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अन्तः श्वसन से होने वाली बीमारियाँ | DISEASES CAUSED BY INHALATION- Part 3

अन्तः श्वसन से होने वाली बीमारियाँ | DISEASES CAUSED BY INHALATION- Part 3
अन्तः श्वसन से होने वाली बीमारियाँ | DISEASES CAUSED BY INHALATION- Part 3

अन्तः श्वसन से होने वाली बीमारियाँ | DISEASES CAUSED BY INHALATION- Part 3

खसरा (Measles)

यह एक सामान्य रोग है। यह बहुत ही फैलने वाली बीमारी है। यह रोग बच्चों को बहुत प्रभावित करता है। यह रोग वाइरसजन्य है। इसके वाइरस नाक के स्राव तथा त्वचा की खुरचनों (Scrappings) में उपस्थित रहते हैं। इनको ‘टिशु कल्चर’ (Tissue Culture) द्वारा हाल ही में पहचाना गया है।

लक्षण- इस रोग के प्रमुख लक्षण निम्नलिखित हैं—

(i) प्रारम्भ में जुकाम, सिरदर्द, खाँसी, छींक, कैंपकैंपी, ज्वर, नाक तथा आँखों से पानी आने लगता है।

(ii) रोग के चौथे दिन तक मुख, माथे, कनपटी, कान के पीछे, आदि पर दाने निकल आते हैं। ये दाने कुछ अर्द्धचन्द्राकार होते हैं।

(iii) इसके बाद दाने सारे शरीर पर फैल जाते हैं।

(iv) प्रारम्भ में दानों का रंग मटमैला लाल हो जाता है।

(v) इन दानों में एक-दो दिन तक तीव्रता रहती है, परन्तु चेचक तथा छोटी माता की भाँति इनमें पीव नहीं पड़ता है।

(vi) ये दाने दो-तीन दिन बाद मुरझाने लगते हैं और 8 या 10 दिन में भूसी उतर जाती है। इस रोग में सावधानी नहीं बरती गई तो अनेक गम्भीर उपसर्गनिमोनिया, ब्रॉनकाइटिस, आदि हो जाते हैं।

उद्भवन काल- 10 से 14 दिन तक माना जाता है।

निवारण (Prevention)— इस रोग की रोकथाम करना कठिन कार्य है, क्योंकि इसका उद्भवन काल पर्याप्त मात्रा में लम्बा है। इसके निवारण के लिए निम्नलिखित कदम उठाए जा सकते हैं-

(i) सन्देही व्यक्तियों को तुरन्त पृथक् कर देना चाहिए। इसके सम्बन्ध में इस बात का इन्तजार नहीं करना चाहिए कि उनके दाने निकलने पर अलग करेंगे।

(ii) क्षेत्र के स्वास्थ्य अधिकारियों को तुरन्त सूचना दी जाए।

(iii) नाक के स्राव को कपड़े के टुकड़ों से तुरन्त हटाया जाए और उन्हें जला देना चाहिए।

(iv) शरीर पर कार्बोलाइन्ड ग्लेसरीन या वैसलीन का प्रयोग किया जाना चाहिए।

(v) वस्त्रों, बिस्तर तथा कमरे को समुचित रूप से निसंक्रमित किया जाए।

(vi) संक्रमित घर के बच्चों को स्कूल नहीं जाने देना चाहिए। यदि यह रोग व्यापक रूप से फैला हो, तो विद्यालय को बन्द किया जा सकता है।

(vii) रोग निरोधक उद्देश्य से उपशमी, सीरम, गामाग्लोबोलिन (Gammaglobolin) या वयस्कों को सीरम का प्रयोग किया जा सकता है।

(viii) सक्रिय प्रतिरक्षण के लिए वाइरस वैक्सीन का भी प्रयोग किया जा सकता है।

उपचार- (i) रोगी को बिस्तर पर रखना चाहिए।

(ii) ब्रॉनकाइटिस के लिए लक्षणात्मक उपचार किया जाए।

(iii) 5 वर्ष के बच्चे को 0.5 ग्राम सल्फाआइजीन दिन में तीन बार दी जा सकती है। यह उपसर्गों की रोकथाम के लिए लाभप्रद है।

(10) तपेदिक तथा क्षय (Tuberculosis)– यह एक दीर्घकालीन बैक्टीरियल बीमारी है। सन् 1882 में रॉबर्ट कॉच (Robert Koch) ने यह खोज की कि यह रोग ट्यूबरकिल बैसीलस (Tubercle Bacillus) के कारण होता है। सामान्य प्रयोग में ‘ट्यूबरकुलोसिस’ शब्द के आने से पूर्व यह रोग थाइसिस (Phthisis) के नाम से जाना जाता था। यह जीनस माइक्रोबैक्ट्रीयम (Mycobacterium) से सम्बन्धित है। यह एक सूक्ष्मदर्शी जीवाणु है और छ: महीने तक सूखे स्थान पर जीवित रह सकता है। जब प्रत्यक्ष रूप से सूर्य के प्रकाश में आ जाता है तब यह आठ घण्टे में समाप्त हो जाता है। इसको 10 मिनट के उबाल से भी समाप्त किया जा सकता है। गर्म रक्त वाले सभी जानवर इस रोग से सुरक्षित हैं। यह उष्णकटिबन्धीय तथा समशीतोष्ण जलवायु वाले क्षेत्रों में प्रचलित है। यह बड़े भीड़भाड़ वाले नगरों में अधिक प्रचलित है। भारत में गाय तथा भैंस इस रोग से ग्रसित नहीं होते हैं, क्योंकि ये जानवर खुली हवा तथा सूर्य के प्रकाश में अधिकांश समय व्यतीत करते हैं।

क्षय या राजयक्ष्मा शरीर के किसी भी अंग या संस्थान में हो सकता है। इनमें फेफड़े का रोग प्रमुख है। हड्डी के क्षय को (Tuberculosis Osteomyelitis) कहते हैं। रीढ़ के क्षय को ‘Caries’, मस्तिष्क की झिल्ली के क्षय को मेनिनजाइटिस (Meningitis) तथा चर्म के क्षय को Lupus कहते हैं। इससे आँत, कान, ग्लैण्ड, आदि भी आक्रान्त हो जाते हैं।

लक्षण- फेफड़े तथा गम्भीरता के आधार पर इस रोग के तीन स्तर सामान्य (Minimal), सामान्य रूप में उन्नत (Moderately Advanced) तथा अति उन्नत (Far Advanced) होते हैं। इस रोग के प्रमुख लक्षण निम्नलिखित हैं

(1) अत्यधिक थकान। रोगी सामान्य रूप से भी अत्यधिक थकान का अनुभव करता है। उसको सामान्य निर्बलता तथा कार्य के प्रति अरुचि की भावना का अनुभव होता है।

(ii) भार में कमी ।

(iii) भूख में कमी

(iv) शाम के समय ज्वर होना।

(v) खाँसो तथा बलगम का आना। बलगम में कभी-कभी खून का आना।

(vi) रात को पसीना आना।

(vii) हल्की धड़कन

(viii) तेज नब्ज

(ix) सीने तथा गले में दर्द।

(x) श्वास का जल्दी-जल्दी लेना चलने-फिरने में साँस का फूल जाना।

(xi) शरीर का मांस सूख जाने पर हड्डियाँ दिखाई पड़ने लगती हैं।

(xii) स्त्रियों में इस रोग के कारण माहवारी में खून का आना बन्द हो जाता है। इसमें कभी-कभी छिछड़े से आने लगते हैं।

उद्भवन काल- छूत लगने से यह 4 से 6 सप्ताह होता है। प्रारम्भिक छूत से इसके विकसित होने में कई वर्ष भी लग सकते हैं।

निवारण (Prevention)- इस रोग की रोकथाम के लिए निम्नलिखित सामान्य उपायों को काम में लाया जा सकता है-

(i) सामान्य रूप से सफाई की व्यवस्था की जाए।

(ii) व्यक्ति को खुली हवा तथा प्रकाश में रहना चाहिए।

(iii) भवनों तथा सड़कों का समुचित निर्माण सड़कें चौड़ी होनी चाहिए। मकानों के पीछे तथा उनके चीच में पर्याप्त खाली स्थान रखना चाहिए। क्षेत्र में पार्क, उद्यान तथा खाली स्थान रखने चाहिए। घनी बस्तियों को नष्ट-भ्रष्ट करके उन्नत योजनाओं के अनुसार निर्माण कार्य किया जाए।

(iv) खाने तथा पीने की वस्तुओं की उचित देखभाल करनी चाहिए।

(v) अस्वस्थ व्यवसायों-कई कोयले की खानें, बीड़ी बनाने के कारखानों को नियमित किया जाना चाहिए और धूल के अन्तःश्वसन को रोकने के लिए उचित व्यवस्था की जानी चाहिए।

(vi) स्वस्थ जीवन के स्तर में सुधार लाया जाए।

(vii) जनता को भाषणों, पैम्फलेटों, स्लाइड्स, फिल्म तथा फिल्म पट्टियों के प्रयोग से शिक्षित किया जाए।

इस रोग की रोकथाम के लिए निम्नलिखित विशेष (Specific) उपायों को काम में लाया जा सकता है-

(i) अनिवार्य अधिसूचना होनी चाहिए। डॉक्टरों द्वारा इस रोग के रोगियों को घोषित कर देना चाहिए। इस रोग को घर के लोगों से भी छिपाकर नहीं रखना चाहिए।

(ii) क्षय रोग से ग्रसित माता-पिता से बच्चों को पृथक् कर देना चाहिए।

(iii) सभी क्षय रोगियों को, जिनके बलगम आ रहा है, उस समय तक सेनीटोरियम में भेज दिया जाए, जब तक बलगम समाप्त न हो जाए।

(iv) पूर्ण क्षय-निरोधी संगठन की व्यवस्था की जानी चाहिए। इसमें निम्नलिखित की व्यवस्था होनी चाहिए-

(अ) क्लीनिक प्रणाली ( Clinic System)–क्लीनिक पूर्णतः सुसज्जित होना चाहिए। इसके द्वारा निम्नलिखित बातों की पूर्ति की जानी चाहिए-

1. क्षय रोग का निदान करना।

2. रोगियों को उपचार के विषय में सलाह देना।

3. रोगियों को बताया जाए कि वे अपना प्याला, चम्मच, गिलास तथा अन्य वस्तुएँ पृथक् रखें।

4. इसे सूचना केन्द्र के रूप में कार्य करना चाहिए। साथ ही उसके प्रचार केन्द्र के रूप में भी कार्य करना चाहिए।

5. इसे उपचारात्मक (Curative) केन्द्र के रूप में भी कार्य करना चाहिए।

(ब) अस्पताल एवं सेनीटोरियम (Hospital and Sanitorium) अस्पताल गम्भीर रोगियों के लिए होते हैं और सेनीटोरियम प्राथमिक रोगियों के लिए होते हैं। इनमें उनको अपनी देखभाल करने के लिए प्रशिक्षित किया जाता है। अस्पताल या सेनीटोरियम का उपचार घर के छूत के केन्द्र को दूर कर देता है।

(स) गृह उपचार (Domicilliary Treatment) समुदाय के सभी रोगियों को अस्पताल में भर्ती करना सम्भव नहीं हो पाता है क्योंकि अस्पताल में सबके लिए बैंड उपलब्ध नहीं हो सकते हैं। इसलिए गृह उपचार की व्यवस्था करना अनिवार्य है। गृह-उपचार में रोगियों को देखने के लिए स्वास्थ्य निरीक्षकों (Health Visitors) की व्यवस्था होनी चाहिए। इनके लिए खुले हुए आवास की व्यवस्था हो जिससे वे दिन के समय में प्रकाश एवं शुद्ध हवा का सेवन कर सकें।

(द) क्षय रोगी बस्तियाँ (Tuberculosis Colonies)—सेनीटोरियम या डिस्पेन्सरी या क्लीनिक के पास क्षय के रोगियों के लिए बस्तियों की व्यवस्था करनी चाहिए जिससे इनकी समुचित रूप से देखभाल की जा सके। इन बस्तियों में जिल्द बाँधने, बढ़ईगीरी, चित्रकला, चटाई तथा डलिया बनाने के कार्यों को संचालित किया जाना चाहिए। इन कार्यों को करने के लिए रोगी अपने अधिकांश समय का उपयोग कर सकेंगे। साथ ही उनको शुद्ध वायु तथा प्रकाश मिल सकेगा।

(य) अस्पतालों के स्वास्थ्य अधिकारियों, प्राइवेट प्रैक्टिस करने वाले डॉक्टरों तथा क्षय रोग की डिस्पेन्सरियों के बीच समन्वय स्थापित किया जाना चाहिए।

(र) केयर तथा आफ्टर केयर (Care and After Care) समितियों का निर्माण, सेनीटोरियम, क्लीनिक, अस्पताल तथा बस्तियों में कार्य करने के लिए किया जाना चाहिए।

(ल) बी. सी. जी. (B.C.G.) का टीका लगवाया जाए। इससे व्यक्ति को आंशिक रूप से सुरक्षा प्रदान की जा सकती है।

उपचार- इस रोग के उपचार के लिए निम्नलिखित बातों पर ध्यान देना चाहिए-

(i) रोगी को पूर्ण विश्राम करना चाहिए।

(ii) रोगी को शुद्ध वायु एवं प्रकाश उपलब्ध कराना चाहिए।

(iii) रोगी को सन्तुलित तथा पौष्टिक आहार प्रदान किया जाना चाहिए। उसके भोजन में दूध, फल, अण्डे, आदि पर्याप्त मात्रा में होने चाहिए।

(iv) स्वस्थ जीवन व्यतीत करने की आदतों का निर्माण किया जाना चाहिए।

दवा सम्बन्धी उपचार—– (1) रोगी को 2 महीने तक माँसपेशियों के माध्यम से ग्राम स्ट्रैप्टोमाइसीन (Streptomycin) 2. सी.सी. दोहरे आसवित (Distilled) जल में मिलाकर प्रतिदिन देना चाहिए।

(2) पौ. ए. एस. (Para-Amino Salicylic Acid) की तीन-तीन टिकियाँ दिन में 6 बार दी जानी चाहिए। इन टिकियों का भार 5 ग्राम होना चाहिए। यह दवा तीन महीने तक चलनी चाहिए। अतः स्टैप्टोमाइसीन तथा पी. ए. एस. साथ-साथ चलेंगी।

(3) आई. एच. एच. (Isnicotine Acid Hydroxide) दवा को आइसोनाइजिड (Isoniazid) भी कहते हैं। इसको 100 मिलीग्राम की मात्रा में दिन में दो बार देना चाहिए। आजकल पी. ए. एस. तथा आई. ए. एच. को मिलाकर 18 महीने तक दिया जाता है। यह मिश्रण बड़ा प्रभावकारी सिद्ध हुआ है।

(4) कैल्शियम, विटामिन ‘ए’ तथा ‘डी’ मौखिक रूप से दिया जाना चाहिए।

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Anjali Yadav

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