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हिन्दी भाषा का शिक्षण सिद्धान्त एवं शिक्षण सूत्र

हिन्दी भाषा का शिक्षण सिद्धान्त एवं शिक्षण सूत्र
हिन्दी भाषा का शिक्षण सिद्धान्त एवं शिक्षण सूत्र

हिन्दी भाषा का शिक्षण सिद्धान्त एवं शिक्षण सूत्र लिखिए।

हिन्दी भाषा का शिक्षण सिद्धान्त

बालक को ठीक प्रकार से शिक्षण प्रदान करने हेतु अध्यापक का शिक्षण के सामान्य सिद्धान्तों से परिचित होना अति आवश्यक है क्योंकि शिक्षण एक कला है। यहाँ हम शिक्षण के सामान्य सिद्धान्तों की चर्चा संक्षेप में कर रहे हैं।

(1) क्रिया द्वारा सीखने का सिद्धान्त (Principle of Activity) – शिक्षण के सामान्य सिद्धान्तों में सर्वप्रमुख सिद्धान्त क्रिया द्वारा सीखने का है। बालक आरम्भ से ही कार्य कुशल होता है। वह कुछ न कुछ करके आनन्द की प्राप्ति करता है। किसी बात को करके ही वह भली-भाँति सीख पाता है। प्रसिद्ध अर्थशास्त्री फ्रोबेल का मत है कि “बालकों को क्रिया द्वारा ही सिखाया जाना चाहिए।” रायबर्न लिखता है, “. .ज्ञान बालक में तभी विकसित होता है जबकि वह उसका उपयोग करता है और उसको किसी न किसी रूप में प्रकट करता है। ” माण्टेसरी, किण्डरगार्टन डाल्टन और बेसिक शिक्षा प्रणालियाँ सभी में क्रिया द्वारा सीखने के सिद्धान्त को मान्यता प्रदान की गयी है।

(2) निश्चित उद्देश्य का सिद्धान्त (Principle of Definite Aim) – शिक्षण का दूसरा महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त, निश्चित उद्देश्य का सिद्धान्त है। शिक्षण को प्रभावशाली, स्पष्ट एवं रुचिपूर्ण बनाने के हेतु शिक्षा के उद्देश्य का कोई निश्चित आदर्श एवं लक्ष्य निर्धारित करना चाहिए। उद्देश्य के निश्चित हो जाने के पश्चात् ही बालक को जानकारी हो पाती है कि उसे क्या करना है। उद्देश्य के बिना शिक्षण अपूर्ण ही रहता है। रायबर्न ने इस सिद्धान्त को महत्त्वपूर्ण माना है। उनके अनुसार, “हमें प्रत्येक पाठ के उद्देश्य का ज्ञान होना चाहिए क्योंकि उस पाठ का प्रत्येक भाग और उसमें हम तथा हमारे छात्र जो कुछ करते हैं उस उद्देश्य पर निर्भर करते हैं।”

(3) जीवन से सम्बन्धित करने का सिद्धान्त (Principle of Linking, with life) – शिक्षण जीवन से सम्बन्धित होना चाहिए। उसका अर्थ यह है कि किसी भी विषय को पढ़ाते समय यह ध्यान रखना चाहिए कि वह जीवन में आने वाली परिस्थितियों से सम्बन्धित है या नहीं। बालक उन विषयों को आसानी से समझ लेता है जो उसके जीवन से सम्बन्धित होते हैं। इस स्थिति में शिक्षक का कर्त्तव्य होता है कि वह प्रत्येक विषय को जीवन से सम्बन्धित करके ही उसका शिक्षण प्रदान करे।

(4) रुचि का सिद्धान्त (Principle of Interest) – किसी भी विषय को सिखाने के लिए यह आवश्यक है कि बालक की उसमें रुचि हो। पाठ में रुचि उत्पन्न करके बालकों को पढ़ाना ही उचित है। इस हेतु शिक्षक को अपने विषय को यथासम्भव रोचक और आकर्षक बनाने हेतु विभिन्न प्रणालियों का उपयोग करना चाहिए ऐसा करने पर उस विषय में छात्रों की रुचि बनी रहती है और वे उसे आसानी से सीख लेते हैं।

(5) चयन करने का सिद्धान्त (Principle of Selection) – शिक्षण के सामान्य सिद्धांतों में चयन के सिद्धांत का अपना अलग स्थान है। ज्ञान का क्षेत्र इतना विकसित है कि सभी चीजों को छात्रों को एक समय में नहीं बताया जा सकता। फलस्वरूप अध्यापक को पाठ्यक्रम का चुनाव इस प्रकार करना चाहिए कि छात्र उन्हें आसानी से ग्रहण कर सकें और शिक्षा के उद्देश्यों की प्राप्ति भी हो जाए। अध्यापक को पाठ्यक्रम के अनुपयुक्त तत्त्वों को हटाकर उपयोगी तत्त्वों का ही चयन करना चाहिए। चयन के सिद्धांतों में छात्रों की अवस्था एवं योग्यता को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए।

(6) पुनरावृत्ति का सिद्धान्त (Principle of Revision) – किसी पाठ को दोहराने से वह पाठ बालक के मस्तिष्क में भली-भाँति बैठ जाता है अतः छात्रों को पाठ दोहराने का अवसर प्रदान किया जाना चाहिए। अध्यापक को यह चाहिए कि वह पाठ को पढ़ाने के पश्चात् एक बार उसकी पुनरावृत्ति अवश्य करे।

(7) विभाजन का सिद्धांत (Principle of Division)- विभाजन के सिद्धांत के अनुसार पाठ्यक्रम को विभिन्न अन्वितियों या पाठों में बाँट लेना चाहिए। इस प्रकार के विभाजन से शिक्षा कार्य में सुविधा होती है। रायबर्न ने लिखा है, “एक विभाजन या पद दूसरे विभाजन या पद तक पहुँचा देता है जिसके फलस्वरूप कक्षा के हेतु समझना सहज हो जाता है।”

(8) वैयक्तिक विभिन्नता का सिद्धान्त (Principle of Individual Difference) – प्रत्येक छात्र की योग्यता और चीजों को ग्रहण करने की क्षमता अलग-अलग होती है। कुछ अत्यन्त कुशाग्र बुद्धि होते हैं और किसी विषय को अत्यन्त आसानी से समझ लेते हैं तथा कुछ उसे देर में अध्यापक के हेतु इस वैयक्तिक विभिन्नता को जानने की भी आवश्यकता है। प्रत्येक बालक की मानसिक, शारीरिक, बौद्धिक क्षमता को ध्यान में रखकर ही शिक्षण प्रदान किया जाना चाहिए। यह मानना नितान्त त्रुटिपूर्ण है कि समस्त बालकों का बौद्धिक स्तर एक समान होता है और उनको एक समान शिक्षा दी जानी चाहिए।

हिन्दी भाषा का शिक्षण-सूत्र

शिक्षण एक कला है और शिक्षक कलाकार। उसके शिक्षण सम्बन्धी सभी कार्य कलापूर्ण होते हैं। शिक्षण कार्य में कलात्मकता बनी रहे और विद्यार्थियों को पढ़ाई जाने वाली पाठ्यवस्तु उन्हें भली-भाँति हृदयंगम हो जाय तथा उनके उत्साह में कोई कमी परिलक्षित न होने पाए, इसके लिये शिक्षाशास्त्रियों ने कुछ शिक्षण सूत्रों का निर्माण किया है, जिसका अनुसरण करके शिक्षक अपने कार्य में आशातीत सफलता प्राप्त कर सकते हैं और उसके मार्ग की तद्विषयक कठिनाइयाँ दूर हो सकती हैं। यह सभी शिक्षण सूत्र बालकृति और मनोविज्ञान की दृष्टि से विकसित हुए हैं। प्रमुख शिक्षण सूत्रों की चर्चा यहाँ की जा रही है-

(1) सरल से जटिल की ओर (From Simple to Complex) – इस सूत्र के अनुसार बालक को सर्वप्रथम सरल बातों का ज्ञान कराया जाना चाहिए और तत्पश्चात् कठिन का। बालक की रुचि के अनुरूप पाठ का क्रमिक विकास करना ही सरल से जटिल की ओर अग्रसर करना है। यह एक मनोवैज्ञानिक सत्य है कि रुचि के आधार पर बालक पहले सरल वस्तुओं को सीखना अधिक पसन्द करेगा, तदुपरान्त कठिन विषयों को। यदि अध्यापक आरम्भ में ही कठिन बातों को बालकों के सम्मुख उपस्थित कर देगा, तो बालक हतोत्साहित हो जायगा और उसमें एक ऐसी घबराहट आ जायगी कि आगे का सरलता से सीख सकने वाला पाठ वह न सीख सकेगा। इसलिए उचित यह है कि सरल से जटिल की ओर बढ़ा जाय।

(2) ज्ञात से अज्ञात की ओर (From Known to Unknown) – इस सूत्र के अनुसार बालक जिस ज्ञान से परिचित उस ज्ञान के आधार पर ही नवीन का सम्बन्ध स्थापित किया जाय। कक्षा की जिन सरल व साधारण बातों से बालक परिचित है उससे आरम्भ करके उसे उन बातों की ओर ले जाना चाहिए जिनसे वह अपरिचित है। यदि शिक्षक पूर्व ज्ञान को बालक की चेतना में लाकर फिर उसका सम्बन्ध नवीन ज्ञान से कर देता है, तो बालक उस तथ्य को सरलतापूर्वक समझ जाते हैं।

(3) स्थूल से सूक्ष्म की ओर (From Concrete to Abstract) – इसे मूर्त से अमूर्त की ओर भी कहा जाता है। इसका तात्पर्य यह है कि बच्चे को पहले स्थूल वस्तुओं का ज्ञान कराना चाहिए उसके बाद सूक्ष्म वस्तुओं का। स्पेन्सर ने लिखा है, “हमारे पाठ का आरम्भ स्थूल वस्तुओं से किया जाये और अन्त सूक्ष्म बातों में हो।”

इसके विपरीत यदि शिक्षक पहले सूक्ष्म बातों का ज्ञान देने का प्रयत्न करेगा तो बालक कुछ भी न सीख सकेगा। इस सूत्र के अनुसार भूगोल तथा इतिहास का शिक्षण मानचित्र तथा दृष्टान्तों से आरम्भ होना चाहिए। भाषा की परिभाषाओं, नियमों तथा सिद्धान्तों को समझना कठिन है। इस सूत्र का महत्त्व स्पष्ट करते हुए पेस्टालॉजी ने कहा है, शिक्षा ऐसी वस्तुओं के माध्यम से दी जानी चाहिए, जो बालकों के सम्पर्क में आती हो और जिनका उनकी रुचि, भावना तथा विचारों के साथ तत्कालीन सम्बन्ध हो। बालकों की शिक्षा स्थूल वस्तुओं एवं तथ्यों से होनी चाहिए, शब्दों, परिभाषाओं तथा नियमों से नहीं।

(4) पूर्ण से अंश की ओर (From Whole to Part)- इस सूत्र का तात्पर्य यह है कि पहले पूर्ण वस्तु को मूल रूप में या चित्र में बालकों के सामने प्रस्तुत किया जाय तब उसके अंशों का ज्ञान कराया जाय। बालक के मन पर पूर्ण चित्र एक साथ अंकित हो जाता है। तब अंशों की ओर उसका ध्यान जाता है, यह एक स्वाभाविक प्रक्रिया है जिसका ध्यान अध्यापन के समय अवश्य रखा जाना चाहिए। हाँ, पूर्ण से अंशों की ओर चलकर पुनः अंशों को मिलाकर पूर्ण का निर्माण कर देना चाहिए।

(5) अनिश्चित से निश्चित की ओर (From Indefinite to Definite) – बालक के बौद्धिक विकास का क्रम अनिश्चित से निश्चित की ओर है। प्रारम्भ में उसका ज्ञान अस्पष्ट तथा अनिश्चित होता है। बालक आरम्भिक अवस्था में ज्ञानेन्द्रियों द्वारा ज्ञान प्राप्त करते हैं और इस ज्ञान के द्वारा उनके मस्तिष्क पर किसी वस्तु के सम्बन्ध में जो चित्र या धारणा बनती है, वह अत्यन्त अस्पष्ट एवं अनिश्चित होती है। अतः अध्यापक के लिए आवश्यक है कि बालक के संदेह तथा भ्रम को मिटाने के लिए उसके अनिश्चित ज्ञान को निश्चित रूप से देना चाहिए।

(6) प्रत्यक्ष से अप्रत्यक्ष की ओर (From Seen to Unseen) – इस सूत्र का अभिप्राय है कि बच्चे उन बातों को शीघ्र समझ जाते हैं, जो प्रत्यक्ष रूप से उनके सामने होती है और जो वस्तुएँ उनके समक्ष नहीं हैं, उनको समझने में उन्हें परेशानी होती है। यदि बच्चों को ताजमहल का ज्ञान कराना है तो उन्हें पहले छोटा-सा बना बनाया मॉडल दिखाना चाहिए। जिससे कि उन्हें उसके बड़े रूप का आभास हो सके। एक विद्वान ने इस सूत्र को स्पष्ट करते हुए कहा है, “वर्तमान का ज्ञान देने के पश्चात् बालक को भूत और भविष्य की बातों का ज्ञान कराना चाहिए। जो वस्तुएँ बालक के सामने होती हैं उनका ज्ञान वह सरलता तथा शीघ्रता से प्राप्त कर लेता है, अतः अप्रत्यक्ष का ज्ञान देने के लिए प्रत्यक्ष वस्तुओं का प्रयोग करना चाहिए और बालक के सम्मुख आवश्यकतानुसार प्रत्यक्ष बातों के ही उदाहरण प्रस्तुत करने चाहिए।”

(7) विशिष्ट से सामान्य की ओर (From Particular to General ) – इस सूत्र में किसी विशेष वस्तु को आधार बनाकर सामान्य नियमों का निर्माण किया जाता है या सामान्य नियमों का ज्ञान कराया जाता है। बच्चे को प्रारम्भ में किसी खास वस्तु या व्यक्ति का ज्ञान रहता है और इस विशेष वस्तु के ज्ञान के आधार पर ही वह सामान्य सिद्धान्तों को समझ लेता है। बिना विशेष ज्ञान के बच्चे सामान्य सिद्धान्तों को सरलता से नहीं समझ पाते। आगमन विधि में इस सूत्र का प्रयोग किया जाता है। इस प्रणाली से प्राप्त किया हुआ ज्ञान ठीक होता है।

(8) विश्लेषण से संश्लेषण की ओर (From Analysis to Synthesis) – इस सूत्र का तात्पर्य यह है कि पूर्ण से अंश की ओर बढ़ते हुए पूर्ण का अंशों में विश्लेषण किया जाय, पुनः संश्लेषण द्वारा पूर्ण का प्रत्यक्षीकरण करा दिया जाय। आरम्भ में बालक का ज्ञान अधूरा, अनिश्चित तथा अव्यवस्थित होता है। उसके ज्ञान को सम्पूर्ण निश्चित तथा सुव्यवस्थित करना शिक्षक का कार्य है। शिक्षक विश्लेषण प्रणाली द्वारा इस कार्य को पूरा करता है। विश्लेषण वह क्रिया है जिसमें हम सम्पूर्ण वस्तु के अध्ययन से आरम्भ करते हैं। फिर उस वस्तु का विभिन्न तत्वों तथा भाग में विभाजन करते हैं, तत्पश्चात् प्रत्येक भाग का अलग-अलग अध्ययन करते हैं। विश्लेषण के पश्चात् विश्लेषित विभिन्न अंगों में सामंजस्य स्थापित करके उनका संश्लेषण करना चाहिए, जिससे कि बालकों को सम्पूर्ण ज्ञान हो। यदि संश्लेषण नहीं हुआ तो बच्चों का ज्ञान स्पष्ट, अनिश्चित, सम्भव न हो सकेगा। अतः पाठ को सफल बनाने के लिए विश्लेषण के पश्चात् संश्लेषण अवश्य करना चाहिए।

(9) मनोवैज्ञानिक से तर्कात्मक की ओर (From Psychological to Logical) – पाठ्य-वस्तु को बालकों के सम्मुख तर्कात्मक ढंग से विभिन्न भागों और खण्डों में विभाजित करके क्रमशः पाठ को विकसित करने की प्रणाली, तर्कात्मक प्रणाली और बालकों की रुचि, जिज्ञासा, उत्साह, आयु तथा ग्रहण शक्ति इत्यादि को दृष्टि-पथ में रखते हुए पाठ के प्रस्तुतीकरण को मनोवैज्ञानिक प्रणाली कहते हैं। शिक्षा क्षेत्र में आजकल मनोवैज्ञानिक पद्धति को ही प्रमुखता दी गई है। आज मनोवैज्ञानिक यह माँग करता है कि बालक की शिक्षा में हमें उसकी रुचि और मानसिक विकास की अवस्था पर ध्यान देना है। पर एक तरह से देखा जाय तो तार्किक विधि भी अमनोवैज्ञानिक नहीं ठहरती, क्योंकि उसमें भी मनोविज्ञान होता ही है। वह विधि तार्किक नहीं है जिसमें मनोविज्ञान को स्थान न मिला हो।

पाठ्य-वस्तु को बालकों की रुचियों, प्रवृत्तियों तथा क्षमताओं के अनुसार समझाया जाना चाहिए। जो ज्ञान बालक अपनी रुचियों, प्रवृत्तियों तथा क्षमताओं के अनुसार ग्रहण करते हैं वह उनके मस्तिष्क में दृढ़ हो जाता है।

(10) अनुभूत से युक्ति-युक्त की ओर (From Empirical to Rational) – जब बालक करके या निरीक्षण करके ज्ञान प्राप्त करता है तो उसको अनुभूत ज्ञान कहते हैं, परन्तु इसी ज्ञान को जब अध्यापक उसके कार्य और कारणों को समझाकर किसी सिद्धान्त की रचना कर देता है तो वह ज्ञान युक्तियुक्त हो जाता है। प्राप्त ज्ञान को युक्तियुक्त कर देने से उसमें स्थायित्व आ जाता है।

(11) प्रवृत्ति का अनुसरण करो (Follow the Nature)- इस सूत्र के अनुसार बालक को प्रकृति के अनुसार शिक्षा प्रदान की जानी चाहिए। दूसरे शब्दों में बालक की मानसिक प्रकृति जिस स्तर की हो उसी के अनुसार शिक्षा दी जाय। बालक के शारीरिक एवं मानसिक विकास के अनुकूल प्रदान की जाने वाली शिक्षा पूर्णतया मनोवैज्ञानिक होती है। जब बालक की मूल-प्रवृत्ति, रुचि तथा विभिन्न प्राकृतिक क्षमताओं को ध्यान में रखकर जब उसे शिक्षा दी जाती है, उसे बालक उल्लसित चित्त से ग्रहण करता है। शिक्षण में कृत्रिम तथा अस्वाभाविक मार्ग का अनुसरण करना सब विधि से हानिकारक होता है। अतएव शिक्षण कार्य में अध्यापकों की कृत्रिमता को स्थान न देकर प्रकृति का अनुसरण करना चाहिए।

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Anjali Yadav

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