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अनुशासन की आवश्यकता एवं महत्त्व (NEED AND IMPORTANCE OF DISCIPLINE)
शिक्षा का कार्य मनुष्य की पाशविक वृत्तियों पर नियन्त्रण कर उसका आध्यात्मिक विकास करना होता है। इसके लिए विद्यालयों में उच्च सामाजिक वातावरण प्रस्तुत करना आवश्यक होता है और इस हेतु वहाँ के लिए आचरण-संहिता एवं नियमावली तैयार करना भी आवश्यक होता है। आदर्शवादी बच्चों से यह आशा करते हैं कि वे विद्यालयीय नियमों का पालन करें और विद्यालय की व्यवस्थानुसार ही कार्य करें। इसे ही वे अनुशासन कहते हैं। इनका तर्क है कि विद्यालयीय नियमों का पालन करने अर्थात् अनुशासन में रहने से अनेक लाभ हैं और इसका विविध दृष्टिकोणों से महत्त्व है। अनुशासन के महत्त्व को हम निम्नलिखित रूप में समझ सकते हैं-
(1) अनुशासन में रहने से शिक्षा की प्रक्रिया सुचारू रूप से चलती है।
(2) विद्यालयों में हर काम समय से होता है और इससे समय और शक्ति का सदुपयोग होता है। अनुशासन के अभाव में शक्ति का ह्रास होता है; अतः अनुशासन शक्ति की प्राप्ति और उसका प्रयोग करने हेतु महत्त्वपूर्ण है।
(3) बच्चों में सामाजिक आचरण करने की आदत पड़ती है और उन्हें पाशविक व्यवहार करने का अवसर नहीं मिलता है। अतः सामाजिक दृष्टि से विशेष महत्त्व है।
(4) अनुशासन मनुष्य को अपने उत्तरदायित्वों को निभाने की प्रेरणा देता है और कठिनाइयों का सामना करने की शक्ति देता है। विद्यालयों में अनुशासन का पालन करने वाले व्यक्तियों में अनेक गुणों का विकास होता है। इसलिए व्यक्तिगत दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है, अनुशासन व्यक्ति में सच्चरित्रता लाता हैं।
(5) अनुशासन का पालन करने में बच्चों को अपनी इन्द्रियों पर नियन्त्रण रखना होता है और सामाजिक आचरण का पालन करना होता हैं। इस प्रकार वे इन्द्रिय निग्रह और आत्मानुभूति की क्रिया में प्रशिक्षण प्राप्त करते हैं।
(6) विद्यालयों में अनुशासन का पालन करने से हम बच्चों को वह सब सिखाने में सफल होते हैं जो हम उन्हें सिखाना चाहते हैं।
(7) विद्यालयों में अनुशासन का पालन करने से अराजकता पर नियन्त्रण हो जाता है। अनुशासन के अभाव में विद्यालय का कार्य सम्भव नहीं है क्योंकि इससे अराजकता को बढ़ावा मिलता है।
अनुशासनहीनता (INDISCIPLINE)
अनुशासन का अर्थ है कि छात्र विद्यालय के नियमों में आस्था रखते हैं, विद्यालय में और विद्यालय के बाहर उन नियमों का पालन करते हैं, समाज के मानदण्डों के अनुरूप व्यवहार करते हैं और अपने अन्य आचरण पर नियन्त्रण रखते हैं। किन्तु जब छात्र इन नियमों, व्यवहारों और नियन्त्रणों के विरुद्ध कार्य करता है तो कहा जाता है कि छात्र अनुशासनहीन है। आज केवल भारत में ही नहीं अपितु संसार के अन्य देशों में भी छात्रों में अनुशासनहीनता बढ़ती जा रही है। आइये इसके विविध प्रकार और कारणों एवं उन्हें दूर करने के उपायों के विषय में विस्तार से चर्चा करें।
अनुशासनहीनता के प्रकार (KINDS OF INDISCIPLINE)
विद्यालय में विद्यार्थियों में अनेक प्रकार की अनुशासनहीनता की घटनाएँ मिलती हैं। इन घटनाओं को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है, प्रथम- व्यक्तिगत अनुशासनहीनता और द्वितीय- सामूहिक अनुशासनहीनता।
1. व्यक्तिगत अनुशासनहीनता- इसके अन्तर्गत व्यक्तिशः कार्यकलाप आते हैं; जैसे-चोरी करना, झूठ बोलना, आपस में लड़ना, कक्षा में देर से आना, विद्यालय से भाग जाना, दीवारों पर अपशब्द लिखना, गृहकार्य न करना, शिक्षकों से दुर्व्यवहार करना, परीक्षा में अनुचित साधनों का प्रयोग करना, गाली देना, मन लगाकर कार्य न करना, आदेशों का पालन न करना, आदि।
2. सामूहिक अनुशासनहीनता- इसके अन्तर्गत समूह के साथ प्रदर्शन करना है; जैसे-हड़ताल करना, सामूहिक तोड़-फोड़ करना, हंगामा करना, सामूहिक प्रदर्शन करना, सामूहिक लड़ाई-झगड़ा करना, सामूहिक रूप से दूसरों पर हमला करना, आदि। यह अनुशासनहीनता व्यक्तिगत की अपेक्षा अधिक कष्टदायी है। यह राजनैतिक समस्याएँ पैदा कर देती है।
जो भी हो, अनुशासनहीनता चाहे व्यक्तिगत है अथवा सामूहिक या सामाजिक, किसी भी प्रकार से उचित नहीं कही जा सकती है। यह एक बुराई है जो मनुष्य के विकास को अवरुद्ध करती है और यदि संस्था के प्रति है तो उसके भी विकास में यह बाधक बनती है।
विद्यालय अनुशासन रखरखाव में औपचारिक और अनौपचारिक संस्थाओं का उत्तरदायित्व (RESPONSIBILITY OF FORMAL AND INFORMAL INSTITUTIONS IN MAINTAINING SCHOOL DISCIPLINE)
अपने वास्तविक रूप में अनुशासन बच्चों की आन्तरिक भावना, आत्मनियन्त्रण की शक्ति और सामाजिक आचरण, इन सबका योग होता है। इस अनुशासन की प्राप्ति तभी सम्भव है जब शिक्षा की सभी औपचारिक और अनौपचारिक संस्थाएँ इसके लिए प्रयत्नशील हों। इन संस्थाओं के कार्यों के आधार पर अनुशासनहीनता को दूर किया जा सकता है। इनके कार्यों एवं उत्तरदायित्वों को हम निम्नलिखित रूप में समझ सकते हैं-
1. परिवारों का उत्तरदायित्व (Responsibility of Family) बच्चों का सबसे पहला विद्यालय उसकी माँ की गोद, घर अथवा परिवार होता है। भाषा और आचरण की शिक्षा तो यहीं से प्रारम्भ होती है। बच्चों में पड़े ये प्रारम्भिक संस्कार स्थायी होते हैं। अतः परिवार के सदस्यों का कर्तव्य है कि वे प्रारम्भ से ही बच्चों के विचार और व्यवहार को सही दिशा दें। परिवार का पर्यावरण ऐसा होना चाहिए कि बच्चे उसमें सामाजिक भावना एवं उच्च आचरण की शिक्षा प्राप्त करें। इसके लिए परिवारों का पर्यावरण धार्मिक एवं नैतिक होना चाहिए, तभी बच्चे वास्तविक अनुशासन की शिक्षा प्राप्त कर सकेंगे। परिवारों को सचेत करने का कार्य प्रधानाचार्य एवं अध्यापकों का है। यह कार्य विद्यालय करेंगे, विद्यालय के प्रधानाचार्य एवं अध्यापक करेंगे।
2. समाज का उत्तरदायित्व (Responsibility of Society)– भारतीय समाज में अनेक जातियाँ, अनेक धर्म और अनेक आर्थिक वर्ग हैं। घृणा, द्वेष और असहयोग इसकी उभरती हुई बुराइयाँ हैं। सबसे पहले हमें इन्हें दूर करना है अतः समाज के सभी व्यक्ति अपने कर्तव्यों का निष्ठा से पालन करें, एक-दूसरे के साथ शिष्ट व्यवहार करें और सामाजिक नियमों और राज्यों के कानूनों का पालन करेंगे। जब ये अनुशासित हों तो छात्र भी अनुशासित होंगे। इसके साथ ही समाज को अपने शैक्षिक उत्तरदायित्व को समझना चाहिए। उन्हें विद्यालयों के निर्माण एवं संचालन के लिए अधिक से अधिक साधन जुटाने चाहिए। परन्तु इन सब कार्य के लिए समाज को कौन तैयार करेगा ? यह कार्य विद्यालय और राज्य दोनों का है।
3. प्रधानाध्यापक का उत्तरदायित्व (Responsibility of Principal) प्रधानाध्यापक विद्यालय का केन्द्र बिन्दु है। विद्यालय के श्रेष्ठ पर्यावरण के निर्माण में उसकी भूमिका अहम् होती है। वह नेतृत्व प्रदान करता है और विद्यालयीय नीतियों का निर्धारण करता है। विद्यालय में अनुशासन के लिए यह शिक्षक और शिक्षार्थी के सहयोग से नीति का निर्माण करता है, शिक्षकों के साथ सहयोग की भावना से कार्य करके श्रेष्ठ परम्पराओं का निर्वाह करता है, पाठ्य-प्रवृत्तियों और पाठ्य सहगामी प्रवृत्तियों का नियमित आयोजन करता है। वह विद्यालय के उपलब्ध साधनों को प्रभावी ढंग से नियोजित करके विद्यालय में अनुशासन की स्थापना कर सकता है और किसी भी प्रकार की अनुशासनहीनता की स्थिति को दूर कर सकता है।
4. शिक्षक और अभिभावकों का उत्तरदायित्व (Responsibility of Teachers and Parents )— विद्यालय के लक्ष्यों और कार्यक्रमों को क्रियान्वित करने का मूल आधार शिक्षक है। अनुशासन बनाए रखने में उसकी भूमिका महत्त्वपूर्ण है। शैक्षिक कारणों से होने वाली अनुशासनहीनता की घटनाओं के लिए प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से शिक्षक उत्तरदायी होता है। इसलिए शिक्षक अच्छी तैयार करके पढ़ाएँ और वह विद्यार्थियों की व्यक्तिगत एवं कक्षागत समस्याओं पर उचित ध्यान देकर समस्याओं को विवेक और कौशल से हल कर सकता है। इसके अतिरिक्त बालक की व्यक्तिगत क्षमताओं के विकास के लिए व्यक्तिगत ध्यान देकर अनुशासन की समस्याओं को बहुत कुछ कम कर सकता है। अनुशासनहीनता दूर करने में अभिभावकों की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। अधिकांश समय विद्यार्थी घर पर रहता है। बालक अपने अभिभावकों से जो सीखता है, उसी के अनुरूप आचरण करता है, अतः अभिभावकों का बालक के प्रति कैसा व्यवहार है—यह तानाशाह अभिभावक है, आलोचक अभिभावक है और या प्यार करने वाला अभिभावक है। बालक पर प्यार, स्नेह का प्रभाव अधिक पड़ता है; अतः अभिभावक अनुशासनहीनता को कम करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है।
उपर्युक्त उत्तरदायित्वों के अतिरिक्त विद्यार्थी का अपना स्वयं का उत्तरदायित्व भी होना चाहिए। यह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है कि विद्यार्थी स्वानुशासन (आत्मानुशासन) व उचित व्यवहार के विषय में स्वयं अधिक अच्छा सोच सकता है। स्वनिर्णय के अवसर, स्वनिर्भरता, स्वनिर्देशन, परस्पर सहयोग के अवसर, विद्यार्थियों में नेतृत्व का विकास करेंगे इससे नैतिक बल, कार्य करने का विश्वास, कानून और नियमों के प्रति प्रतिबद्धता का विकास होगा। विद्यार्थी सहयोग बढ़ेगा, विद्यालय कार्यक्रमों में रुचि बढ़ेगी जिससे अनुशासनहीनता की घटनाओं को कम करने की स्थिति पैदा की जा सकेगी।
अतः विद्यालय का सम्बन्ध घर और समाज दोनों से घनिष्ठ होना चाहिए। अभिभावक, समाज, नेतागण, अधिकारीगण सभी को अनुशासन की समस्या के समाधान के लिए उत्तरदायी बनाया जाना चाहिए। इसके साथ ही परीक्षा प्रणाली में सुधार किया जाए, कार्यानुभव, श्रम का महत्त्व और व्यावसायिक शिक्षा पर बल दिया जाए ताकि बालक भविष्य में होने वाले असन्तोष से बच सके। विद्यालय में उच्च आदर्शों के लिए, निष्ठा और उसके अनुसार कार्य करने के लिए बच्चों को संवेदनशील बनाया जाए, शिक्षकों की आर्थिक और सामाजिक स्थिति को सुधारने के लिए महत्त्वपूर्ण कदम उठाया जाए, योग्य शिक्षकों की नियुक्ति की जाए, उनका वेतन बढ़ाया जाए और उनके सामाजिक स्तर को ऊँचा उठाया जाए। इस प्रकार शिक्षकों के नेतृत्व को स्थापित किया जाए, इससे अनुशासनहीनता को कम करने में सहायता मिलेगी।
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