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अन्तः श्वसन से होने वाली बीमारियाँ | DISEASES CAUSED BY INHALATION- Part 2

अन्तः श्वसन से होने वाली बीमारियाँ | DISEASES CAUSED BY INHALATION- Part 2
अन्तः श्वसन से होने वाली बीमारियाँ | DISEASES CAUSED BY INHALATION- Part 2

अन्तः श्वसन से होने वाली बीमारियाँ | DISEASES CAUSED BY INHALATION- Part 2

डिफ्थीरिया (Diphtheria)

यह एक तीव्र संक्रामक एवं फैलने वाला रोग है। यह रोग किलैब्स लियोफिलर (Klebs-Leofler) बैसीलस द्वारा होता है। इस जीवाणु को कॉरीनोबैक्ट्रीयम डिफ्थीरिया (Coryne-bactrium Diphtheria) भी कहते हैं। यह जीवाणु मुख्यतः गले, हलक तथा श्वसन नलिकाओं के ऊपरी अंगों में उत्पन्न होता है। यह गले, नाक तथा मुख के विसर्जनों में पाया जाता है।

लक्षण (Symptoms)- इस रोग के प्रमुख लक्षण निम्नांकित हैं-

(i) प्रारम्भ में रोगी का गला खराब हो जाता है।

(ii) जबड़े तथा गर्दन के पास की लसिका ग्रन्थियाँ सूज जाती हैं।

(iii) टॉन्सिलों का बढ़ जाना।

(iv) गम्भीर रूप से कण्ठ, तालु तथा टॉन्सिलों की श्लैष्मिक झिल्ली पर सफेद चकत्ते पढ़ जाना।

(v) थूक सटकने, पानी पीने अथवा साँस लेने में कठिनाई का अनुभव होना।

(vi) इस रोग के जीवाणु विष उत्पन्न करते हैं। यह विष रक्त में घुलकर रोगी के नाड़ी मण्डल तथा हृदय को प्रभावित करता है।

उद्भवन काल (Incubation Period) सामान्यत: 2 से 5 दिन तक माना जाता है, परन्तु कभी-कभी यह काल लम्बा भी हो जाता है।

रोग के स्तर- यह रोग तीन स्तरों में होकर गुजरता है—(1) टॉक्सीमिया स्तर (Stage of Toxaeniea), (2) कॉरडियोवसकुलर की असफलता का स्तर (Stage of Cardiovascular Failure) तथा (3) लकवा का स्तर (Stage of Paralysis)

निवारण (Prevention)- इस रोग के निवारण के लिए निम्नलिखित उपायों को काम में लाया जा सकता है-

(1) अधिसूचना- इस रोग के फैलने पर सम्बन्धित अधिकारियों को सूचना दी जानी चाहिए।

(II) पृथक्करण- रोगी को पृथक् कर देना चाहिए। पृथक्करण के लिए रोगी को अस्पताल भेजा जा सकता है और घर में अलग रखा जा सकता है। घर में उसे समुचित रूप से सम्बन्धित कमरे में रखा जाना चाहिए।

(III) निसंक्रमण- घर को फॉरमेलिन के प्रतिशत के घोल से निसंक्रमित किया जाना चाहिए। बिस्तर तथा वस्त्रों को भाप से निसंक्रमित किया जाना चाहिए। स्लेट, पेन्सिल, खिलौनों, आदि को आधे घण्टे तक उबाला जाना चाहिए। रोगी के गले तथा मुख के विसर्जनों को कपड़े के टुकड़े पर लेना चाहिए। उस कपड़े को तुरन्त ही जला देना चाहिए। नाक सम्बन्धी वाहकों को रोगाणुरोधक वस्तुएँ दी जानी चाहिए। सल्फापैरेडीन युक्त हों तो अच्छा है। मुख को रोगाणुरोधक घोल से धोना चाहिए।

(iv) नियमित रूप से उन सभी व्यक्तियों को गरारे कराने चाहिए जो रोगी के सम्पर्क में आते हों।

(v) रोग निरोधक प्रतिरक्षण (Prophyalactic Immunisation)–डिफ्थीरिया के परिणामों से जनता को अवगत कराया जाए। साथ ही उनको सक्रिय प्रतिरक्षण के लाभों की जानकारी करानी चाहिए। नवजात शिशु प्राय: आरक्षित नहीं होते हैं। इसलिए । वर्ष तक के बच्चों को सक्रिय प्रतिरक्षण प्रदान करना उपयुक्त नहीं है। 1 से 5 वर्ष तक के बच्चों को प्रतिरक्षण प्रदान करना अनिवार्य है क्योंकि ये सबसे अधिक आरक्षित होते हैं। इस आयु वर्ग के बच्चों की सिक-परीक्षा (Sick-Test) द्वारा जाँच की जाए। इसके बाद उनको सक्रिय प्रतिरक्षण प्रदान किया जाए।

(7) चेचक या बड़ी माता (Smallpox)—यह रोग तेजी से फैलने वाला ज्वरयुक्त संक्रामक रोग है। यह बहुत ही प्राचीन रोग है। इस रोग की चर्चा चरक ने भी की। वस्तुतः यह रोग विश्व के सभी भागों में फैला हुआ है। परन्तु पाश्चात्य जगत में यह रोग पूरब से हो गया है। यूरोप तथा अमेरिका में यह प्रायः लुप्त-सा हो गया है। यह अभी तक पूरब के देशों में प्रचलित है। भारत, पाकिस्तान, नेपाल, आदि एशिया महाद्वीप के देश इसके मूल केन्द्र बने हुए हैं। भारत में यह रोग महामारी के रूप में कई बार फैल चुका है। इका अधिकतर प्रकोप बिहार, बंगाल, मद्रास (चेन्नई) या तमिलनाडु, आदि प्रान्तों में होता है।

चेचक का जीवाणु- इसका जीवाणु वैरिओला वाइरस (Variola Virus) है। ये जीवाणु इतने सूक्ष्म होते हैं कि इनको खुर्दबीन से भी आसानी से नहीं देखा जा सकता है।

चेचक के स्वरूप (Forms of Smallpox)— चेचक दो रूपों में होती है। इसके दोनों स्वरूप निम्नलिखित हैं-

(अ) वैरिओला मेजर (Variola Major)– यह भारत में फैलती है। यह बड़ी उग्र होती है।

(ब) वैरिओला माइनर (Variola Minor)–इसको छोटी माता कहते हैं। यह दक्षिणी अमेरिका, संयुक्त राज्य अमेरिका, आदि में फैलती है। इसको एलास्ट्रिम (Alastrim) के नाम से भी जाना जाता है।

कारण– यह रोग निस्यन्दनीय वाइरस के कारण होता है। ये वाइरस प्रारम्भिक अवस्था में मुख तथा नाक में उपस्थित रहते हैं। बाद में ये त्वचा में उपस्थित हो जाते हैं।

उद्भवन काल- 7 से 16 दिन तक माना जाता है। वस्तुत: औसतन यह अवधि 12 दिन है।

निवारण (Prevention)– चेचक के फैल जाने पर उसकी रोकथाम के लिए निम्नलिखित उपायों को काम में लाया जा सकता है

(1) अधिसूचना– रोग के फैलने की सूचना सम्बन्धित अधिकारियों को देनी चाहिए।

(ii) पृथक्करण- रोगी को चेचक के अस्पताल या किसी पृथक् अस्पताल में भेज देना चाहिए। यदि ऐसा करना सम्भव न हो तो उसे घर में ही पृथक् कमरे में रखा जाये। कमरा पर्देयुक्त होना चाहिए।

(iii) निरन्तर निसंक्रमण- मुख तथा नाक के विसर्जनों को किसी कागज के थैले या किसी पात्र में लेना चाहिए। उनको तुरन्त जला देना चाहिए। रोगी द्वारा प्रयुक्त सभी वस्तुओं का शुद्धीकरण करते रहना चाहिए।

(iv) टीका- यही इस रोग को समाप्त करने का एकाकी उपाय है। रोगी के सम्पर्क में आने वाले सभी व्यक्तियों के टीका लगना चाहिए। टीका तथा पुनः टीका घर-घर में लगना आवश्यक है। प्रारम्भिक टीका 3 से 6 महीने की आयु पर लगना चाहिए। पुनः टीका प्रथम टीके के 4 या 5 वर्ष बाद लगना चाहिए। प्रत्येक व्यक्ति को पुनः टीका 6 से 8 वर्ष बाद अवश्य लगवा लेना चाहिए।

(v) उपशमी को स्वतन्त्रतापूर्वक घूमने तथा दूसरे व्यक्तियों से मिलने का अवसर नहीं देना चाहिए। उपशमन के बाद रोगी को साबुन लगाकर नहलाना चाहिए।

(vi) किसी क्षेत्र में चेचक फैल जाने पर सभी विभागों-विद्यालय, कारखाने, अध्यक्षों को सूचित करना चाहिए। साथ ही रोग-निरोधक टीके लगवाने की व्यवस्था करवानी चाहिए। उनको यह भी चेतावनी दी जाये कि उन घरों से सम्पर्क स्थापित नहीं किया जाना चाहिए जिनमें चेचक का प्रकोप है।

(vii) चेचक से जिन व्यक्तियों की मृत्यु हो जाये, उनके मृत शरीर को फारमेलिन के दो प्रतिशत के घोल में कपड़े को भिगोकर उसमें लपेटकर जला या दफना देना चाहिए।

(vill) छूत से ग्रस्त घर को पूरी तरह निसंक्रमित कर देना चाहिए। घर को निसंक्रमित करने के लिए फॉर्मेल्डिहाइड या सल्फर डाइऑक्साइड का प्रयोग किया जा सकता है। घर की दीवारों को चूने से पुतवा देना चाहिए। बिस्तर, वस्त्र तथा अन्य वस्तुओं को सूर्य के तेज प्रकाश में रखा जाना चाहिए। नगरपालिका को ऐसी वस्तुओं की निसंक्रमित करने के लिए भाप के निसंक्रामक का प्रयोग करना चाहिए।

(ix) जन साधारण को इस रोग से बचने के उपायों के सम्बन्ध में अवगत कराया जाये। इनको शिक्षित करने के लिए पोस्टरों, पेम्फलेटों, भाषण, फिल्म स्लाइडों, आदि का प्रयोग किया जाना चाहिए।

(x) अन्तर्राष्ट्रीय उपाय (International Measures) — इनके अन्तर्गत निम्नलिखित को काम में लाया जा सकता है—–

(अ) सरकार को तुरन्त ही चेचक के फैलने की सूचना विश्व स्वास्थ्य संगठन (World Health Organization W.H.O.) को देनी चाहिए।

(ब) छूत से ग्रस्त व्यक्ति को हवाई जहाज या पानी के जहाज से यात्रा करने के लिए प्रतिबन्ध लगाया जाये।

(स) अन्तर्राष्ट्रीय यात्रियों को भी टीके का प्रमाण-पत्र प्रस्तुत करने के लिए कहा जाये। यह प्रमाण-पत्र दो वर्ष की अवधि का हो अर्थात् व्यक्ति ने रोग के फैलने से 2 वर्ष पूर्व ही टीका लगवाया है तो उसे मान्यता प्रदान की जानी चाहिए।

(द) यदि किसी यात्री के पास प्रमाण-पत्र नहीं है तो उसे टीका लगाया जाये और उसे 14 दिन तक निरोधकाल (Quarantine) में रखा जाये।

उपचार- इसकी कोई विशेष दवा नहीं है। यह लक्षणात्मक है। आधुनिक काल में सल्फोनामाइड (Sulphonamide ) 4 से 6 ग्राम प्रतिदिन या 30 हजार इकाई पैनिसिलिन 3 या 4 घण्टे बाद माँसपेशियों द्वारा देना, उपयुक्त माना गया है। पेनिसीलिन एक सप्ताह में दी जानी चाहिए। पोटेशियम परमैंगनेट के घोल से मुख तथा त्वचा को साफ करते रहना चाहिए। दानों पर पाउडर छिड़कना उपयुक्त रहेगा। आँखों को बोरिक घोल से धोना चाहिए।

(8) छोटी माता (Chicken Pox) यह भी एक फैलने वाली बीमारी है। यह रोग छनने योग्य वाइरस के द्वारा उत्पन्न होता है, यह वाइरस बिन्दु संक्रमण से फैलाया जाता है। यह हवा या व्यक्तिगत सम्पर्क से भी प्रसारित होता है।

लक्षण- हल्के ज्वर के साथ दाने निकलना इसका प्राथमिक लक्षण है। ये दाने प्रारम्भ में धड़ पर निकलते हैं। प्रारम्भ में इनका स्वरूप ददोड़ों के समान होता है। बाद में ये फफोलों का रूप ग्रहण कर लेते हैं। ये दाने दो दिन में सम्पूर्ण शरीर में फैल जाते हैं। तीन या चार दिन बाद ये दाने सूखने लगते हैं और कुछ दिनों बाद सूखकर इनके खुरण्ट स्वयं गिर जाते हैं। इस रोग में कभी-कभी ठण्ड का अनुभव, पीठ में दर्द तथा जी मिचलाता है।

उद्भवन काल- करीब 14 दिन माना जाता है।

निवारण (Prevention)- इस रोग की रोकथाम के लिए निम्नलिखित उपायों को काम में लाया जा सकता है

(i) स्वास्थ्य अधिकारी को इस रोग की सूचना दी जाये।

(ii) रोगी को पृथक कर देना चाहिए।

(iii) बड़ी चेचक के निवारण के लिए जिन उपायों को बताया गया है, उन्हें इसके निवारण के लिए काम में लाया जाना चाहिए।

उपचार- इसकी कोई विशेष चिकित्सा का आविष्कार नहीं हो पाया है।

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Anjali Yadav

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