होगा।
उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि जहाँ उदारवादी विचारक व्यक्ति की स्वतन्त्रता और उसके अधिकारों की रक्षा के लिए प्रयत्नशील रहे हैं वहाँ मार्क्सवादी विचारकों ने समाज या समुदाय के हितों को प्राथमिकता दी है किनतु जैसा कि अर्नेस्ट वार्कर ने कहा है कि “आधुनिक युग की समस्या ‘व्यक्ति बनाम राज्य’ या ‘व्यक्तिवाद बनाम समष्टिवाद’ नहीं है। व्यक्ति और समाज के हितों में अन्तत: विरोध कैसा ?” जैसे एक प्रकार की मिट्टी में कोई पौधा अधिक फलता-फूलता है और दूसरे प्रकार की मिट्टी में कोई दूसरा पौधा, वैसे ही प्रत्येक देश की पृथक्-पृथक् आवश्यकताओं और परम्पराओं के कारण सरकार के रूपों में भी भिन्नता अवश्य मिलेगी। प्रत्येक समाज व सरकार का दायित्व है कि वह अपने सदस्यों के सर्वोच्च विकास के लिए आवश्यक सुविधाएँ व स्वतन्त्रताएँ जुटाए।
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