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माध्यमिक विद्यालय के पाठ्यक्रम में हिन्दी का क्या स्थान होना चाहिए ?

माध्यमिक विद्यालय के पाठ्यक्रम में हिन्दी का क्या स्थान होना चाहिए ?
माध्यमिक विद्यालय के पाठ्यक्रम में हिन्दी का क्या स्थान होना चाहिए ?

माध्यमिक विद्यालय के पाठ्यक्रम में हिन्दी का क्या स्थान होना चाहिए ? विवेचना कीजिए।

माध्यमिक विद्यालय के पाठ्यक्रम में हिन्दी का स्थान

आत्म-निर्देशन एवं भावों की अभिव्यक्ति के लिए तथा दूसरों के विचारों को ग्रहण करने के लिए मनुष्य को किसी न किसी भाषा का अवश्य प्रयोग करना पड़ता है परन्तु अपने अन्तर्द्वन्द्वों, उद्वेगों तथा मनोभावों की अभिव्यंजना जितनी सुन्दरता, सरलता, स्पष्टता तथा सुगठित रूप से अपनी मातृभाषा में की जा सकती है, उतनी किसी अन्य भाषा में नहीं। अपने समाज के शिष्टजन जिस भाषा में विचार-विनिमय, काम-काज, लिखा-पढ़ी करते हों, वही मातृभाषा है।

जिस भाषा का प्रयोग बालक सर्वप्रथम अपनी माँ से सीखता है और उसके माध्यम वह परिवार एवं समुदाय में अपने विचारों की अभिव्यक्ति करता है, सही अर्थ में उस बालक की वही मातृभाषा है, किन्तु उत्तर प्रदेश में गाँवों के बालक प्रारम्भ में अपनी भावाभिव्यक्ति प्रायः अवधी, ब्रज, भोजपुरी आदि बोलियों के माध्यम से करते हैं फिर भी उत्तर प्रदेश के शिष्ट समाज के विचार-विनिमय का माध्यम खड़ी बोली हिन्दी है। अतः उत्तर प्रदेश की मातृभाषा हिन्दी है न कि कोई बोली विशेष और छात्र को इसी हिन्दी का ज्ञान कराता है। भाषा की गतिशीलता के कारण प्रत्येक भाषा की अनेक उपभाषाएँ तथा उपबोलियाँ हुआ करती हैं। इस प्रकार मातृभाषा में भी अनेक उपभाषाएँ एवं बोलियाँ सन्निहित होती हैं। वस्तुतः माता जिस बोली अथवा भाषा को बोलती है। वही बालक की मातृभाषा होती है। हम घर में अपनी प्रादेशिक भाषा बोलते हैं, परन्तु बाहरी व्यवहार में नागरी या हिन्दी ही बोलते या लिखते हैं। अतः हमारी मातृभाषा हिन्दी है। यही हमारे विचारों और कार्यों का संकलन है, यही हमारे मस्तिष्क-संस्थान का अभिन्न अंग है। इसी कारण हम अपनी आत्मरक्षा के भावों को व्यक्त करते हैं।

मातृभाषा में हमारी संस्कृति का इतिहास रहता है। उसके द्वारा हम अपने घर, जाति और में उस भाषियों से एक सूत्र में बँध जाते हैं। उसके प्रयोग से हम अनुभव करते हैं कि हमारी कुछ निज की सम्पत्ति है। भारतेन्दु हरिश्चन्द ने लिखा है-

निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल ।

बिन निज भाषा ज्ञान के, मिटै न हिय को शूल।।

इस प्रकार मातृभाषा भाव – प्रकाशन, मनोरंजन, ज्ञान, आनन्द, भावनाओं की अभिव्यंजना एवं मस्तिष्क का विकास करने वाली भावनाओं की दी हुई सर्वोत्तम शक्ति है जिसके द्वारा हम उसके समीप पहुँचते हैं। दूसरे शब्दों में, मातृभाषा के अध्ययन से निम्नलिखित लाभ हैं-

  1. मातृभाषा व्यक्ति के सर्वांगीण व्यक्तित्व के विकास का साधन है।
  2. इसमें भावों, क्रियाओं-प्रतिक्रियाओं को सुन्दर, स्पष्ट और सरल रूप से अभिव्यंजना करने की कला आती है।
  3. इससे बालक की मानसिक, संवेगात्मक शक्ति तथा नैतिकता का विकास होता है।
  4. इसके द्वारा मस्तिष्क की शक्तियाँ अनुशासित हो जाती हैं जिससे बालक में उचित निर्णय, तर्क, विवेक तथा धारणा की गति में तीव्रता आ जाती है।
  5. इसके माध्यम से उच्चकोटि के साहित्यिक भाव, काव्यानुभूति एवं रसानुभूति चमत्कार आदि के समझने में दक्षता आ जाती है।
  6. इससे बालकों में अपने विचारों को धाराप्रवाह और प्रभावशाली रीति से प्रकट करने की शक्ति उत्पन्न होती है।
  7. यह शब्द और ज्ञान के भण्डार को बढ़ाती है।

उपर्युक्त गुण एवं उपयोगिता होने के कारण हमें यह तो मानना ही होगा कि मातृभाषा ज्ञान की आधारशिला है। यही हमारे ज्ञान की प्रथम सीढ़ी है।

मातृभाषा का पाठ्यक्रम में स्थान

मातृभाषा में हमारी जातीय संस्कृति का इतिहास छिपा रहता है। मातृभाषा के ज्ञान के बिना बालक का सर्वतोन्मुखी विकास असम्भव है। बालकों के संवेग, स्थायी भावों आदि का मातृभाषा से घनिष्ठ सम्बन्ध है।

बाल-मनोविज्ञान का प्रधान साधन मातृभाषा की ही शिक्षा है। विद्यार्थी का मस्तिष्क ज्ञान, विचार-विनिमय, निर्माण-कुशलता, मौलिकता का विकास इसी पर निर्भर है। भावानुभूति और व्यक्तित्व का विकास भी इसी के सहारे होता है क्योंकि मातृभाषा को सीखने में अधिक कठिनाई नहीं पड़ती। बिना पढ़ाये ही बालक उल्टी-सीधी मातृभाषा बोल लेता है और उसके प्रत्येक कार्य का मातृभाषा से प्रत्यक्ष सम्बन्ध स्थापित हो जाता है।

मातृभाषा ही सब विषयों एवं ज्ञान-विज्ञानों का मूलाधार होता है। वह स्वयं एक विषय ही नहीं बल्कि अन्य विषयों का आधार स्तम्भ है। जो छात्र स्पष्ट रूप से न विचार कर सकता है और न विचार एवं भावनाओं को स्पष्ट रूप व्यक्त कर सकता है। वह किसी भी विषय में अच्छा ज्ञान नहीं प्राप्त कर सकता। चाहे वह इतिहास हो, चाहे वह विज्ञान हो और चाहे वह कोई अन्य विषय। अतः मातृभाषा का पाठ्यक्रम में महत्त्वपूर्ण स्थान है। उसी पर अन्य सभी विषयों की पूर्णता, योग्यता और सफलता निर्भर है तथा उसी पर शिक्षा की सफलता का भार है। उसे केवल एक शैक्षिक विषय कहने की अपेक्षा जीवन का अनिवार्य आधार कहना चाहिए। वह जीवन की एक ऐसी परिस्थिति है जिससे बचकर निकलना असम्भव है। प्रत्येक व्यक्ति जन्म से लेकर मृत्यु तक उससे ओत-प्रोत होता है।

जिस भाषा में बच्चा सोचता है, बोलता है, स्वप्न देखता है, वही विद्यालय में पढ़ने के लिए, शिक्षा के लिए और मानव विकास के लिए मुख्य और नितान्त आवश्यक है। हम अपने भावों की अभिव्यक्ति लिखकर या बोलकर करते हैं। कभी-कभी ऐसे भी विचार उठते हैं जो बिना मातृभाषा के व्यक्त ही नहीं हो पाते। साथ ही कोई भी ऐसा व्यक्ति सच्चा नागरिक नहीं हो सकता जिसे मातृभाषा बोलने और लिखने की उचित शिक्षा नहीं दी हो। अच्छे नागरिक के गुण – शुद्ध विचार, विचारों की शुद्धि एवं स्पष्ट अभिव्यक्ति, विचारों की सच्चाई, कार्य-कुशलता, क्रियाशीलता आदि तब तक नहीं आ सकते जब तक कि मस्तिष्क का विकास न हो और ज्ञान तथा मस्तिष्क का विकास मातृभाषा द्वारा ही सम्भव है।

इस प्रकार पाठ्यक्रम में मातृभाषा को उचित स्थान न देने पर शिक्षा के सर्वतोमुखी विकास के उद्देश्य की पूर्ति होना असम्भव है। बालक के विचार उत्तम हों, स्पष्ट हों, सुबोध हों, आध्यात्मिक, स्वाभाविक हों, ज्ञान गहनतम और नवीनतम हों, आचार-विचार, क्रियाकलाप, संस्कृति, सभ्यतानुकूल हो तथा उसकी रचना-शक्ति विकसित हो, इन सबके लिए मातृभाषा का शिक्षण आवश्यक हो जाता है।

मातृभाषा के ज्ञान से तथा उसके माध्यम के द्वारा प्राप्त किये हुए ज्ञान से बालक की अन्तर्प्रवृत्तियाँ सजग हो उठती हैं तथा उसके अनुभवों में वृद्धि तथा चारित्रिक विकास में सहायता मिलती है। मनोविज्ञान के सिद्धान्त ‘ज्ञान से अज्ञान की ओर’ का पालन किये बिना मातृभाषा के ज्ञान को किसी भी प्रकार प्राप्त नहीं किया जा सकता। किसी भी बालक का वैयक्तिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक विकास बिना मातृभाषा के ज्ञान के निर्मूल है।

अब अधिकतर शिक्षाशास्त्री इस बात से सहमत प्रतीत होते हैं कि बालक की शिक्षा सदा मातृभाषा द्वारा ही प्रारम्भ हो और प्राथमिक कक्षाओं में तो किसी अन्य भाषा को प्रारम्भ करना उचित नहीं है। कक्षा पाँच या छः से ही द्वितीय भाषा को ही प्रारम्भ किया जा सकता है अर्थात् किसी अन्य भाषा का पढ़ना-पढ़ाना तब प्रारम्भ किया जाये जब छात्र का अधिकार अपनी मातृभाषा पर हो जाये। जहाँ तक शिक्षा के माध्यम का प्रश्न है, यह बात स्वतन्त्र भारत के सभी शिक्षा आयोगों एवं शिक्षा समितियों ने स्वीकार की है कि शिक्षा के उच्च स्तर तक मातृभाषा को ही शिक्षा एवं परीक्षा का माध्यम बनाना चाहिए।

सारांश- उपर्युक्त विवेचन से हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि प्राथमिक कक्षाओं में मातृभाषा का स्थान सर्वोत्तम है और माध्यमिक कक्षाओं में भी यह महत्त्वपूर्ण है। पाठ्यक्रम में मातृभाषा एक विषय के रूप में प्रमुख स्थान रखती है। साथ ही पाठ्यक्रम में अन्य विषयों में अध्ययन का यह माध्यम भी है। इसके ज्ञान के बिना हम अन्य विषयों की शिक्षा भी ठीक से ग्रहण नहीं कर सकते।

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Anjali Yadav

इस वेब साईट में हम College Subjective Notes सामग्री को रोचक रूप में प्रकट करने की कोशिश कर रहे हैं | हमारा लक्ष्य उन छात्रों को प्रतियोगी परीक्षाओं की सभी किताबें उपलब्ध कराना है जो पैसे ना होने की वजह से इन पुस्तकों को खरीद नहीं पाते हैं और इस वजह से वे परीक्षा में असफल हो जाते हैं और अपने सपनों को पूरे नही कर पाते है, हम चाहते है कि वे सभी छात्र हमारे माध्यम से अपने सपनों को पूरा कर सकें। धन्यवाद..

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