अधिगम (प्रशिक्षण) स्थानान्तरण के प्रमुख सिद्धान्तों पर प्रकाश डालिये।
प्रशिक्षण स्थानान्तरण के सिद्धान्त
प्रशिक्षण स्थानान्तरण के प्रमुख सिद्धान्त निम्नवत हैं-
(1) सविधिक मानसिक अनुशासन का सिद्धान्त यह सिद्धान्त- सबसे पुराना है। इसका तात्पर्य यह है कि यदि किसी व्यक्ति की मानसिक योग्यता को उचित ढंग से अनुशासित कर दिया जाए तो वह व्यक्ति अपनी योग्यता का प्रयोग सभी जगह समान रूप से करेगा। इसका कारण यह है कि उसकी मानसिक शक्तियों को साविधिक या औपचारिक ढंग से प्रशिक्षित किया गया है। मस्तिष्क की सभी शक्तियाँ सहसम्बन्धित होती है और इस प्रकार वे अपने आप सभी क्षेत्रों में प्रकट होती हैं। उदाहरण के लिए, स्मृति शक्ति का प्रशिक्षण विषय को रटाकर या याद कराकर होता है। इसका प्रयोग व्यक्ति किसी भी क्षेत्र में कर सकता – भाषा, गणित या इतिहास में गणित या विज्ञान से तर्क एवं विधिवत कार्य करने की क्षमता आती है जिसका प्रयोग घर के कामकाज, कार्यालय के कामकाज करने आदि में होता है। इससे तर्कपूर्ण चिन्तन की आदत भी बनती है। भाषा और साहित्य के अध्ययन से कल्पना, चिन्तन और बोलने-लिखने की शक्तियों का वर्द्धन होता है। इसका स्थानान्तरण जीवन के अन्य क्षेत्रों में किया जाना सम्भव है। अतः स्पष्ट है कि इस सिद्धान्त के अनुसार विभिन्न मानसिक शक्तियों को इतना बलिष्ठ एवं शक्तिशाली बनाया जाता है, इतना नियमित एवं सुगठित बनाया जाता है कि वह किसी भी क्षेत्र में किसी भी ढंग से प्रयोग में लाया जा सकता है। यद्यपि यह सिद्धान्त अब मान्य नहीं हो रहा है लेकिन फिर भी यह सिद्धान्त काफी लागू होता है जबकि विभिन्न विषयों में उत्कृष्ट विद्यार्थियों को हम आई.ए.एस. जैसी प्रतियोगिताओं में उच्च स्थान पाते देखते हैं। इसी से जुड़ा हुआ मानसिक शक्तियों का सिद्धान्त भी कहा जाता है। गेट्स और अन्य लोगों ने इसे अब अस्वीकृत किया है क्योंकि मस्तिष्क की शक्तियों को अलग-अलग करके उन्हें प्रशिक्षण के द्वारा सबल नहीं बनाया जा सकता है। अस्तु ये दोनों सिद्धान्त अब त्याग दिये गये हैं फिर भी इन्हें जानना चाहिए।
(2) समान तत्वों का सिद्धान्त- आधुनिक समय में मनोविज्ञानियों ने मन को विभिन्न क्रियाओं का कुल योग बताया है जो आपस में जुड़ी हुई होती हैं। क्रो एवं क्रो ने थार्नडाइक के इस सिद्धान्त के बारे में अपना मत व्यक्त करते हुए लिखा है कि “आधुनिक मनोविज्ञानी इस तथ्य में विश्वास रखते हैं कि मानसिक क्रियाएं, जैसे- विचार, अवधान; स्मरण, तर्क करना आदि, अलग-अलग अपना अस्तित्व नहीं रखती हैं। बल्कि किसी भी स्थिति में ये सब मानसिक क्रियाएं एक-दूसरे से मिलकर क्रियाशील होती है।” अतएवं अब केवल स्थानान्तरण का ही प्रश्न नहीं रहता बल्कि मानसिक क्रिया के परिणामों के प्रयोग का प्रश्न सामने रहता है, इस विचार से यह सिद्धान्त सामने आता है।” इस सिद्धान्त प्रतिपादक थार्नडाइक ने इस सिद्धान्त के बारे में इस प्रकार लिखा है- “एक प्रकार से दूसरे में बदलना तभी संभव होता है जबकि दोनों प्रकार्यों में जो कारक हैं वे समान तत्व के हैं।” इस कथन से ज्ञात होता है कि स्थानान्तरण तो होता है लेकिन उसी समय जब दो परिस्थितियों में क्रिया को प्रभावित करने वाले समान कारक हुआ करते हैं। इसीलिए कला की योग्यता गणित में स्थानान्तरित नहीं हो पायी है। जब समान तत्व पाये जायेंगे तभी स्थानान्तरण का अनुपात अधिक होगा, ऐसे विचार गेट्स और अन्य लेखकों के भी हैं।
को एवं को ने लिखा है कि “एक परिस्थिति से दूसरी में स्थानान्तरण उस सीमा तक निर्भर है जिसमें दोनों परिस्थितियों में विषयवस्तु, अभिवृत्ति, विधि या उद्देश्य के निश्चित समान तत्व होते हैं।” अतः स्पष्ट है कि इस सिद्धान्त के अनुसार सीखने के विषय उसकी सामग्री, सीखने की ओर अभिवृत्ति सीखने की विधि, सीखने के उद्देश्य ये सभी समान हो तभी स्थानान्तरण हुआ करता है। उदाहरण के लिए मोटर साइकिल चलाने वाले स्कूटर, मोटर या बस, टैक्सी सभी चला सकते हैं। छोटे-मोटे इंजन चलाने वाले बड़े इंजन चला लेते हैं। बिजली के काम करने वाले पंखे, हीटर आदि ठीक कर देते हैं या बिजली से चलने वाली मशीनों को भी साथ लेते हैं। परन्तु इसका एक नकारात्मक पक्ष भी हो सकता है जैसे क्रिकेट का खिलाड़ी हॉकी या फुटबाल का खिलाड़ी नहीं भी होता है। फुटबाल खेलने वाला वॉलीबाल नहीं खेलता है। यद्यपि खेल के कौशल का तत्व सभी में पाया जाता है। इस प्रकार यह एक कमी भी आ जाती है।
(3) सामान्यीकरण का सिद्धान्त- इस सिद्धान्त के प्रतिपादक चार्ल्स जुड़ कहे। जाते हैं। उन्होंने स्थानान्तरण का अर्थ सामान्यीकरण से लिया है। इस सिद्धान्त का तात्पर्य यह है कि शिक्षा में प्रशिक्षण का स्थानान्तरण तभी हुआ करता है जबकि केवल एक विशेष परिस्थिति में ही नहीं वरन् सभी परिस्थितियों में व्यक्ति एक समान व्यवहार करें। उदाहरण के लिए यदि एक छात्र समय का पाबन्द होता है तो उसे विद्यालय में ही समय पर नहीं आना चाहिए बल्कि भोजन करने, नहाने, पढ़ने का कार्य करने, व्यवसाय के कार्य, सामाजिक कर्तव्यों का पालन आदि सभी क्रियाओं में समय की पाबन्दी रखनी चाहिए और लोग अधिकतर ऐसा ही करते पाये जाते हैं। इसके अनुसर विशेष कौशलों तथा योग्यताओं का विकास, विशिष्ट प्रवीणता, दक्षता, विशेष आदतों और अभिवृत्तियों की प्राप्ति एक परिस्थिति में होने पर उसका व्यवस्थीकरण इस ढंग से किया जाता है कि दूसरी परिस्थिति में उनका उपयोग किया जा सके। ऐसा विचार को एवं क्रो महोदयों ने प्रकट किया है और वह उपयुक्त भी लगता है। जुड़ ने भी स्पष्टता प्रदान करते हुए कहा है- “एक अध्यापक जो एक व्यापक दृष्टिकोण रखता है, वह कोई एक सूचना छात्रों को केवल तथ्यांश रूप में नहीं देता है बल्कि सम्पूर्ण कार्यावयव का सुझाव देता है जो केन्द्र के समान होता है। “
यह भी सामान्यीकरण ही है क्योंकि सूक्ष्म रूप से सामान्य सिद्धान्त बना लिये जाते हैं। और उनका प्रयोग विभिन्न परिस्थितियों में होता है। इसको अब कुछ प्रयोगों द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है।
(i) जुड का प्रयोग- जुड का प्रयोग पानी के भीतर स्थित एक लक्ष्य पर तीर से निशाना मारने पर है। एक वर्ग के बालको को बिना बर्तन सिद्धान्त को समझाए हुए निशाना ठीक-ठीक लगा लेने का अभ्यास दिया गया। दूसरे वर्ग के बालकों को पहले वर्तन के सिद्धान्त को समझाकर फिर अभ्यास कराया गया। दोनों वर्गों के अभ्यास का समय समान रखा गया। इसके पश्चात लक्ष्य अधिक गहराई पर रख दिया गया। जिस वर्ग को वर्तन का सिद्धान्त नहीं बताया गया था, वे इस परिस्थिति में निशाना लगाने में भ्रम में पड़ गये और जिस वर्ग को वर्तन का सिद्धान्त स्पष्ट था, वे. शीघ्र ही नये लक्ष्य पर निशाना लगाने में सफल रहे।
(ii) गेट्स का प्रयोग- गेट्स यह प्रयोग 3800 छात्रों (2 से 8 कक्षा तक) पर किया। विद्यालय में एक साल तक उन्हीं शब्दों की वर्तनी दो विधियों द्वारा पढ़ाई गयी। सामान्यीकरण विधि मैं समान तत्वों, समान उपसंर्गों, समान ध्वनियों आदि आधारों पर शब्द को वर्गीकृत कर दिया। फिर छात्रों का ध्यान इन तत्वों की समानता तथा विभिन्नता पर आकर्षित किया गया और उन्हें सामान्यीकरण करने में सहायता प्रदान की गयी। दूसरी विधि में शब्दों की वर्तनी ज्यों की त्यों बता दी गयी। इसमें न तो शब्दों को वर्गीकृत किया गया और न सामान्यीकरण के सिद्धान्त को समझाया गया। फिर देखा गया कि जो बच्चे पहल विधि द्वारा शब्दों को सीख चुके थे उन्हान नये शब्दों को सीखने से 6 से 8 प्रतिशत अधिक योग्यता प्रदर्शित की। ब्रीड ने भी अपने प्रयोगों के आधार पर इस बात की पुष्टि की कि शिक्षण में सामान्य सिद्धांतों का ज्ञान अधिक उपयोगी होता है।
(4) सामान्य और विशिष्ट कारकों का सिद्धान्त- इसके प्रवर्तक स्पीयरमैन महोदय माने गये हैं। स्पीयरमैन ने बताया कि व्यक्ति में दो प्रकार की मानसिक योग्यता पायीं जाती है (अ) सामान्य योग्यता, (ब) विशिष्ट योग्यता ।
इसके अनुसार विशिष्ट योग्यता का स्थानान्तरण नहीं होता है, केवल सामान्य योग्यता का ही स्थानान्तरण होता है। इस प्रकार स्थानान्तरण का आधार बुद्धि है। सामान्य योग्यता हरेक की अलंग होती है जो भूगोल, गणित, इतिहास, विज्ञान, कला-कौशल आदि में समान रूप से मिलती है। परन्तु कोई कला में तो कोई भाषा में विशिष्ट योग्यता रखता है जो अभिदक्षता के रूप में होती है और इसका स्थानान्तरण नहीं हो पाता है। सामान्य कारक का प्रभाव सभी बौद्धिक कार्यों पर पड़ता है। इसे हम दुकानदारी, नौकरी, डाक्टरी, वकालत, अध्यापन जिसमें चाहे प्रयोग कर सकते हैं।
(5) जेस्टाल्ट सिद्धान्त – इसके पोषक एवं प्रतिपादक जेस्टाल्टवादी मनोविज्ञानी हैं। ये मनोवैज्ञानिक अधिगम में सूझ को महत्व देते हैं। कोहलर ने मुर्गी के बच्चों, चिम्पांजी तथा शिशुओं पर कुछ प्रयोग किये और यह निष्कर्ष निकाला है परिस्थिति में अर्न्तदृष्टि उसके सभी सम्बन्धों में सामान्य प्रशिक्षण प्राप्त करने के लिए बहुत जरूरी है।” इसका तात्पर्य यह है कि वस्तु और क्रिया का आकार ही हमें ज्ञात होता है और यही स्थानान्तरित किया जाता है। इसे कुछ लोगों ने ‘सूझ’ या ‘अन्तर्दृष्टि’ माना है जिसका स्थानानतरण होता है। तात्पर्य यह कि यदि व्यक्ति में एक परिस्थिति के कारण कोई ‘सूझ’ आ गयी तो दूसरी परिस्थिति में वह उसका प्रयोग कर लेता है। उदाहरण के लिए एक बार चिम्पांजी ने छड़ी की सहायता से केला प्राप्त किया तो दूसरी बार उसने बक्सों को रखकर और उस पर चढ़ कर केला प्राप्त किया। दोनों परिस्थितियों में ‘सूझ’ ही था और एक से दूसरी परिस्थिति में ‘सूझ’ ही एक स्थानान्तरण हुआ। आलोचकों ने इस जेस्टाल्ट सिद्धान्त को समान तत्वों के सिद्धान्त पर आधारित होना बताया है। इसे उसका संकुचित तथा संकीर्ण रूप माना है। वास्तव में ‘केला पाना उद्देश्य’ दोनों परिस्थितियों में था। ऐसी दशा में समान तत्व के सिद्धान्त का प्रभाव यहां भी मिलता है। कक्षा में भी कभी-कभी बालक वर्ग विन्यास या गणित के प्रश्नों में सूझ के आधार पर ही उत्तर दिया करते हैं।
(6) मूल्य अभिज्ञान का सिद्धान्त- वास्तव में यह सिद्धान्त सामान्यीकरण के सिद्धान्त का एक रूपान्तर कहा जाता है। इस पर रीजर और बैग्ले ने प्रकाश डाला है। इनका विचार है कि “सामान्यीकरण ही सम्पूर्ण कथा नहीं है बल्कि इसके साथ एक आदर्श और संवेगात्मक सामग्री भी हो, बात तो यह है कि सामान्यीकरण के साथ गुण विवेचन अवश्य होना चाहिए यदि स्थानान्तरण प्राप्त करना है तो।” ये बैग्ले का मत है। रीजर एवं बैग्ले ने यह बताया कि “चेतन रूप से आदर्शों को एक स्थिति से दूसरी स्थिति मे स्थानान्तरित किया जा सकता है और यह स्थानान्तरण तभी अच्छी तरह से होता है जबकि मनुष्य यह जान लेता है आदर्श कितना अच्छा है। दूसरे शब्दों में जब वह उन आदर्शों का गुण विवेचन कर लेता है और उसे परख लेता है। इस प्रकार से गुण विवेचन करने में प्रशिक्षण या सीखने की क्रिया के मूल्य स्थापित होते हैं। उदाहरण के लिए उसमें परिशुद्धता या यथार्थता, तार्किकता, स्वच्छता, सुगमता, स्पष्टता जैसे मूल्य या गुण दिखाई देते हैं तो उसे हम एक परिस्थिति से दूसरी परिस्थिति में प्रयोग करते हैं। वास्तव में यह भी सामान्यीकरण का एक रूप कहा जा सकता है। इसी कारण इस सिद्धान्त को सामान्यीकरण के सिद्धान्त का एक रूपान्तर या संशोधन कहते हैं।
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